ब्लॉग: जनता की सक्रियता से ही साफ-सुथरी होगी राजनीति
By विश्वनाथ सचदेव | Published: November 1, 2023 10:33 AM2023-11-01T10:33:11+5:302023-11-01T10:38:25+5:30
आश्वासन, दावे, वादे आज हमारी राजनीति का एक अविभाज्य हिस्सा बन गए हैं और चुनावी मौसम में तो इन सबकी भरमार हो जाती है।
जब कोई राजनेता कुछ करने का आश्वासन दे तो इसका अर्थ है कि या तो वह आपको मूर्ख समझता है या मूर्ख बना रहा है। रूसी नेता निकिता ख्रुश्चेव ने एक बार कहा था, "सब राजनेता एक से होते हैं, वे वहां भी पुल बनाने का आश्वासन दे सकते हैं, जहां नदी ही न हो।" रूसी नेता ने शायद यह बात अपने देश के संदर्भ में कही हो, पर यह बात हमारे देश पर भी लागू होती है।
आश्वासन, दावे, वादे आज हमारी राजनीति का एक अविभाज्य हिस्सा बन गए हैं और चुनावी मौसम में तो इन सबकी भरमार हो जाती है। न कोई नेता यह बताता है कि उसके पिछले वादों का क्या हुआ और न मतदाता यह पूछने की जरूरत समझता है कि पिछले वादे पूरे क्यों नहीं हुए और उनके वादों-आश्वासनों पर क्यों विश्वास किया जाए। पर शायद राजनेता यह समझने लगे हैं कि मतदाता में उनके प्रति अविश्वास बढ़ता जा रहा है।
जोर से बोलने की इस प्रतिस्पर्धा में कोई नेता पीछे नहीं रहना चाहता। वह यह मानकर चल रहा है कि जैसे पिछले आश्वासनों को आम जनता भूलती रही है, वैसे ही आगे भी भूल जाएगी। पर सवाल आश्वासनों को याद रखने और भूलने का नहीं है, सवाल हमारी समूची राजनीति पर लगातार लग रहे सवालिया निशानों का है। हमारी समूची राजनीति आज कठघरे में है, हमसे जवाब मांग रही है कि हमने उसे यानी राजनीति को नेताओं के भरोसे ही क्यों छोड़ दिया है?
हर पार्टी का हर नेता सिद्धांतों और मूल्यों की दुहाई देता है, अपनी कमीज को दूसरे की कमीज से उजली बताने के दावे करता है। हकीकत यह है कि हमारी आज की राजनीति का सिद्धांतों-मूल्यों से कोई रिश्ता नहीं रह गया, और हकीकत यह भी है की सारी कमीजें मैली हैं। हमारी राजनीति का यह हाल इसलिए हो गया है कि हमने इसे राजनेताओं के भरोसे छोड़ दिया-उन राजनेताओं के जिन्हें इस बात की तनिक भी चिंता नहीं रहती कि कल उन्होंने क्या बोला था, और आज क्या कह रहे हैं! कल जिस बात को गलत ठहरा रहे थे, आज वही बात उन्हें सही लगने लगती है। अब समय आ गया है कि जनता राजनेताओं के हाथों का खिलौना बने रहने से इंकार करे।
जनतंत्र का मतलब पांच साल में एक बार वोट मांगना या वोट देना ही नहीं होता। जनतंत्र एक जीवन-प्रणाली है। राजनीतिक ईमानदारी इस प्रणाली का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होना चाहिए। यह ईमानदारी कहीं खो गई है। नहीं, खोई नहीं है, हम जानबूझकर इस चाबी को कहीं रख कर भूल गए हैं। जनता को यह चाबी अपने हाथ में लेनी ही होगी। हमें अपने नेताओं से पूछना ही होगा कि उनकी कार्य-प्रणाली में ईमानदारी के लिए कोई जगह क्यों नहीं है? सिद्धांतों, मूल्यों और नीतियों के आधार पर राजनीतिक दल क्यों नहीं बनाए और चलाए जा सकते?