राजेश बादल का ब्लॉग: लोकतंत्र की नींव कमजोर करने वाली साजिश!

By राजेश बादल | Published: December 31, 2019 01:14 PM2019-12-31T13:14:48+5:302019-12-31T13:14:48+5:30

रामबाई ने कहा कि वे पार्टी की विचारधारा के साथ हैं. एक प्रदेश की सर्वोच्च लोकतांत्रिक पंचाट की सदस्या का यह बयान भारतीय गणतंत्न की अनेक कमजोर कड़ियों की ओर इशारा करता है और सभी दलों की अंदरूनी सेहत पर सवाल भी उठाता है.

Rajesh Badal's blog: Conspiracy to undermine the foundations of democracy! | राजेश बादल का ब्लॉग: लोकतंत्र की नींव कमजोर करने वाली साजिश!

राजेश बादल का ब्लॉग: लोकतंत्र की नींव कमजोर करने वाली साजिश!

Highlightsपार्टी का इससे कोई लेना-देना नहीं है. वह जनप्रतिनिधि भी माफी मांग लेता है. इस तरह उस विवाद का तात्कालिक समाधान तो हो जाता है, लेकिन भारतीय राजनीति में स्थायी तौर पर इस समस्या का आकार और विकराल होता रहता है.

मध्य प्रदेश की महिला विधायक रामबाई इन दिनों अपनी बहुजन समाज पार्टी से निलंबित हैं. रामबाई ने नागरिक संशोधन कानून के पक्ष में एक केंद्रीय मंत्नी की मौजूदगी में सार्वजनिक मंच से  बयान दिया था. निलंबन के बाद विधायक ने माफी मांग ली. उन्होंने कहा कि बयान के पीछे उद्देश्य मायावती को दु:ख पहुंचाना नहीं था. वे समझी थीं कि पाकिस्तान से आतंकवादियों को रोकने के लिए यह कानून लागू हुआ है. 

रामबाई ने कहा कि वे पार्टी की विचारधारा के साथ हैं. एक प्रदेश की सर्वोच्च लोकतांत्रिक पंचाट की सदस्या का यह बयान भारतीय गणतंत्न की अनेक कमजोर कड़ियों की ओर इशारा करता है और सभी दलों की अंदरूनी सेहत पर सवाल भी उठाता है.

इधर हाल के वर्षो में राजनेताओं के इस तरह के बयान बढ़े हैं. पार्टी की सोच और राजनीतिक नजरिये से इन नेताओं के कथन मेल नहीं खाते. अधिकतर बचकाने और सियासी अपरिपक्वता दिखाने वाले होते हैं. जिन मतदाताओं का वे प्रतिनिधित्व करते हैं, वे भी अपने नुमाइंदे के ऐसे व्यवहार पर हैरत में पड़ जाते हैं. बाद में राजनीतिक दल उस नेता के बयान से खुद को अलग कर लेता है कि यह उसकी निजी राय हो सकती है. 

पार्टी का इससे कोई लेना-देना नहीं है. वह जनप्रतिनिधि भी माफी मांग लेता है. इस तरह उस विवाद का तात्कालिक समाधान तो हो जाता है, लेकिन भारतीय राजनीति में स्थायी तौर पर इस समस्या का आकार और विकराल होता रहता है. कानूनन किसी अनपढ़ अथवा कम पढ़े-लिखे इंसान को चुनाव लड़ने से नहीं रोका जा सकता, पर जीतने के बाद उसे अपने वैचारिक स्तर पर ले आने का काम किसका है?

सवाल यह है कि हिंदुस्तान के राजनीतिक दल अपने कार्यकर्ताओं की सियासी सोच को परिष्कृत करने या तराशने का काम क्यों नहीं करते? नागरिकता संशोधन कानून बन जाने के बाद देखने में नहीं आया कि किसी पार्टी ने आम कार्यकर्ता को प्रशिक्षित करने के लिए खास तौर पर शिविर लगाए हों. न तो सत्तारूढ़ भाजपा की ओर से, न उसके सहयोगी दलों की तरफ से और न इस कानून के विरोध में सड़कों पर उतरी प्रतिपक्षी पार्टियों ने ऐसी कोई पहल की. 

