सूचना का अधिकार अधिनियम (आरटीआई) जून 2005 में बना था और उसी साल अक्तूबर से लागू हुआ था. यह कानून मील के पत्थर के समान था, जिसने पहली बार नागरिकों को सरकारी अधिकारियों से महत्वपूर्ण सूचनाएं पाने का अधिकार दिया था. अब कोई भी सरकारी संस्थान ऐसी सूचनाएं देने से इंकार नहीं कर सकता था, जिन्हें सार्वजनिक किया जा सकता हो. इस कानून ने उस अपारदर्शी दीवार को तोड़ा था जो सरकारी कामकाज को घेरे रहती थी और वहां लिए जाने वाले निर्णयों का लोगों को पता नहीं चल पाता था. इस कानून का उद्देश्य पारदर्शिता लाना और प्रत्येक सार्वजनिक प्राधिकरण के काम की जवाबदेही तय करना था. इस नजरिये से यह नागरिकों के पक्ष में एक बहुत महत्वपूर्ण सुधार था.
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस कानून ने सरकार से नागरिकों तक पहुंचने वाले सूचनाओं के प्रवाह के परिदृश्य का कायापलट कर दिया है. सूचना के अधिकार के अंतर्गत प्रतिदिन करीब पांच हजार आवेदन किए जाते हैं और नौकरशाह तथा राजनेता इस तथ्य से वाकिफ होते हैं कि कुछेक अपवादों को छोड़कर अपने विभागों से संबंधित मांगी गई प्रत्येक सूचना उन्हें उपलब्ध करानी ही होगी
यह अधिनियम 2005 से सुचारु रूप से चल रहा है और भ्रष्टाचार को मिटाने तथा प्रशासनिक अक्षमता दूर करने व नागरिकों को उनका हक दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. ऐसे में, सवाल यह पैदा होता है कि वर्तमान सरकार को आरटीआई कानून में संशोधन करने की जरूरत क्यों पड़ गई? आखिरकार, भाजपा इस तथ्य को जानती है कि इसी कानून के बल पर उसने अपनी पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के अनेक कथित भ्रष्टाचारों को उजागर किया था. जाहिर है कि भाजपा की सरकार आने के बाद लोगों ने आरटीआई के माध्यम से उसकी भी कई कमजोरियां उजागर की हैं.
उदाहरण के लिए, आरटीआई के जरिये ही यह जानकारी उजागर हुई थी कि रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने लोन डिफाल्टरों की एक सूची सरकार को सौंपी थी. आरटीआई के अंतर्गत मांगी गई यह जानकारी भी सरकार के लिए शर्मिदगी का कारण बनी थी कि क्या नोटबंदी के निर्णय में रिजर्व बैंक की सहमति थी, और सरकार द्वारा अब तक कितनी मात्र में कालाधन बरामद किया गया है.
आरटीआई अधिनियम 2005 में कहा गया है कि केंद्रीय और राज्य सूचना आयुक्तों का कार्यकाल पांच वर्ष या 65 वर्ष की आयु तक, जो भी पहले हो, रहेगा. इसमें यह भी निर्धारित है कि मुख्य सूचना आयुक्त (सीआईसी) का वेतन मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) के बराबर होगा और सूचना आयुक्तों (आईसी) का चुनाव आयुक्तों (ईसी) के बराबर. अब संशोधित आरटीआई अधिनियम में कहा गया है कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और कार्यसीमा के बारे में फैसला केंद्र सरकार करेगी.
यह सीआईसी और आईसी के कामकाज की स्वतंत्रता व स्वायत्तता पर सीधा प्रभाव डाल सकता है, क्योंकि यह एक स्थापित तथ्य है कि कार्यकाल और वेतन-भत्ताें के बारे में स्थायित्व से महत्वपूर्ण नियामक अधिकारियों के कामकाज की निष्पक्षता सुनिश्चित होती है. इसलिए आरटीआई अधिनियम में संशोधन नागरिकों के अधिकारों के लिए हानिकारक हो सकता है.