राजेश बादल का ब्लॉग: कोरोना संक्रमण के बहाने चुनावी सुधार की शुरुआत

By राजेश बादल | Published: January 11, 2022 08:57 AM2022-01-11T08:57:11+5:302022-01-11T09:00:54+5:30

चुनाव आयोग की ताजा घोषणा से चुनाव तंत्र का सतयुग आ गया है, ऐसा अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए. ये लेकिन एक नई शुरुआत होगी.

Rajesh Badal blog: beginning of electoral reforms on pretext of coronavirus pandemic | राजेश बादल का ब्लॉग: कोरोना संक्रमण के बहाने चुनावी सुधार की शुरुआत

कोरोना संक्रमण के बहाने चुनावी सुधार की शुरुआत

हम सब दुखी थे. पच्चीस-तीस बरस से चुनाव-दर-चुनाव इस दुख का एहसास तीव्र और सघन होता जा रहा था. लोकसभा और विधानसभा के लिए होने वाले प्रत्येक निर्वाचन में बेहिसाब खर्च बढ़ रहा था, रैलियों के शोर से दम घुटने लगा था, नफरतों के जहरीले सियासी तीरों ने दिल का बोझ बढ़ा रखा था, झूठे और फरेबी वादों ने आम आदमी के मन में राजनीति के प्रति अविश्वास भर दिया था, लीडरों की प्रतिष्ठा दांव पर लग गई थी और मतदान के अधिकार का इस्तेमाल हम बड़े अनमने अंदाज में करने लगे थे. 

कोरोना-काल ने अपने विकराल आकार से जितना भी डर पैदा किया हो, लेकिन पांच प्रदेशों में चुनाव आयोग की घोषणा ने हमें कुछ राहत भी पहुंचाई है. पंद्रह जनवरी तक शांति रहेगी और इस देश की मेहनत के करोड़ों रुपए बचेंगे. बशर्ते घर-घर नोट बांटने का कुटेव उम्मीदवार न करें. वैसे तो पंद्रह तारीख के बाद भी चुनाव प्रचार पर बंदिशें जारी रहनी चाहिए, क्योंकि सरकारी स्वास्थ्य एजेंसियां तीसरी लहर के और भयानक होने की बात कह रही हैं.  

नब्बे के दशक से मुल्क में राजनीतिक अस्थिरता का दौर आया. क्षेत्रीय पार्टियां अस्तित्व में आईं और अपने वोट बैंक को बचाए रखने के लिए नाना प्रकार के टोटके शुरू हो गए. नकदी बांटी जाने लगी, बेतहाशा शराब बहने लगी, घर-घर मुफ्त उपहार पहुंचने लगे, धर्मो, संप्रदायों, जातियों और उपजातियों में भारतीय समाज को बांट दिया गया. रैलियों के लिए सरकारी-गैरसरकारी बसों में भीड़ लाई जाने लगी और उन्हें पूड़ी-सब्जी के पैकेटों के संग पांच सौ रुपए का नोट मिलने लगा. जिसे यह मिल रहा था, उसे दुख नहीं था, लेकिन बड़ा वर्ग ऐसा था, जो लोकतंत्र के इस पवित्न अनुष्ठान को लूटतंत्र में बदलते देखकर परेशान हो रहा था. 

समाचार पत्रों के पन्नों पर और बौद्धिक बहसों में पानी की तरह बहते धन पर चिंता जताई जा रही थी. मांग की जाने लगी कि सरकार को निर्वाचन खर्च उठाना चाहिए. जिस तरह चुनाव के दौरान पानी की तरह पैसा बहाया जाता है, उसे रोका जाना चाहिए. प्रचार के ये तरीके बेमानी होते जा रहे हैं. नई पीढ़ी इससे उदासीन हो रही है. राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए कुछ कदम उठाए भी गए, उन पर आधा-अधूरा अमल हुआ, संसद में भी गंभीर चर्चा हुई, लेकिन इन मसलों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया, उल्टे खर्च की सीमा बढ़ाई जाती रही और तय सीमा से कई गुना कालाधन चुनाव जीतने के लिए चोर-जेबों से निकलता रहा. 

