राजेश बादल का ब्लॉग: सामाजिक बिखराव रोकने का कोई टीका नहीं है

By राजेश बादल | Published: May 5, 2020 01:47 PM2020-05-05T13:47:30+5:302020-05-05T13:47:30+5:30

Rajesh Badal's blog: There is no vaccine to stop social disorganization | राजेश बादल का ब्लॉग: सामाजिक बिखराव रोकने का कोई टीका नहीं है

लोकमत फाइल फोटो

Highlights बड़े उद्योगों, कलकारखानों और सार्वजनिक निर्माण कार्यो में एक ग्रामीण की स्थिति कच्चे माल की तरह हो गई.कोरोना कोप ने करोड़ों मजदूरों को विवश कर दिया कि वे अपनी माटी में ही चले जाएं.

कोरोना से पलायन के लिए मजदूरों का खर्च कांग्रेस उठाएगी. पार्टी अध्यक्ष का यह ऐलान निश्चित रूप से राहत भरा है. कांग्रेस की इस पहल के बाद सरकार को सफाई देनी पड़ी कि इन श्रमिकों के रेल किराया का 85 प्रतिशत ¨हस्सा केंद्र सरकार वहन करेगी और शेष 15 प्रतिशत हिस्सा संबंधित राज्य सरकारों का होगा. सब कुछ लुटा के अपने वतन लौट रहे इन मजबूरों की सुध लेने की जिम्मेदारी तो समाज को ही उठानी थी. नैतिक आधार पर सत्ता में अड़तालीस साल सत्ता संभालने वाले एक सदी से भी अधिक पुराने राजनीतिक दल की यह जिम्मेदारी तो बनती ही थी.

लॉकडाउन में सब कुछ खो चुके इन श्रमिकों के पास घर वापसी के वक्त एक निढाल और निराश देह के अलावा बचा ही क्या है? भारत के विभाजन की विभीषिका के बाद हुए पलायन के बाद यह सबसे बड़ा पलायन है. फर्क यह है कि अब मुल्क के अंदर अपने गांव लौटने को उनका पलायन बताया जा रहा है. कोरोना की वजह से उनकी जान तो बच गई, मगर उनके अपने समाज में उनकी जगह भी सलामत बची है अथवा नहीं- यह तो आने वाला दौर ही बताएगा. फिलवक्त तो एक भयावह सामाजिक बिखराव और टूटन के हालात नजर आने लगे हैं. कांग्रेस ही नहीं, समूचे सत्ता पक्ष और प्रतिपक्षी दलों पर इस बिखराव को रोकने का दायित्व है.

हिंदुस्तान के मूल ढांचे में विकास के नाम पर आई तब्दीलियों ने घर बैठकर दो जून की रोटी कमाने का हक भी छीन लिया है. आज भी गांव या कस्बे के अधिकतर नौजवान यही सोचते हैं कि अपने दर पर अगर दस हजार रुपये महीने भी मिल जाएं तो किसी महानगर में हाड़ तोड़ने की मशीन बनकर पंद्रह-बीस हजार रुपए कमाने के लिए जाने की जरूरत क्या है ? हमारी सरकारों ने उसकी यह मूल भावना नहीं समझी. बड़े उद्योगों, कलकारखानों और सार्वजनिक निर्माण कार्यो में एक ग्रामीण की स्थिति कच्चे माल की तरह हो गई. इस दुर्दशा के लिए भी उस मजदूर ने अपने आपको मानसिक रूप से तैयार कर लिया. वह बड़े शहर और महानगरों में जड़ों से कटने की कसक लिए आकर बस गया.

