राजेश बादल का ब्लॉगः पास-पड़ोस के जरिये घेराबंदी का शिकार भारत

By राजेश बादल | Published: November 13, 2018 03:50 PM2018-11-13T15:50:54+5:302018-11-13T15:50:54+5:30

हमारे राजनेताओं और फौज के आला अफसरों ने मीडिया में वाहवाही लूटने का कोई अवसर न छोड़ा। एक संप्रभु देश के रूप में म्यांमार को चीन तथा अन्य शुभचिंतकों का भारी दबाव और विरोध सहना पड़ा।

Rajesh Badal's blog: India hunting for siege by neighborhood | राजेश बादल का ब्लॉगः पास-पड़ोस के जरिये घेराबंदी का शिकार भारत

फाइल फोटो

एक और झटका। पाकिस्तान, नेपाल, मालदीव और श्रीलंका के बाद म्यांमार भी चीन के कजर्-जाल में उलझ गया। गुरुवार को म्यांमार और चीन के बीच बंगाल की खाड़ी में क्यूकफ्यू शहर के किनारे गहरे पानी का बंदरगाह बनाने पर समझौता हुआ। करीब दस बिलियन डॉलर की इस परियोजना का सत्तर फीसदी चीन खर्च करेगा और तीस फीसदी म्यांमार। इससे पहले 2015 में फौजी हुकूमत के दौरान इसी बंदरगाह के लिए हुआ टेंडर चीन ने जीता था।

उसके मुताबिक 85 फीसदी चीन को और 15 फीसदी म्यांमार को खर्च करना था। जब चुनाव में आंग सान सू की जीत कर आईं तो उन्हें इस समझौते में कुछ गड़बड़ी की बू आई। उन्होंने इसकी समीक्षा की और फिर चीन का खर्च 85 से कम करके 70 फीसदी किया तथा कुछ शर्तो में भी संशोधन किया। इस समझौते के अनुसार पहले चरण का काम अब जल्द ही शुरू हो जाएगा। इससे पहले सितंबर में भी चीन ने म्यांमार के साथ इकोनॉमिक कॉरिडोर के लिए करार किया था। म्यांमार से चीन तक तेल गैस पाइप लाइन की परियोजना पर  पहले से ही काम चल रहा है।

हिंदुस्तान से म्यांमार के हमेशा मधुर रिश्ते रहे हैं। तमाम कोशिशों के बाद भी चीन इस दोस्ती में दरार नहीं डाल सका। आज भी म्यांमार के विकास की अनेक योजनाएं भारत की सहायता से संचालित हो रही हैं। म्यांमार के राखाइन प्रांत में भारत भी एक बंदरगाह सितवे का निर्माण कर रहा है। इसके अलावा भारत-म्यांमार -थाईलैंड को सड़क के रास्ते जोड़ने के लिए 1360 किमी के राजमार्ग पर भी भारत की सहायता से काम चल रहा है। आसियान देशों को जोड़ने के लिए भारत के प्रयास जारी हैं। लेकिन हालिया दो घटनाओं ने इस रिश्ते में खटास पैदा कर दी है। जब उग्रवादियों ने जून 2015 में मणिपुर के चंदेल में भारतीय सेना की डोगरा रेजिमेंट के 18 सैनिकों को मारा तो पड़ताल के दौरान इसके तार म्यांमार में चल रहे आतंकवादियों के प्रशिक्षण केंद्रों से जुड़े पाए गए।

इसके बाद म्यांमार की मदद से भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक की और दो शिविरों में एनएससीएन के और केवाईकेएल के 158 उग्रवादियों को मार गिराया। यहां तक तो ठीक था लेकिन इसके बाद यह कार्रवाई म्यांमार की मुसीबत बन गई। हमारे राजनेताओं और फौज के आला अफसरों ने मीडिया में वाहवाही लूटने का कोई अवसर न छोड़ा। एक संप्रभु देश के रूप में म्यांमार को चीन तथा अन्य शुभचिंतकों का भारी दबाव और विरोध सहना पड़ा।

म्यांमार ने इस बारे में चुप्पी साध रखी। हमारे लोग गाल बजाते रहे। युद्ध -कूटनीति के यह खिलाफ था। सर्जिकल स्ट्राइक के प्रचार के बाद अगली कार्रवाइयों के लिए दरवाजे बंद हो जाते हैं। संबंधित देश सहयोग से बचने लगता है। इस तरह गोपनीय अभियान मीडिया में पीठ थपथपाने के लिए नहीं होते। इसे सार्वजनिक करने की परंपरा का खामियाजा तो उठाना ही पड़ेगा। भारत में ही पढ़ी-लिखी आंग सान सू की ने चुनाव जीतने के बाद किनारा कर लिया। उन्होंने विरोध नहीं किया पर खुलकर भारत के साथ भी नहीं आईं।

संबंधों में फासला बढ़ाने वाली दूसरी घटना रोहिंग्या मुसलमानों के निकाले जाने से पैदा हुई। भारत की तुलना में चीन और रूस ने इस मसले पर म्यांमार का खुलकर साथ दिया। संयुक्त राष्ट्र में भी ये देश मजबूती से म्यांमार के साथ खड़े रहे। भारत मध्यस्थता की जिम्मेदारी उठाने की बात करता रहा। गौरतलब है कि भारत में म्यांमार और बांग्लादेश के लिए भारतीय विदेश मंत्नालय की दो विशेष इकाइयां काम कर रही हैं। इसके बावजूद भारत चीन को अपना प्रभाव म्यांमार में बढ़ाने से रोक न सका।

हालांकि स्टेट काउंसलर आंग सान सू की जनवरी में भारत आई थीं। फरवरी में एक शांति समझौता भी हुआ। नौसेना के साथ संयुक्त अभ्यास भी हुआ। लेकिन संबंधों में वो गर्माहट गायब है। म्यांमार और चीन नए बंदरगाह निर्माण की शर्तो पर खामोश हैं। पाकिस्तान में ग्वादर बंदरगाह, श्रीलंका में हंबनटोटा बंदरगाह की शर्तो और मालदीव तथा नेपाल को दिए कर्ज के बारे में भी दुनिया अनजान है। इस बंदरगाह के बाद अगला झटका भारत को बांग्लादेश से मिलने जा रहा है। वहां चीन चिटगांव में एक बंदरगाह निर्माण के लिए धन दे रहा है।

एक समय था, जब भारत की समंदर-सीमाएं काफी हद तक सुरक्षित मानी जाती थीं। लेकिन चीन ने पश्चिम, दक्षिण और पूरब में भारत को घेरने के लिए आक्रामक विदेश नीति का सहारा लिया है। अब भारत किस तरह उसका प्रतिवाद करता है? भारत ने ईरान में चाबहार बंदरगाह के अलावा कोई ऐसा प्रयास नहीं किया है, जिससे चीन उलझन में आए। क्या भारत ने चीन से इन मामलों में कोई बात की है?

अगर की है तो यह देश उस जानकारी को जानने का हक रखता है। चीन से पाक अधिकृत कश्मीर से होकर पाकिस्तान के लिए  बस सेवा का विरोध करने वाला बयान देकर हम पल्ला नहीं झाड़ सकते। अंदरूनी चुनावी राजनीति में उलङो हम लोग पड़ोस में पलने वाली हरकतों के खतरे को सूंघ पा रहे हैं? पहले ही हम अपनी विदेश नीति पर उठते सवाल देख चुके हैं। शिखर सियासत को इसे प्राथमिकता की सूची में रखना ही होगा।

Web Title: Rajesh Badal's blog: India hunting for siege by neighborhood

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