धारणा बनती गई कि जो जितना अधिक पैसा खर्च करे, अपराधियों और डाकुओं से गठजोड़ करे और साम-दाम-दंड-भेद से चुनाव में विजय प्राप्त करे, वही सबसे बड़ा नेता है. शिखर नेता तक खुल्लम-खुल्ला कहने लगे कि उनका दल जीतने वाले को ही टिकट देगा और जीतने की चतुरता उन्हें ही हासिल थी जो बाहुबल, धन बल और प्रपंच बल में भारी थे. ऐसे में योग्य, ईमानदार और सरोकारों के लिए समर्पित नेता हाशिए पर चले गए. राजनीति धंधा बन गई. निश्चित है कि लोकतंत्र के इस विकृत रंग-रूप के लिए पूर्वजों ने यह निर्वाचन प्रणाली नहीं बनाई थी.

मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि आयोग की ताजा घोषणा से चुनाव तंत्र का सतयुग आ गया है. निवेदन है कि जो काम तीस साल में देश के पढ़े-लिखे लोग, चिंतक, विचारक और राजनेता नहीं कर सके, वह एक झटके में हो गया. भारत आधुनिक हो रहा था. साक्षरता भी बढ़ रही थी. नौजवान आबादी अच्छी खासी तादाद में हो चुकी थी, मगर रैलियों, सभाओं और चुनावी प्रोपेगंडा में कमी नहीं आई थी. मतदाता प्रगतिशील समाज नहीं रच पा रहा था. 

हकीकत तो यह है कि वास्तव में किसी रैली, सभा, रोड शो और नेताओं के विषाक्त भाषणों से प्रभावित होकर आज का मतदाता अपना वोट नहीं देता. आंशिक तौर पर असर हो सकता है, उसे नकारा नहीं जा सकता. पर यह सच है कि साठ के दशक के प्रचार की शैली अब बेमानी हो चुकी है. उस जमाने में अखबार, टेलीविजन, डिजिटल और सोशल मीडिया के आधुनिकतम अवतार नहीं थे. 

इसलिए सभाओं और रैलियों की जरूरत होती थी. बदलते वक्त के साथ ये सब बासे और अप्रासंगिक होते गए. लेकिन यह बात राजनीतिक पार्टियां आज भी समझने को तैयार नहीं हैं. अब कोरोना के बहाने वह अस्त्र निकल गया है, जिसे चलाना तो सब चाहते थे, लेकिन कोई हिम्मत नहीं कर पा रहा था. इस बार खामोशी से सफलतापूर्वक चुनाव हो गए तो इसकी कामयाबी प्रमाणित हो जाएगी.  

चुनाव आयोग को देखना होगा कि कोरोना की तीसरी लहर में संक्रमण की रफ्तार तेज है. ऐसे में सियासी दलों की राय ही पर्याप्त नहीं होती कि वे चुनाव चाहते हैं या नहीं. आज तो हर पार्टी सत्ता के सपने देखती है. कोई भी दल चुनाव टालने पर क्यों कर सहमत होगा? आयोग को संबंधित राज्यों के स्वास्थ्य विभाग और केंद्र के स्वास्थ्य मंत्रालय की विशेषज्ञ रिपोर्टे भी लेनी चाहिए. फिलहाल जो अधिकृत सूचनाएं आ रही हैं, वे भी सप्ताह भर के अंदर महामारी का संक्रमण विकराल होने की चेतावनी दे रही हैं तो फिर प्रचार पर प्रतिबंध पंद्रह जनवरी के बाद भी बढ़ाना जरूरी है. 

हरिद्वार के कुंभ और बंगाल चुनाव के बाद का हाल सबको पता है. ऐसे में चुनाव प्रचार पर बंदिशें खोलना खतरे से खाली नहीं है. रोक बढ़ाने का सकारात्मक पहलू यह होगा कि आने वाले चुनावों के लिए दमघोंटू प्रचार के बिना यह लोकतांत्रिक अनुष्ठान संपन्न कराने का संदेश मिलेगा. यह हिंदुस्तान की सेहत के लिए आवश्यक भी है.

Web Title: Rajesh Badal blog: beginning of electoral reforms on pretext of coronavirus pandemic

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