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रामविलास पासवान के आइने में सामाजिक न्याय के विरोधाभास, अभय कुमार दुबे का ब्लॉग

By अभय कुमार दुबे | Updated: October 21, 2020 14:02 IST

रामविलास पासवान को उनके दो त्यागपत्रों के लिए भी याद किया जाएगा. पहली बार उन्होंने सत्तर के दशक में जयप्रकाश नारायण की अपील पर बिहार विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया था. दूसरी बार उन्होंने गुजरात में हुए मुसलमान विरोधी नरसंहार का विरोध करते हुए अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से त्यागपत्र दे दिया था

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ठळक मुद्देगठबंधन में आने का न्योता दिया. पासवान ने उस न्यौते को स्वीकार करके गैर-भाजपा गठजोड़ की नींव रखी.पासवान को ही देख लीजिए. बिहार में उनकी बिरादरी (दुसाध) के वोट पांच फीसदी के आसपास हैं. नतीजा यह निकला कि वे बिहार में मुख्यमंत्री पद की दावेदारी करने में हमेशा अक्षम रहे.

भारतीय राजनीति के कई समीक्षकों ने रामविलास पासवान के संदर्भ में हालिया इतिहास के कुछ तथ्यों को याद किया है. मसलन, प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पासवान को ही मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का प्रस्ताव रखने की जिम्मेदारी दी थी.

इसी तरह जब कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी ने गठजोड़ राजनीति का आगाज करना चाहा तो सबसे पहले वे अपने बंगले से निकल कर पैदल चलते हुए पासवान के बंगले में पहुंचीं और उन्हें अपने गठबंधन में आने का न्योता दिया. पासवान ने उस न्यौते को स्वीकार करके गैर-भाजपा गठजोड़ की नींव रखी.

इसी तरह पासवान को उनके दो त्यागपत्रों के लिए भी याद किया जाएगा. पहली बार उन्होंने सत्तर के दशक में जयप्रकाश नारायण की अपील पर बिहार विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया था. दूसरी बार उन्होंने गुजरात में हुए मुसलमान विरोधी नरसंहार का विरोध करते हुए अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से त्यागपत्र दे दिया था.

यहां समझने की बात है कि बाद में पासवान ने उन्हीं नरेंद्र मोदी की सत्ता का हिस्सा बनना स्वीकार किया जो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे. पासवान को इस विरोधाभास का तीखा एहसास था, और वे व्यक्तिगत बातचीत में मानते थे कि लगातार सांसद व मंत्री बने रहने की कीमत उन्होंने सिद्धांतों से समझौते के रूप में चुकाई है.

दरअसल मसला केवल सिद्धांतों से समझौते का ही न होकर कुछ और भी है. बात यह है कि सामाजिक न्याय की राजनीति की पैरोकारी करने वाले नेता (चाहे वे अनुसूचित जातियों से आते हों या पिछड़ी जातियों से) चुनावी राजनीति में अपनी जाति की नुमाइंदगी करने से आगे बढ़ने में नाकाम रह गए हैं.

पासवान को ही देख लीजिए. बिहार में उनकी बिरादरी (दुसाध) के वोट पांच फीसदी के आसपास हैं. जनाधार की दृष्टि से पासवान इस प्रतिशत से आगे कभी नहीं बढ़ पाए. नतीजा यह निकला कि वे बिहार में मुख्यमंत्री पद की दावेदारी करने में हमेशा अक्षम रहे.

उन्होंने भी अपनी राजनीति की इन सीमाओं को जल्दी ही समझ लिया था इसलिए उनकी रणनीति केंद्र की राजनीति में जमने की रही. बिहार को उन्होंने लालू यादव और नीतीश कुमार के लिए छोड़ दिया. पासवान की यह भी समझ में आ गया था कि उनके राज्य के मुसलमान भी किसी दलित के नेतृत्व में आने के बजाय किसी ओबीसी का नेतृत्व ज्यादा पसंद करेंगे इसलिए लगातार सांप्रदायिकता विरोधी मुद्रा अख्तियार करने के सीमित लाभ भी उनके सामने स्पष्ट हो गए थे.

आज हमारे पास घटनाओं की पश्चात-दृष्टि है. लालू यादव और उनके उत्तराधिकारी कुल मिलाकर यादव नेता रह गए हैं. उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और उनके परिवार की कमोबेश यही स्थिति है. मायावती ज्यादा से ज्यादा जाटव समाज की नेता रह पाई हैं. नीतीश कुमार की राजनीतिक कार्यशैली अन्य ओबीसी नेताओं के मुकाबले बेहतर रही है.

इसीलिए वे अपनी छोटी सी कुर्मी बिरादरी के अलावा महादलित और अतिपिछड़ी जातियों के साथ-साथ पसमांदा मुसलमानों में भी अपने लिए हमदर्दी पैदा कर पाते हैं. दिक्कत यह है कि उनकी यह क्षमता भी पंद्रह साल तक सत्तारूढ़ रहने के कारण घटती जा रही है, जबकि सत्ता के उपादानों के जरिये वे चाहते तो अपना जनाधार और विस्तृत कर सकते थे.

क्या यह विडंबना नहीं है कि पासवान के पुत्र चिराग बिहार के चुनाव में एक ऐसी भूमिका निभा रहे हैं जिसकी तुलना महाभारत के पात्र शिखंडी से ही की जा सकती है. भाजपा उनकी आड़ में आज तक के सबसे सफल ओबीसी नेता नीतीश कुमार पर बाण-वर्षा करने में लगी हुई है. आज सबसे बड़े पिछड़े वर्ग के नेता नरेंद्र मोदी बन गए हैं. पूर्वी प्रांतों पर उनका सिक्का जम ही चुका है. जैसे ही दक्षिण में उनका प्रभाव बढ़ा, वे लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए भारत के नेहरू के बाद दूसरे चक्रवर्ती सम्राट बन जाएंगे. तब नब्बे के दशक में उभरे सामाजिक न्याय के तमाम नेता ज्यादा से ज्यादा मोदी के छोटे-मोटे सूबेदारों की हैसियत में ही रह जाएंगे.अगर भाजपा और चिराग की मिली-जुली रणनीति सफल होती है, तो हमें देर-सबेर बिहार की गद्दी पर किसी भाजपाई चेहरे को देखने के लिए तैयार हो जाना चाहिए. वह ऐसा नजारा होगा जिसे सामाजिक न्याय की राजनीति के कफन में अंतिम कील की संज्ञा दी जाएगी.

खास बात यह है कि इस राजनीति के निधन पर कोई आंसू तक नहीं बहाएगा. यह वैसे भी ऊर्जाहीन, कांतिहीन, जर्जर और संभावनाहीन हो चुकी है. इसके बड़े-बड़े नेताओं  पर आय से ज्यादा संपत्ति के मुकदमे चल रहे हैं. इन्होंने अपनी बिरादरियों को सत्ता के फायदे पहुंचाने में इतना पक्षपात किया है कि अन्य पिछड़ी और दलित बिरादरियां नाराज हो कर भाजपा के पाले में चली गई हैं. यह देख कर अफसोस ही हो सकता है कि नीतीश कुमार के लिए गड्ढा उनका सहयोगी दल ही खोद रहा है, और वे उसमें गिरने का जोखिम उठाने के लिए मजबूर हैं.

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