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अश्विनी महाजन का ब्लॉगः आरसीईपी समझौता डेयरी के लिए खतरे की घंटी

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: October 13, 2019 06:23 IST

फसल, पशुधन, मत्स्य पालन और कृषि आगतों के लिए मांग और आपूर्ति के अनुमानों पर नीति आयोग के कार्यकारी समूह की रिपोर्ट (फरवरी 2018), के अनुसार 2033 तक दूध की मांग 292 मिलियन मीट्रिक टन होगी, जबकि भारत में 330 मिलियन मीट्रिक टन दूध का उत्पादन होगा.

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अश्विनी महाजनसरकार आरसीईपी-एफटीए (क्षेत्नीय व्यापक आर्थिक भागीदारी-मुक्त व्यापार समझौता) को अंतिम रूप देने पर विचार कर रही है. इसमें 10 आसियान देशों, जापान और दक्षिण कोरिया के अलावा चीन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड भी शामिल हैं. न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया डेयरी उत्पादों पर शुल्क कम करने के लिए भारत के साथ बातचीत कर रहे हैं ताकि उन्हें भारत में पहुंच मिल सके जो कि डेयरी उत्पादों का दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है.

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वाणिज्य मंत्नालय के तहत सेंटर ऑफ रीजनल ट्रेड के अधिकारी भारत के दुग्ध उत्पादन के आंकड़ों को तोड़-मरोड़ करके और भारत में दूध की भारी कमी का गलत अनुमान लगाकर दूध और उसके उत्पादों पर शुल्क घटाने के प्रस्ताव का समर्थन कर रहे हैं. दुग्ध उत्पादकों और प्रोसेसरों ने वाणिज्य मंत्नालय के साथ कुछ मजबूत तथ्यों को प्रस्तुत किया है, जिसे नौकरशाहों और सलाहकारों द्वारा जानबूझ कर नजरअंदाज किया जा रहा है.

फसल, पशुधन, मत्स्य पालन और कृषि आगतों के लिए मांग और आपूर्ति के अनुमानों पर नीति आयोग के कार्यकारी समूह की रिपोर्ट (फरवरी 2018), के अनुसार 2033 तक दूध की मांग 292 मिलियन मीट्रिक टन होगी, जबकि भारत में 330 मिलियन मीट्रिक टन दूध का उत्पादन होगा. इस प्रकार, भारत में दूध उत्पादों का अधिशेष होगा और आयात का सवाल ही नहीं उठता. एनडीडीबी और यहां तक कि एफएओ और आईएफसीएन जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने भी इसी तरह की प्रवृत्ति की पुष्टि की है.

वहीं, नीति आयोग की रिपोर्ट आगे बहुत अच्छे कृषि उत्पादन का सुझाव देती है जो 2033 में दुधारू मवेशियों के लिए चारे और चारे की उपलब्धता भी सुनिश्चित करेगा.

48 लाख की आबादी वाला न्यूजीलैंड 10,000 किसानों को रोजगार देकर 24 एमएमटी दूध का उत्पादन करता है और वो इसका 93 प्रतिशत निर्यात करता है. दूसरी ओर, भारत में 10 करोड़ परिवार अपनी आजीविका के लिए डेयरी उद्योग पर निर्भर हैं. यहां तक कि अगर न्यूजीलैंड अपनी उपज का केवल 5 प्रतिशत निर्यात करता है, तो यह भारत के प्रमुख डेयरी उत्पादों जैसे दूध पाउडर, मक्खन, पनीर आदि के उत्पादन के 30 प्रतिशत के बराबर होगा.

ऑस्ट्रेलिया के लिए भी यही सच है जहां 6000 से कम किसान 10 एमएमटी दूध का उत्पादन करते हैं और उसमें से 60 प्रतिशत से अधिक निर्यात करते हैं. फिर भारत को आरसीईपी में डेयरी उत्पाद (एचएसएन कोड 0401 से 0406) क्यों शामिल करने चाहिए और कम शुल्क पर आयात की अनुमति क्यों देनी चाहिए? क्या यह ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के किसानों की दोहरी आय सुनिश्चित करने के लिए है या भारतीय किसानों की?

दिलचस्प बात यह है कि भारतीय उपभोक्ताओं को विश्व स्तर पर सबसे सस्ती दर पर दूध मिल रहा है और दुग्ध उत्पादकों को उपभोक्ता कीमत (80 प्रतिशत से अधिक) का उच्चतम हिस्सा मिल रहा है. हमारे किसान को उनके दूध की सबसे अधिक कीमत भारत में मिल रही है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि आरसीईपी पर हस्ताक्षर, भारत के लिए डेयरी क्षेत्न के अस्तित्व पर खतरे की घंटी है, क्योंकि न्यूजीलैंड से सस्ते आयातित दूध पाउडर के कारण किसानों से दूध के खरीद मूल्य में कमी होगी. 

आज किसान को सहकारी और यहां तक  कि अन्य निजी कंपनियों के दूध प्रोसेसरों से भी लगभग 28-30 रु पए प्रति लीटर दूध का भाव मिलता है. यदि आरसीईपी के माध्यम से आयात की अनुमति दी जाती है, तो किसानों के लिए खरीद मूल्य में भारी कमी आएगी. इससे लगभग पांच करोड़ ग्रामीण लोगों को अपनी जीविका खोनी पड़ सकती है क्योंकि वे असामयिक ही डेयरी छोड़ने के लिए मजबूर होंगे.

यह स्वतंत्नता के बाद से भारत सरकार का सबसे आत्मघाती कदम साबित होगा. हमें यह समझना चाहिए कि एक बार जब डेयरी उद्योग खतरे में आता है, तो यह कदम खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल देगा. हम खाद्य तेलों जैसे ही डेयरी उत्पादों के आयात पर स्थायी रूप से निर्भर हो जाएंगे. इसके अलावा, हमें पता होना चाहिए कि डेयरी उद्योग ज्यादातर महिलाओं द्वारा संचालित किया जाता है. डेयरी पर प्रभाव महिला सशक्तिकरण के सपने को भी चकनाचूर कर देगा.

भारत का डेयरी उद्योग इस समय 100 अरब अमेरिकी डॉलर का है और अगर सरकार की नीति ग्रामीण दूध उत्पादकों के प्रति सहयोगात्मक बनी रहे तो अगले एक दशक में इस आकार को दोगुना करने का लक्ष्य है. दूध, भारत की सबसे बड़ी कृषि उपज (150 मिलियन मीट्रिक टन) है. वाणिज्य मंत्नालय के वार्ताकारों के द्वारा इसके लिए बेहतर अवसर प्रदान करने की कोशिश होनी चाहिए.

आरसीईपी पर हस्ताक्षर करने से हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में एक बड़ी अशांति फैल सकती है, क्योंकि वहां लोगों की आजीविका निश्चित रूप से इसके कारण प्रतिकूल रूप से प्रभावित होगी. सरकार को यह समझना चाहिए कि दुनिया के बाकी हिस्सों के साथ व्यापार में संलग्न होने के नाम पर समाज के गरीब और कमजोर वर्गो के हितों का त्याग करना एक गलत नीति है. सरकार से अपेक्षा है कि देश के गरीब डेयरी उत्पादकों की जीविका की रक्षा के लिए आरसीईपी पर हस्ताक्षर करने से बचे.

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