कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: हिंदी में कोई दूसरा राहुल सांकृत्यायन नहीं हुआ!

By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: April 9, 2022 03:28 PM2022-04-09T15:28:43+5:302022-04-09T15:28:43+5:30

संस्कृत, पाली, हिंदी, उर्दू, तमिल अंग्रेजी, फ्रांसीसी, जर्मन, तिब्बती, फारसी, अरबी और रूसी समेत तीस से ज्यादा भाषाएं बोल, पढ़ व लिख सकने में समर्थ होने के बावजूद उन्हें अपनी भाषा हिंदी से इतना लगाव था कि उन्होंने अपने सत्तर वर्ष के जीवनकाल में जो एक सौ चालीस पुस्तकें लिखीं।

Rahul Sankrityayan, the traveller who invented Hindi travelogue | कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: हिंदी में कोई दूसरा राहुल सांकृत्यायन नहीं हुआ!

कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: हिंदी में कोई दूसरा राहुल सांकृत्यायन नहीं हुआ!

अठारहवीं शताब्दी में दिल्ली में ख्वाजा मीर दर्द नाम के एक सूफी शायर हुआ करते थे। मीर तकी मीर के समकालीन और ‘सूफियाना शायरी के इमाम’ के तौर पर प्रसिद्ध। उनका कम से कम एक शेर लोगों को आज भी उनकी याद दिलाता रहता है : सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहां, जिंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहां? 

1785 में उनके निधन के कोई 108 साल बाद 1893 में नौ अप्रैल को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के पंदहा गांव में जन्मे महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने तो उनके इस शेर को अपने जीवन में इस तरह उतारा कि जीते जी ही ‘भारत के ह्वेनसांग’ कहे जाने लगे और दुनिया इतिहास, दर्शन, धर्म, अध्यात्म, ज्योतिष, विज्ञान, साहित्य, समाज शास्त्न, राजनीति, भाषा और संस्कृति आदि के क्षेत्र में उनके अप्रतिम सृजनात्मक योगदान को स्वीकारने और उनके ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ की कायल होने लगी।

होती भी क्यों नहीं, ज्ञान व तर्क की अद्भुत शक्ति से संपन्न बहुभाषाविद् तो वे थे ही, जिस पर न ‘घुमक्कड़ी’ की कोई सीमा मानते थे, न ही चिंतन व मनन की। घुमक्कड़ी के सिलसिले में वे जिस भी देश में गए, वहां के लोगों में घुलमिलकर उनकी भाषा व बोलियां सीखीं और उनकी संस्कृति, समाज व साहित्य के गूढ़ अध्ययन और ग्रंथों के प्रणयन व ‘उत्खनन’ में कुछ उठा नहीं रखा। आलोचनाओं के शिकार हुए तो भी अपने व्यक्तित्व व कृतित्व में कोई फांक नहीं आने दी। 

किसी प्रकार की जड़ता, राग-द्वेष या पूर्वाग्रह की भी अपने निकट गुंजाइश नहीं रखी। छुटपन में ही अपना घर-बार त्यागकर चीन, श्रीलंका, जापान, ईरान, तिब्बत और रूस की घुमक्कड़ी में न उन्होंने कहीं अपने विचारों का प्रवाह रोका, न किसी एक ग्रंथ या पंथ पर जबरन अड़े या टिके रहे। 

हां, तिब्बत और चीन गए तो वहां से न सिर्फ विपुल, बहुमूल्य व दुर्लभ ग्रंथ ले आए बल्कि उन्हें लोगों तक पहुंचाने के लिए उनके संपादन व प्रकाशन का रास्ता भी साफ किया। ये दुर्लभ ग्रंथ उन्हें पहाड़ों व नदियों के बीच हजारों मील लंबी कठिन तलाश के बाद हासिल हुए थे, जिन्हें यातायात के दूसरे साधनों के अभाव में खच्चरों पर लादकर वे अपने देश लाए थे।

संस्कृत, पाली, हिंदी, उर्दू, तमिल अंग्रेजी, फ्रांसीसी, जर्मन, तिब्बती, फारसी, अरबी और रूसी समेत तीस से ज्यादा भाषाएं बोल, पढ़ व लिख सकने में समर्थ होने के बावजूद उन्हें अपनी भाषा हिंदी से इतना लगाव था कि उन्होंने अपने सत्तर वर्ष के जीवनकाल में जो एक सौ चालीस पुस्तकें लिखीं और जिनमें से कई आज भी अपने अपने क्षेत्नों में मील का पत्थर मानी जाती हैं, ज्यादातर हिंदी में ही लिखीं।

उन्होंने इतना प्रभूत सृजन तब किया, जब 1963 में 14 अप्रैल को पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में आखिरी सांस लेने से पहले अपने जीवन के आखिरी 18 महीने उन्हें स्मृति और वाणी लोप के भीषण आघात डोलते हुए बिताने पड़े थे। दो खंडों में मध्य एशिया का इतिहास लिखने वाले वे भारत के पहले लेखक हैं, जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला था।

इतने सृजनात्मक योगदान के बावजूद हिंदी जगत अब उन्हें उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर भी अपवादस्वरूप ही याद करता है। उनकी जन्मस्थली और जिले में भी अब घुमक्कड़ लेखक, अनवरत यात्नी, उत्कट स्वतंत्नता संग्राम सेनानी, सामाजिक क्रांति के अग्रदूत, सार्वदेशिक दृष्टि संपन्न और समाजवाद के संघर्ष का अप्रतिम योद्धा वगैरह बताकर उन्हें याद करने की लकीर भर पीटी जाती है।

जो भी हो, राहुल का व्यक्तित्व व कृतित्व कितना अनगढ़ था, आम लोग इसे इस बात से समझ सकते हैं कि उन्होंने महज मिडिल स्कूल तक ही स्कूली शिक्षा पाई थी। क्योंकि शिक्षा और सामाजिक मान्यताओं के प्रति विद्रोही स्वभाव के कारण वे बचपन से ही बार-बार घर से पलायन को मजबूर हुए थे। 

फिर भी वे जब तक सक्रिय रह पाए, रूढ़ सामाजिक धारणाओं पर अपने जीवन और कर्म से कुठाराघात करते तथा जीवन-सापेक्ष बनकर समाज की प्रगतिशील शक्तियों को संगठित कर संघर्ष एवं गतिशीलता की राह दिखाते रहे। आज की तारीख में उनका अभाव हमें इसलिए भी खलना चाहिए कि हमारी हिंदी में आज तक दूसरा राहुल सांकृत्यायन नहीं हुआ।

Web Title: Rahul Sankrityayan, the traveller who invented Hindi travelogue

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे