पवन के. वर्मा का ब्लॉग: क्या हम चायवाला या चौकीदार बनना चाहेंगे?

By पवन के वर्मा | Published: May 5, 2019 06:04 AM2019-05-05T06:04:53+5:302019-05-05T06:04:53+5:30

सिद्धू की टिप्पणी से दिलचस्प समाजशास्त्रीय सवाल उठते हैं, जो एक समाज के रूप में हमें आईना दिखाते हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि हम पदानुक्रमिक मानसिकता वाले लोग हैं जो सामाजिक व्यवस्था में असमानता को समाज का हिस्सा मानकर चलते हैं.

Pawan k Verma Blog: Would we like to become a chaiwala or Chowkidar? | पवन के. वर्मा का ब्लॉग: क्या हम चायवाला या चौकीदार बनना चाहेंगे?

कांग्रेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू और पीएम नरेंद्र मोदी की फाइल फोटो।

हाल ही में, कांग्रेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू ने एक सार्वजनिक रैली में कहा : ‘एक गलत वोट आपके बच्चों को एक चायवाला, पकौड़ेवाला या चौकीदार बना देगा. इसलिए बाद में पछताने से बेहतर है कि पहले से ही सजग रहें.’ जाहिरा तौर पर यह एक हिकारत भरी और अभिजात्य टिप्पणी थी. कोई भी पेशा, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, उसे सम्मान देने की जरूरत है. आजीविका की एक गरिमा होती है जिसका अपमान नहीं किया जा सकता. ईमानदारी से किए गए हर काम का एक आंतरिक मूल्य होता है और उसे नीचा देखने की कोई जरूरत नहीं है.

लेकिन सिद्धू की टिप्पणी से दिलचस्प समाजशास्त्रीय सवाल उठते हैं, जो एक समाज के रूप में हमें आईना दिखाते हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि हम पदानुक्रमिक मानसिकता वाले लोग हैं जो सामाजिक व्यवस्था में असमानता को समाज का हिस्सा मानकर चलते हैं. हजारों साल से हमारे पास एक असमान जाति व्यवस्था है जिसने सिर्फ जन्मगत कारणों से बड़ी संख्या में लोगों का शोषण किया है. इस प्रणाली के भीतर, कुछ पेशे और व्यवसाय ‘निम्न’ जातियों से जुड़े थे और इसे अपनाने वाले सामाजिक रूप से बहिष्कृत थे.

आज, जाति व्यवस्था से आधिकारिक तौर पर  असहमति प्रकट की जाती है और लोकतांत्रिक सशक्तिकरण ने इसके शिकंजे को ढीला कर दिया है. लेकिन बहुस्तरीय समाज की मानसिकता के साक्ष्य हमें रोजमर्रा की जिंदगी में देखने को मिल जाते हैं. पदानुक्रम की संरचना भले ही बदल गई हो, लेकिन एक भारतीय मन ‘वरिष्ठ’ और ‘कनिष्ठ’ रिश्तों के प्रति सचेत रहता है. यह सत्ता के पदानुक्रम की स्वीकृति ही है, जो लोकतंत्र और समानता जैसी आधुनिक अवधारणाओं को व्यवहार में अलग ही भारतीय रंग दे देती है.

ऐसे समाज का पहला लक्षण अपनी हैसियत के प्रति जुनून का होता है. जब एक व्यक्ति का पूरा मूल्य  पदानुक्रमिक पैमाने के अनुसार तय होता है तो हैसियत पर जोर देना (और दूसरों के द्वारा उसे मान्यता मिलना)  महत्वपूर्ण हो जाता है. अतीत में जाति के अनुसार हैसियत निर्धारित होती थी. यह कठोरता आज ढीली पड़ रही है, लेकिन पदानुक्रम के प्रति आग्रह काफी हद तक बना हुआ है. नई अनिश्चितताओं - और नए अवसरों - ने इस बात को लेकर संवेदनशीलता बढ़ा दी है कि पदानुक्रम में कौन कहां पर है और उसी आधार पर उसकी हैसियत तय की जाती है.

सिद्धू  की टिप्पणी को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए. चायवाला, पकौड़ेवाला या चौकीदार होने में कुछ भी गलत नहीं है. लेकिन हमारे समाज की श्रेणीबद्ध प्रकृति और हैसियत को दिए जाने वाले दज्रे को देखते हुए, कुछ नौकरियों को कमतर माना जाता है जबकि अन्य को श्रेष्ठ या अधिक वांछनीय माना जाता है. इस प्रकार हम उक्त टिप्पणी के लिए सिद्धू की भले ही निंदा करें, इस मामले में तथ्य यह है कि उनके द्वारा उल्लिखित व्यवसायों को विशाल मध्यम वर्ग द्वारा हीन माना जाता है. यहां सवाल यह नहीं है कि पकौड़े या चाय बेचने वाले द्वारा पैसा कमाया जा रहा है या नहीं. इनकी ऐसी दुकानें हो सकती हैं जिन्होंने आला दज्रे की प्रतिष्ठा हासिल की हो, लोकप्रिय हों और जिससे काफी आमदनी होती हो.

निश्चित रूप से ऐसी दुकानें मौजूद हैं जहां साधारण ढाबे वाले भी लाखों रु. कमा रहे हैं. लेकिन पैसा उस हैसियत की अनुपस्थिति की क्षतिपूर्ति नहीं कर सकता है जो परंपरागत रूप से इन व्यवसायों में निहित है. हम एक बेहद महत्वाकांक्षी समाज हैं. अधिकांश मध्यमवर्गीय माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे डॉक्टर और इंजीनियर बनें, कॉर्पोरेट क्षेत्र में जाएं या अभिजात्य सिविल सेवाओं में शामिल हों. सफेदपोश नौकरियां उनकी प्राथमिकता होती हैं और उन नौकरियों से बचने का प्रयास रहता है जिनमें शारीरिक श्रम की जरूरत पड़ती हो. 

हमारा समाज बहुत बड़ी सामाजिक-आर्थिक असमानता के बोझ से दबा हुआ है. इसे देखते हुए, ऐसा नहीं है कि कोई भी आत्मनिर्भर होना या स्वरोजगार करना पसंद नहीं करेगा. कृषि क्षेत्र में लाखों बेरोजगार और अल्प रोजगार वाले लोग हैं और शहरों में भी ऐसी मामूली नौकरियों वाले लोग हैं जो किसी भी माध्यम से आजीविका हासिल करना चाहेंगे. लेकिन ऐसे लोगों की भी पहली पसंद पदानुक्रम में ऊंची हैसियत वाली नौकरी ही होती है.

अगर हम ईमानदार हैं तो हमें सिद्धू के बयान को अधिक सूक्ष्मता से देखना होगा. एक स्तर पर वे निस्संदेह एक संभ्रांतवादी मानसिकता को दर्शाते हैं, जबकि एक अन्य स्तर पर वे सिर्फ एक बेहद आकांक्ष़ी समाज की भावनाओं को व्यक्त कर रहे हैं. मध्यम वर्ग के कई लोग और हमारे बुद्धिजीवी भी, सिद्धू के बयान की निंदा करेंगे, लेकिन जब अपने बच्चों को चायवाला, पकौड़ेवाला या चौकीदार बनाने की बात हो तो कठिनाई में पड़ जाएंगे.

भारत के पास बहुत बड़ा जनसांख्यिकीय लाभांश है, क्योंकि देश की 65 प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या 35 वर्ष से कम आयु की है. शिक्षित बेरोजगारों की पूरी एक फौज है जो प्रतिदिन नौकरी तलाशने की दौड़ में शामिल होती है. रिक्त पदों की तुलना में नौकरी के इच्छुकों की संख्या बहुत अधिक है. इसका एक स्वाभाविक समाधान स्वरोजगार हो सकता है. लेकिन क्या वे स्वेच्छा से चायवाला, पकौड़ेवाला या चौकीदार बनना पसंद करेंगे? यह एक ऐसा सवाल है जिसका ईमानदारी से जवाब दिए जाने की जरूरत है. 

Web Title: Pawan k Verma Blog: Would we like to become a chaiwala or Chowkidar?