भाषा को लेकर राजनीति दुर्भाग्यपूर्ण
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: March 21, 2025 06:45 IST2025-03-21T06:44:59+5:302025-03-21T06:45:36+5:30
जब कुछ दशक पहले राज्यों का पुनर्गठन किया गया था तो लोगों में स्थानीय भाषा को लेकर ही बहस चल रही थी और भाषावार प्रांत रचना की गई थी.

भाषा को लेकर राजनीति दुर्भाग्यपूर्ण
अभिलाष खांडेकर
भाषाएं सभी आयु, संप्रदाय और लिंग के व्यक्तियों को एक अलग पहचान प्रदान करती हैं. किसी भी भाषा में दक्षता हासिल करना एक ऐसी आकांक्षा है जिसे कई लोग शैक्षणिक और व्यक्तिगत विकास की चाह के लिए रखते हैं. यह गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दिनों में संचार कौशल में सुधार के अलावा संज्ञानात्मक क्षमताओं को बढ़ाने में मदद करता है. सत्तर के दशक में मेरे कॉलेज के दिनों में, कोई एक विदेशी भाषा (अंग्रेजी के अलावा) सीखना एक फैशन था.
वे ‘शीत युद्ध’ के दिन थे और विभिन्न भारतीय भाषाओं में रूसी साहित्य अधिकांश पुस्तक दुकानों में सस्ती दरों पर उपलब्ध था क्योंकि कम्युनिस्ट रूस चाहता था कि दुनिया भर में समाजवादी और साम्यवादी प्रभुत्व बढ़े. उस समय रूसी भाषा सिखाने वाली कक्षाएं प्रचुर संख्या में चलती थीं. अब लोग फ्रेंच व चीनी भाषाएं सीख रहे हैं. इसलिए किसी भी समाज में बहुभाषी लोगों को बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था.
पीवी नरसिम्हा राव जैसे राजनेता ऐसे ही एक उदाहरण थे, जो कई भाषाएं जानते थे और अपने साथियों के बीच एक अलग ‘प्रजाति’ के रूप में देखे जाते थे.
दुनिया भर में कितनी भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है. एक से ज्यादा भाषाओं का ज्ञान उस व्यक्ति को बढ़त देता है जिसने भाषायी बहुलता में महारत हासिल कर ली हो.
अपनी मातृभाषा पर गर्व करना किसी भी व्यक्ति के लिए अच्छा होता है. प्राचीन काल से ही भाषाओं ने विविधता प्रदान की है और साहित्य और समाज में सभी प्रकार की एकरसता को तोड़ने में मदद की है. लेकिन राजनेताओं को उन्हें ऐसे शक्तिशाली हथियार के रूप में इस्तेमाल करने में महारत हासिल होती है, जिसे समझना आसान नहीं है.
खैर, भारत में बहुत सी भाषाएं बोली जाती हैं और तमिल बनाम हिंदी की मौजूदा लड़ाई के बावजूद, यह अभी भी एक एकजुट ताकत है. भाषा के मुद्दे पर चेन्नई और नई दिल्ली को आमने-सामने देखने के बजाय नागरिक देश में शिक्षा के स्तर को लेकर दो अलग-अलग राजनीतिक दलों के बीच वास्तविक प्रतिस्पर्धा को देखना पसंद करते.
जैसा कि हम सबको पता है, भारतीय संविधान 22 भाषाओं को मान्यता देता है - बोडो से बंगाली तक; मराठी से मैथिली और संथाली से नेपाली तक, हालांकि हिंदी आधिकारिक भाषा बनी हुई है और इसके साथ ही अंग्रेजी को हिंदी के बराबर दर्जा प्राप्त है, जो भारतीय संघ और संसद की भाषा है.
हमारे पास 1963 का आधिकारिक भाषा अधिनियम भी है जिसे बाद में संशोधित किया गया था. यह कानून शायद इस बहुभाषी और विशाल प्राचीन देश में भाषाओं को लेकर किसी भी तरह के संदेह को दूर करने के लिए लाया गया था. फिर भी, हम ‘राज्यों के संघ’ में राज्य और केंद्र के बीच राजनीतिक खींचतान देख रहे हैं. हालांकि बहुतों ने यह अनुमान नहीं लगाया था कि नई शिक्षा नीति राज्य और शक्तिशाली केंद्र के बीच कटु मतभेदों को जन्म देगी.
तमिलनाडु ने हमेशा से ही अपने राज्य में हिंदी को स्वीकार करने का विरोध किया है. ऐसा तब से है जब साठ के दशक में कांग्रेस राज्य में शासन कर रही थी. आंध्र, कर्नाटक या केरल जैसे कई दक्षिणी राज्यों ने हिंदी के बजाय अपनी भाषा को प्राथमिकता दी थी. यहां तक कि बंगाल, गुजरात या महाराष्ट्र भी अपनी भाषायी स्वतंत्रता की रक्षा करना चाहते हैं. इसमें गलत क्या है? जब कुछ दशक पहले राज्यों का पुनर्गठन किया गया था तो लोगों में स्थानीय भाषा को लेकर ही बहस चल रही थी और भाषावार प्रांत रचना की गई थी.
हालांकि राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) में यह प्रावधान नहीं है कि त्रिभाषा फॉर्मूला के तहत पांचवीं कक्षा तक के छात्रों के लिए हिंदी अनिवार्य होगी. पूरा विवाद इस बात को लेकर है कि शिक्षा नीति की आड़ में दिल्ली द्वारा किसी राज्य पर जबरन हिंदी का इस्तेमाल किया जा रहा है, जो शायद गलत है. यह सिर्फ स्कूली छात्रों को भाषा चुनने का विकल्प देने के बारे में है, जिसमें से दो भाषाएं उनकी मूल या स्थानीय भाषा होनी चाहिए.
लेकिन तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने अपने राज्य पर हिंदी थोपे जाने के डर से राष्ट्रीय शिक्षा नीति को ‘हिंदुत्व नीति’ करार दिया है और राज्य के रुपए के प्रतीक को बदल दिया है, जिसने पहले से भड़की राजनीतिक आग में घी डालने का काम किया है.
पूरे विवाद ने जो राजनीतिक मोड़ ले लिया है, वह वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है. पांचवीं कक्षा तक के छात्र, जिनके बारे में राष्ट्रीय शिक्षा नीति जो कुछ भी कहती है, उन्हें शायद यह पता ही नहीं है कि उनके इर्द-गिर्द क्या गंदी राजनीति चल रही है.
अगर तमिलनाडु ने भारतीय रुपए के प्रतीक को बदलने का दूरगामी असर डालने वाला कदम उठाया है, तो दिल्ली ने भी गलती की है. उसे भी ‘एनईपी’ को लेकर एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए था. आखिरकार शिक्षा को एक संघीय नीति माना जाता है; इसे संघवाद विरोधी नहीं होना चाहिए था.
भाजपा सभी राज्यों को भगवा रंग में रंगने की महत्वाकांक्षी है, विशेष रूप से दिल्ली में आम आदमी पार्टी या महाराष्ट्र में शिवसेना के नेतृत्व वाले गठबंधन की हार के बाद, लेकिन संघवाद और समानता की भावना की रक्षा करना भी ‘बड़े भाई’ भाजपा की जिम्मेदारी है. हर मुद्दे पर राजनीति करना गलत है.