कश्मीर मामले में मोदी 'देर आए दुरुस्त आए'!

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: June 22, 2018 06:08 AM2018-06-22T06:08:47+5:302018-06-22T06:08:47+5:30

शिवसेना के साथ मोदी संबंध रखने के पक्ष में शुरू से ही नहीं थे। कारण कई थे, जिसमें सबसे प्रमुख यह तथ्य था कि शिवसेना ने प्रधानमंत्री पद के लिए सुषमा स्वराज का नाम प्रस्तावित किया था। लेकिन वे उसके साथ गठबंधन तोड़ना नहीं चाहते थे और उसके वक्तव्यों को अनदेखा कर रहे थे।

prime minister narendra modi took right decision in jammu and kashmir | कश्मीर मामले में मोदी 'देर आए दुरुस्त आए'!

कश्मीर मामले में मोदी 'देर आए दुरुस्त आए'!

हरीश गुप्ता

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आरएसएस नेतृत्व को खुश रखने के लिए हर प्रयास कर रहे हैं। अपने पूर्ववर्ती अटल बिहारी वाजपेयी की तुलना में मोदी ने हमेशा ही अपने अभिभावक संगठन के साथ हार्दिक संबंध बनाए रखा है। लेकिन करते वे वही हैं जो उन्हें सही लगता है और इस प्रक्रिया में संघ प्रमुख मोहन भागवत के सुझावों को भी नजरंदाज कर जाते हैं। हालांकि मोदी ने इसका भी ध्यान रखा है कि संवाद कभी टूटने न पाए। लेकिन चुनावी वर्ष में चीजें अलग हैं और राजनीतिक जरूरतों के अनुसार मोदी अपनी नीतियों में बदलाव करते दिख रहे हैं। 

उन्होंने विगत शुक्रवार को आरएसएस के नेताओं के साथ डिनर बैठक की और उन्हें विस्तृत संगठनात्मक तथा राजनीतिक चर्चा के लिए अगले दिन भी आमंत्रित किया। प्रत्येक राज्य के पुराने मुद्दों को सुलझाने के लिए आरएसएस-भाजपा नेता पूरे देश से तीन दिवसीय विचार-विमर्श के लिए सूरजकुंड में एकत्रित हुए। इस प्रक्रिया में मोदी उन पुराने लोगों से भी मिले, जिन्होंने कभी उनके साथ काम किया था। उन्होंने उनके साथ रात का खाना खाया और अगले दिन मैराथन बैठक की। यह कुछ हद तक असामान्य था, क्योंकि आमतौर पर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ही आरएसएस के नेताओं से मिलते हैं और उनके साथ बातचीत की जानकारी प्रधानमंत्री को देकर दोनों मिलकर उस बाबत निर्णय लेते हैं। 

इस बैठक में मोहन भागवत को छोड़कर आरएसएस के सभी प्रमुख नेता उपस्थित थे, जिसमें 2019 के लोकसभा चुनावों को लेकर महत्वपूर्ण चर्चा की गई। यह निर्णय लिया गया कि संघ का नेतृत्व मोदी सरकार की फिर वापसी के लिए पूरा जोर लगाएगा। बैठक के दौरान ही मोदी जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ ब्रेकअप पर भी राजी हुए। आरएसएस ने पहले ही भाजपा-पीडीपी गठबंधन का जोरदार विरोध किया था, लेकिन मोदी वैश्विक संदेश देने का एक प्रयोग करना चाहते थे। अब संघ खुशी से कह रहा है, ‘देर आए, दुरुस्त आए।’

संबंध सुधार की कोशिश 

शिवसेना के साथ मोदी संबंध रखने के पक्ष में शुरू से ही नहीं थे। कारण कई थे, जिसमें सबसे प्रमुख यह तथ्य था कि शिवसेना ने प्रधानमंत्री पद के लिए सुषमा स्वराज का नाम प्रस्तावित किया था। लेकिन वे उसके साथ गठबंधन तोड़ना नहीं चाहते थे और उसके वक्तव्यों को अनदेखा कर रहे थे। शिवसेना ने जहां सरकार पर हमला किया, वहीं मोदी ने कभी भी प्रतिशोध नहीं लिया और न ही अपने वरिष्ठ सदस्यों को कभी जवाबी हमला करने की इजाजत दी। मोदी इस पक्ष में थे कि शिवसेना को 2019 का लोकसभा चुनाव स्वतंत्र रूप से लड़ने दिया जाए। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नहीं चाहता कि भाजपा अपने उस प्रमुख सहयोगी से नाता तोड़े, जो हिंदुत्व के दर्शन पर चलता हो। संघ ने सुझाव दिया कि अमित शाह शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से मिलें। इसलिए इच्छा नहीं होने के बावजूद मोदी ने शाह को उद्धव ठाकरे से मिलने भेजा। अमित शाह और उद्धव ठाकरे के बीच बैठक में क्या बातचीत हुई, इसे तो सार्वजनिक नहीं किया गया है, लेकिन सूत्रों का कहना है कि शिवसेना की इस शर्त कि लोकसभा चुनाव के साथ ही महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव भी करवाया जाए, ने भाजपा नेतृत्व को रक्षात्मक रवैया अपनाने को मजबूर कर दिया है। जाहिर है कि शिवसेना मुख्यमंत्री का पद चाहती है - या तो रोटेशनल प्रणाली से या किसी और तरीके से। लेकिन भाजपा फिर से शिवसेना की सर्वोच्चता स्वीकार नहीं कर सकती। हालांकि वह महाराष्ट्र में लोकसभा सीटों का नुकसान ङोलने में भी हिचकिचा रही है। पता चला है कि शिवसेना नेतृत्व को आरएसएस एक व्यावहारिक फामरूला अपनाने के लिए कह रहा है। 

