हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में माधवराव सप्रे होने के मायने, प्रो.संजय द्विवेदी का ब्लॉग

By प्रो. संजय द्विवेदी | Published: June 19, 2021 07:10 PM2021-06-19T19:10:48+5:302021-06-19T19:12:25+5:30

19 जून, 1871 को मध्य प्रदेश के एक जिले दमोह के पथरिया में जन्मे सप्रेजी एक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे. आज के मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र तीन राज्य उनकी पत्रकारीय और साहित्यिक यात्रा के केंद्र रहे.

pt madhavrao sapre history of Hindi journalism 150th birth anniversary Sanjay Dwivedi blog | हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में माधवराव सप्रे होने के मायने, प्रो.संजय द्विवेदी का ब्लॉग

26 वर्षों की उनकी पत्रकारिता और साहित्य सेवा ने मानक रचे. (फाइल फोटो)

Highlightsछत्तीसगढ़ मित्र, हिंदी केसरी के माध्यम से पत्रकारिता में किया गया उनका कार्य अविस्मरणीय है. देशज चेतना, भारत प्रेम, जनता के दर्द  की गहरी समझ उन्हें बड़ा बनाती है. सप्रेजी की बहुमुखी प्रतिभा के बहुत सारे आयाम और भूमिकाएं थीं.

हिंदी नवजागरण के अग्रदूत पं. माधवराव सप्रे को याद करना उस परंपरा को याद करना है, जिसने देश में न सिर्फ भारतीयता की अलख जगाई वरन हिंदी समाज को आंदोलित भी किया.

 

उनके हिस्से इस बात का यश है कि उन्होंने मराठीभाषी होते हुए भी हिंदी की निरंतर सेवा की. अपने लेखन, अनुवाद, संपादन और सामाजिक सक्रियता से समाज का प्रबोधन किया. 19 जून, 1871 को मध्य प्रदेश के एक जिले दमोह के पथरिया में जन्मे सप्रेजी एक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे. आज के मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र तीन राज्य उनकी पत्रकारीय और साहित्यिक यात्रा के केंद्र रहे.

छत्तीसगढ़ मित्र, हिंदी केसरी के माध्यम से पत्रकारिता में किया गया उनका कार्य अविस्मरणीय है. उनकी देशज चेतना, भारत प्रेम, जनता के दर्द  की गहरी समझ उन्हें बड़ा बनाती है. राष्ट्रोत्थान के लिए तिलकजी के द्वारा चलाए जा रहे अभियान का लोकव्यापीकरण करते हुए वे एक ऐसे संचारक रूप में आते हैं, जिसने अपनी जिंदगी राष्ट्र को समर्पित कर दी.

सप्रेजी की बहुमुखी प्रतिभा के बहुत सारे आयाम और भूमिकाएं थीं. वे हर भूमिका में पूर्ण थे. कहीं कोई अधूरापन नहीं, कच्चापन नहीं. सप्रेजी को लंबी आयु नहीं मिली. सिर्फ 54 साल जिए, किंतु जिस तरह उन्होंने अनेक सामाजिक संस्थाओं की स्थापना की, पत्र- पत्रिकाएं संपादित कीं, अनुवाद किया, अनेक नवयुवकों को प्रेरित कर देश के विविध क्षेत्रों में सक्रिय किया वह विलक्षण है.

26 वर्षों की उनकी पत्रकारिता और साहित्य सेवा ने मानक रचे. पंडित रविशंकर शुक्ल, सेठ गोविंददास, गांधीवादी चिंतक सुंदरलाल शर्मा, द्वारिका प्रसाद मिश्र, लक्ष्मीधर वाजपेयी, माखनलाल चतुर्वेदी सहित अनेक हिंदी सेवियों को उन्होंने प्रेरित और प्रोत्साहित किया.

जबलपुर की फिजाओं में आज भी यह बात गूंजती है कि इस शहर को संस्कारधानी बनाने में सप्रेजी ने एक अनुकूल वातावरण बनाया, जिसके चलते जबलपुर साहित्य, पत्रकारिता और संस्कृति का केंद्र बन सका.
हिंदी पत्रकारिता में उनका गौरवपूर्ण स्थान है. सन् 1900 के जनवरी महीने में उन्होंने छत्तीसगढ़ के छोटे से कस्बे पेंड्रा से ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन प्रारंभ किया.

