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राजेश बादल का ब्लॉग: दिल्ली के मतदाता और राजनीतिक दलों की चुनौतियां

By राजेश बादल | Updated: January 14, 2020 10:25 IST

छह-सात बरस में दिल्ली तीसरी बार चुनाव के द्वार पर  खड़ी है. इस अवधि में तीनों पार्टियों के अपने अपने भरम टूटे हैं. आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में बिना कोई काम किए राष्ट्रीय स्तर पर अपने पंख फैलाने की कोशिश की. पंजाब को छोड़कर बाकी प्रदेशों में वह नाकाम रही.

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मतदाता के ज्ञान चक्षु अगर खुले हों तो राजनेताओं के सामने भी वह दिलचस्प पहेलियां खड़ी कर देता है. फिर उसके सामने सियासी दांवपेंच भी दम तोड़ देते हैं और वह भौंचक करने वाला जनादेश थमा देता है. बार-बार वह साबित करता है कि उसका राजनीतिक विवेक विशिष्ट है और उसे बड़बोले कागजी नेता बरगला नहीं सकते. देश की राजधानी दिल्ली के मतदाता इसी श्रेणी में आते हैं.  भले ही दिल्ली बड़ा राज्य नहीं है, लेकिन यहां के चुनाव में हर बार यहां के वोटर एक सोचा समझा संदेश सियासी पार्टियों को देते हैं.

छह साल पहले के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस के दस बरस से चले आ रहे शासन को उखाड़ फेंका था. पार्टी को दिल्ली की लोकसभा सीटों पर शानदार कामयाबी मिली थी. इसमें कांग्रेस के लिए जितना बड़ा संदेश था, उससे बड़ा भाजपा के लिए था. लेकिन दोनों राष्ट्रीय पार्टियां यह संदेश पढ़ नहीं सकीं और एक नई नवेली आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के वोटर की नब्ज पकड़ ली. लोगों ने इस अनुभवहीन पार्टी को सत्ता की चाबी थमा दी थी. याद करिए कि छह महीने में ही प्रधानमंत्नी का तिलिस्म दरक गया था. जब 2015 में चुनाव हुए तो एक बार फिर दिल्ली के मतदाता ने दोनों शिखर पार्टियों को धता बताते हुए आम आदमी पार्टी की सरकार बनाने पर भरोसा जताया. इसका सीधा अर्थ यह था कि दिल्ली का मतदाता यह जानता था कि उसके लिए केंद्र और राज्य में कौन जरूरी है.

छह-सात बरस में दिल्ली तीसरी बार चुनाव के द्वार पर  खड़ी है. इस अवधि में तीनों पार्टियों के अपने अपने भरम टूटे हैं. आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में बिना कोई काम किए राष्ट्रीय स्तर पर अपने पंख फैलाने की कोशिश की. पंजाब को छोड़कर बाकी प्रदेशों में वह नाकाम रही.

मुख्यमंत्नी केजरीवाल ढाई-तीन साल तक केंद्र से एक नपुंसक संघर्ष छेड़े रहे. इस दरम्यान उनके अनेक करीबी सहयोगी साथ छोड़ गए. वे एक के बाद एक भूलें करते रहे. बड़े दिनों बाद उन्हें भूल का अहसास हुआ. अब साल-डेढ़ साल से देश की राजधानी के मतदाता केजरीवाल का बदला हुआ रूप देख रहे हैं. इस सुधार के बाद भी दिल्ली के मतदाता लोकसभा चुनाव में उनका प्रोबेशन पीरियड बढ़ाने के लिए तैयार नहीं थे. राष्ट्रीय स्तर पर आप की झोली 2019 के लोकसभा चुनाव में भी खाली रही. इतना ही नहीं, वोट प्रतिशत में भी वह गिरकर कांग्रेस से नीचे यानी तीसरे स्थान पर आ गई. संदेश यही था कि अपनी सेहत सुधारे बिना केजरीवाल को राष्ट्रीय दंगल में नहीं उतरना चाहिए. मगर इसमें संदेह नहीं कि दिल्ली के मतदाता प्रादेशिक स्तर पर केजरीवाल में एक सुर से भरोसा दिखा रहे हैं.

इसी आधार पर  राजनीतिक पंडित अपना  विश्लेषण करते हुए ़फिलहाल दिल्ली विधानसभा में आम आदमी पार्टी को एक सुरक्षित भूमिका में देख रहे हैं. जहां तक भारतीय जनता पार्टी का सवाल है, वह दिल्ली के मतदाता का प्रादेशिक मूड भांपने में नाकाम रही है. दिल्ली को उसने एक परीक्षण स्थल बनाकर पिछले दिनों जिस तरह के प्रयोग किए हैं, वे अवाम को रास नहीं आए हैं. दिल्ली का आम आदमी अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में अवरोध पसंद नहीं करता. सड़कों पर जिस तरह ताजे तमाशे हुए हैं, वे किसी ने पसंद नहीं किए.

कम से कम राजधानी के लोग तो पर्दे के पीछे की कहानी समझते हैं. इसका नुकसान भाजपा को भुगतना पड़ सकता है. इसके अलावा दिल्ली में उसके स्थानीय चेहरे भी अपनी साख नहीं बना पाए हैं. सिर्फ प्रधानमंत्नी के चेहरे पर दिल्ली का किला नहीं जीता जा सकता. भाजपा की दिल्ली टकसाल में नए चेहरे नहीं गढ़े गए हैं. उल्टे अरुण जेटली और सुषमा स्वराज जैसे तपे-तपाए नाम इस बरस चुनाव मैदान में नहीं हैं. जाहिर है प्रादेशिक पहचान दिल्ली से बाहर से आयातित नेताओं को नहीं मिल सकती.कांग्रेस के लिए भी कमोबेश यही बात है.

शीला दीक्षित के नहीं होने से भी उसे क्षति उठानी पड़ सकती है. राष्ट्रीय और प्रादेशिक नेतृत्व के बीच इतना अंतर है कि वह उन पर सीमित भरोसा ही कर सकती है. अलबत्ता सुभाष चोपड़ा और अरविंदर सिंह लवली जैसे कुछ क्षत्नप चमत्कार दिखाएं तो अलग बात है. असल में लोकसभा चुनाव में हार के बाद पार्टी के आईसीयू में लंबे समय तक रहने का संगठन को बड़ा नुकसान हुआ है.

राजनीतिक स्वतंत्नता आंदोलन से निकले मौजूदा दल से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह मुल्क की मुख्यधारा से उदासीन हो जाए. हालांकि लोकसभा चुनाव से वह हौसला रख सकती है कि मतदाताओं ने उसे दूसरे स्थान पर पहुंचा दिया है. संकेत यह भी माना जा सकता है कि भाजपा और आप से नाउम्मीद वोटर का एक वर्ग कांग्रेस की ओर लौट रहा है. पर यह तो तय है कि अभी आम आदमी पार्टी के रहते कांग्रेस के लिए दिल्ली दूर है.

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