अजित डोभाल की खुशी

जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री के रूप में महबूबा मुफ्ती की विदाई से प्रधानमंत्री कार्यालय में अगर सबसे ज्यादा खुश कोई है तो वे हैं राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजित डोभाल। डोभाल को कड़ा रुख अपनाने वाला माना जाता है और वे सरकार बनाने के लिए पीडीपी के साथ गठबंधन करने के पक्ष में नहीं थे। संकटग्रस्त राज्य में वे जासूसों का एक नेटवर्क विकसित करना चाहते थे और पुलिस तथा सुक्षा बलों के बीच पूर्ण सामंजस्य के पक्षधर थे। लेकिन महबूबा सरकार उनके मार्ग में बाधक थी, क्योंकि  हिंसा की अधिकांश घटनाएं पीडीपी के प्रभाव वाले क्षेत्र में ही हुईं। डोभाल सिर्फ एक ही बार महबूबा से मिले थे, जब उन्होंने 8 अगस्त 2016 को अपनी दिल्ली यात्र के दौरान डोभाल को मिलने के लिए बुलाया था। अब डोभाल घाटी में अपने मन मुताबिक काम कर पाने में सक्षम होंगे। पहले से ही उनका दृष्टिकोण रहा है कि तुष्टिकरण की नीति काम नहीं करेगी। प्रधानमंत्री के साथ अपनी बैठकों के दौरान उन्होंने बताया था कि घाटी में नरम रुख अपनाने का कोई कारण नहीं है। यह डोभाल ही थे जो दिनेश्वर शर्मा को वार्ताकार के रूप में लाए थे। डोभाल के ही कहने पर शर्मा को आईबी चीफ बनाया गया था। सूत्रों का यह भी कहना है कि राज्यपाल एन।एन। वोहरा जैसे अनुभवी व्यक्ति को डोभाल बनाए रखना चाहते हैं ताकि सुरक्षा बल बड़े पैमाने पर आक्रामक अभियान शुरू करने के पहले स्थिर हो सकें। घाटी में अब बड़े पैमाने पर सफाई अभियान शुरू किया जाएगा और 11000 पत्थरबाजों के खिलाफ दर्ज मामलों को वापस लेने के मुफ्ती सरकार के फैसले की भी अब समीक्षा की जाएगी। 

बीजद को उपसभापति पद  

भाजपा नेतृत्व ने संकेत दिया है कि वह राज्यसभा के उपसभापति का पद गैरभाजपा दलों के किसी स्वीकार्य नेता को देने का इच्छुक है। प्रधानमंत्री मोदी का मानना है कि राज्यसभा का दिन-प्रतिदिन का कामकाज चलाने में उपसभापति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भाजपा इसके पहले अपनी ही पार्टी के नेता भूपेंद्र यादव को उपसभापति बनाना चाहती थी, लेकिन फिर उसने यह विचार त्याग दिया, क्योंकि इससे टकराव की स्थिति पैदा हो जाती। भाजपा सुनिश्चित नहीं थी कि शिवसेना क्या रुख अपनाएगी। बीजू जनता दल (9), तेलंगाना राष्ट्रीय समिति (6), वायएसआर कांग्रेस (2) और चौटाला की आईएनएलडी(1) की भूमिका के बारे में भी भाजपा को संदेह था।  भाजपा गठबंधन से अलग होने के बाद टीडीपी (6) का रुख भी अनिश्चित है। इसलिए मोदी एक गैरभाजपाई सदस्य चाहते हैं, भले ही वह तृणमूल कांग्रेस से चुना जाए। इस प्रक्रिया में, सुखेंदु शेखर राय के नाम का उल्लेख किया गया। लेकिन ममता बनर्जी इसके पक्ष में नहीं हैं क्योंकि इससे चुनावी वर्ष में गलत संदेश जा सकता है। फलत: भाजपा यह पद बीजद को ऑफर करना चाहती है क्योंकि ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भाजपा और कांग्रेस के साथ समान दूरी बनाकर चल रहे हैं। पी।जे। कुरियन के जाने के साथ, कांग्रेस ने भी अन्य दलों को संकेत दिया है कि वह इस पद के लिए उनको समर्थन देने की इच्छुक है। कांग्रेस और उसके सहयोगी 92 सीटों के साथ पीछे हैं और उनका उम्मीदवार तब तक नहीं जीत सकता जब तक कि गैरराजग और गैरयूपीए दलों के सदस्यों का समर्थन उन्हें न मिल जाए। 

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