जब विरोध तेज हुआ तो भाजपा ने उसके मुकाबले में भले ही समर्थन मुहिम चलाई हो पर उसे प्रशिक्षण कार्यक्र म तो यकीनन नहीं कहा जा सकता. हकीकत तो यह है कि औसत कार्यकर्ता तो छोड़िए, 75 फीसदी विधायकों और सांसदों को इस कानून की बारीकियां अभी भी पता नहीं हैं. इस कानून के साइड इफेक्ट्स क्या हो सकते हैं, इसकी जानकारी भी उन्हें नहीं है. देश पर कौन सी आसमानी आफत आ पड़ी थी, जिसके कारण अन्य समस्याओं को ताक पर रखकर केंद्र सरकार को अभी यह कदम उठाना पड़ा, इसका उत्तर भी आम जनप्रतिनिधि को मालूम नहीं है. 

आजादी के सत्तर साल बाद हमने एक ऐसे भारत का निर्माण किया है, जिसके जनप्रतिनिधि अपने विवेक की कुंडलिनी नहीं जगाते. वे केवल शीर्ष नेताओं के जिंदाबाद का नारा लगाने और उनके इशारे पर बिना विचारे पीछे चलने वाली भीड़ की तरह व्यवहार करने का काम करते हैं. यही भीड़ सड़कों पर हिंसा करती है और सोशल मीडिया पर अनाड़ी बंदर की तरह उस्तरा चलाती है. ऐसे में अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि देश के औसत मतदाता के ज्ञान का स्तर क्या होगा.
तो जानते-बूझते हुए अगर मुल्क की सियासी पार्टियां अपने शिखर ज्ञान को नीचे तक नहीं पहुंचा रही हैं- इसके क्या मतलब निकाले जाने चाहिए? एक तो यह कि वे नहीं चाहतीं कि उनके आम कार्यकर्ता बौद्धिक रूप से इतने जागरूक हो जाएं कि एक दिन उनके लिए ही चुनौती बन जाएं. 

दूसरा यह कि उन्हें चुनाव लड़ने और उसके तंत्न प्रबंधन के लिए कार्यकर्ता के रूप में बड़ी तादाद में रॉ मटेरियल की आवश्यकता होती है. पढ़े-लिखे समर्थक उनके इशारे पर अंध-भक्ति नहीं दिखा सकते. इसलिए दशकों से भारत के राजनेता अपने कार्यकर्ता को सड़कछाप ही बने रहने देना चाहते हैं. इस तरह की बौद्धिक धोखाधड़ी या जालसाजी भारत में ही संभव है. तीसरी बात यह है कि इस तरह का वातावरण अपेक्षाकृत अधिक पढ़े-लिखे लोगों को राजनीति में प्रवेश करने से रोकता है. साफ-सुथरी राजनीति के हिमायती बाहुबल और धनबल के आगे बेबस दिखाई देते हैं.

यही कारण है कि जागरूक और शिक्षित बिरादरी अपनी नई पीढ़ी को राजनीति में नहीं जाने देना चाहती और दूसरी ओर बाहुबल व धनबल वाले अपने बच्चों को जानबूझकर चुनावी राजनीति में ले आते हैं.

 यह नई नस्ल अपने पिता के कालेधन का हिसाब रखती है. काम कराने के एवज में मिली घूस का रिकॉर्ड रखती है. चुनाव के दिनों में अपने दोस्तों की मदद से मतदाताओं को डराने, धमकाने, ललचाने और ईवीएम पर नकली वोट डालने के प्रपंच रचती है. यही उसकी पॉलिटिकल ट्रेनिंग है. 

राजनीतिक विचारधाराओं, राष्ट्र की प्राथमिकताओं और अंतर्राष्ट्रीय  मसलों की बारीक समझ मौजूदा तंत्न नहीं देता. जाहिर है कि यह स्थिति भारतीय लोकतंत्न को लाभ पहुंचाने वाली नहीं है. सारे सियासी दल इस मामले में एक ही थैली के चट्टे-बट्टे नजर आते हैं. यक्ष प्रश्न यह है कि मतदाता के खिलाफ यह साजिश क्या तेजी से विश्व शक्ति बनने जा रहे भारत के लोग स्वीकार करेंगे? राजनीति में अच्छे व योग्य लोगों को रोकने का षड्यंत्न कैसे रुकेगा?

Web Title: Rajesh Badal's blog: Conspiracy to undermine the foundations of democracy!

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