दिसंबर, 1902 तक इसका प्रकाशन मासिक के रूप में होता रहा. इसे प्रारंभ करते हुए उसके पहले अंक में उन्होंने लिखा- ‘संप्रति छत्तीसगढ़ विभाग को छोड़ एक भी प्रांत ऐसा नहीं है, जहां दैनिक, साप्ताहिक, मासिक या त्रैमासिक पत्र प्रकाशित न होता हो. आजकल भाषा में बहुत सा कूड़ा-करकट जमा हो रहा है, वह न होने पावे इसलिए प्रकाशित ग्रंथों पर प्रसिद्ध मार्मिक विद्वानों के द्वारा समालोचना भी करे.’

यह बात बताती है कि भाषा के स्वरूप और विकास को लेकर वे कितने चिंतित थे. साथ ही हिंदी भाषा को वे एक समर्थ भाषा के रूप में विकसित करना चाहते थे, ताकि वह समाज जीवन के सभी अनुशासनों पर सार्थक अभिव्यक्ति करने में सक्षम हो सके. बहुआयामी प्रतिभा के धनी सप्रेजी अप्रतिम लेखक, गद्यकार, अनुवादक और कोशकार के रूप में हिंदी की सेवा करते हैं.

उनमें हिंदी समाज की समस्याओं, उसके उत्थान को लेकर एक ललक दिखती है. वे भाषा को समृद्ध होते देखना चाहते हैं. हिंदी निबंध और कहानी लेखन के क्षेत्र में वे अप्रतिम हैं तो समालोचना के क्षेत्र में भी निष्णात हैं. हिंदी साहित्य में एक साथ कई परंपराओं को विकसित करना चाहते हैं. उसमें आलोचना की परंपरा भी खास है. उनके लिए कोई विषय अछूता नहीं है. वे हिंदी की सामर्थ्य को बढ़ते देखना चाहते हैं.

लोकमान्य तिलक जिन दिनों मांडले जेल में थे, उन्होंने कारावास में रहते हुए ‘गीता रहस्य’ की पांडुलिपि तैयार की. इसका अनुवाद करके सप्रेजी ने हिंदी जगत को एक खास सौगात दी. इसके साथ ही उन्होंने ‘शालोपयोगी भारतवर्ष’ को भी मराठी  से अनूदित किया. सप्रेजी ने 1923-24 में ‘दत्त-भार्गव संवाद’ का अनुवाद किया था जो उनकी मृत्यु के बाद छपा.

उनका एक बहुत बड़ा काम है काशी नागरी प्रचारणी सभा की ‘विज्ञान कोश योजना’ के तहत अर्थशास्त्र की मानक शब्दावली बनाना, जिसके बारे में कहा जाता है कि हिंदी में अर्थशास्त्रीय चिंतन की परंपरा का प्रारंभ सप्रेजी ने ही किया. उनकी 150वीं वर्षगांठ मनाते हुए हमें यह ध्यान रखना है कि सप्रेजी का योगदान लगभग उतने ही महत्व का है, जितना भारतेंदु हरिश्चंद्र या महावीर प्रसाद द्विवेदी का.

लेकिन  सप्रेजी की परिस्थितियां असाधारण हैं. उनके पास काशी जैसा समृद्ध बौद्धिक चेतना संपन्न शहर नहीं है, न ही ‘सरस्वती’ जैसा मंच. सप्रेजी बहुत छोटे स्थान पेंड्रा से ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रारंभ करते हैं और बाद में नागपुर से हिंदी केसरी निकालते हैं. 23 अप्रैल, 1926 में उनका निधन हो जाता है.

बहुत कम सालों की जिंदगी जीकर वे कैसे खुद को सार्थक करते हैं, सब कुछ सामने है. माधवराव सप्रे जैसे महानायक की स्मृतियां आज भी हमारा संबल बन सकती हैं. अपने सुखों का त्यागकर वे पूरी जिंदगी भारत मां और उसके पुत्रों के लिए कई मोर्चों पर जूझते रहे. ऐसे महान भारतपुत्र को शत्-शत् नमन.

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