वह जानता था कि गांव के दस हजार रुपए और दिल्ली - मुंबई में मिलने वाले पंद्रह हजार रुपए महीने के बराबर ही हैं पर गांव में तो वह गारंटी भी लेने वाला कोई नहीं था. इस तरह उसने अपने दर्द में भी आनंद का झरना निकाल लिया. उसके बच्चे महानगर के स्कूलों में पढ़ने लगे. घर में टीवी, फ्रिज भी आ गया. परिवार का हर सदस्य एक मजदूर था. कमाई भी तीस-पैंतीस हजार रुपए होने लगी. साल में एक बार या शादी-समारोह में घर जाता था तो घर भर के लिए तोहफे लेकर जाता था.

काल का पहिया घूमा. कोरोना कोप ने करोड़ों मजदूरों को विवश कर दिया कि वे अपनी माटी में ही चले जाएं. आड़े वक्त के लिए बचाकर रखा पैसा कुछ दिन तो पेट भरने के काम आ गया. पर, लंबे समय के लिए महानगर में टिकने का मतलब दर-दर का भिखारी बन कर जीना था. इतनी बचत तो किसी मध्यम वर्ग के परिवार में भी नहीं होती. रोज के पारिश्रिमक पर वालों की तो हालत ही बदतर हो गई.

लिहाजा वे पैदल ही निकल पड़े. जैसे-जैसे यह लाखों परिवार अपने परिवार के बीच पहुंच रहे हैं तो समीकरण उलटते जा रहे हैं. परिवार के जिन लोगों के लिए वे सालाना जलसों में उपहार लेकर पहुंचते थे, उनकी भौंहें तनी हुई हैं. कोरोना - कथा का विस्तार तो छोटे-छोटे आदिवासी टोलों तक हो गया था. इसलिए सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय करके पहुंचे इन परिवारों को गांव के बाहर ही रोक दिया गया. वे अब अपने लोगों के लिए अछूत बन गए थे. कोई खेत में तो कोई पेड़ के नीचे, कोई स्कूल में तो कोई ग्राम पंचायत में ठहराया गया. सगे भाई और उनकी बीवियों की चिंता बढ़ गई है. अब यह परिवार साल दो साल तो दिल्ली-मुंबई जाने की हिम्मत नहीं करेगा. वह अपने हिस्से की जमीन मांगेगा, रहने के लिए घर का बंटवारा करना पड़ेगा. वार्षिक उत्सवों में मिलने की मिठास अब कड़वाहट में बदल चुकी है. घर घर की यही कहानी है. इसे कौन सा डॉक्टर, टीका या कुनैन की गोली ठीक करेगी. किसी सरकार या सियासी पार्टी के पास इस तरह समाज के बिखरने से रोकने का कोई उपाय नहीं है.

अफसोस तो यह है कि हिंदुस्तान के इस आर्थिक-सामाजिक ढांचे को बारीकी से समझने की कोशिश न तो सरकार ने की और न ही प्रतिपक्षी पार्टियों या उनकी राज्य सरकारों ने की. जबरिया अपने गांवों में ठूंस दिए गए इन मजदूरों का महानगर लौटना भी आसान नहीं है. वे तब आएंगे, जब उनकी किसी को जरूरत होगी और महानगरों के प्रवासी कामगारों पर केंद्रित उद्योग भी ठप से ही हैं. उन्हें दोबारा शुरू करने की हिम्मत तो अब उनके मालिकों में भी नहीं रही है. कितने बरस उन्हें सामान्य होने में लगेंगे और वे कब अपने छोटे-छोटे कारोबार फिर जीवित कर पाएंगे - कहना मुश्किल है. दूसरी ओर कोरोना का प्रेत गांवों में जा पहुंचे मजदूरों को कब मुक्त करेगा, यह भी किसी के लिए भी अनुमान लगाना कठिन है. इस विषम परिस्थिति का समाधान सत्ताधारी दल और विपक्षी पार्टियों को ढूंढना पड़ेगा. कोई भी पार्टी भारत जैसे देश में समाज की नब्ज समझे बगैर हुकूमत नहीं कर सकती.

Web Title: Rajesh Badal's blog: There is no vaccine to stop social disorganization

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