पंकज चतुर्वेदी का ब्लॉग: पहाड़ों से छेड़छाड़ करने पर प्रभावित होता है पर्यावरण
By पंकज चतुर्वेदी | Published: December 11, 2020 03:19 PM2020-12-11T15:19:03+5:302020-12-11T15:29:45+5:30
पर्यावरण को लगातार हो रहे नुकसान के संबंध में अभी भी ठोस कदम नहीं उठाए जा सके हैं. सबसे ज्यादा असर अब पहाड़ों और जंगलों पर नजर आने लगा है. रोज ऐसे कई उदाहरण नजर आते हैं.
उत्तर प्रदेश के महोबा जिले के जुझार गांव के लोग अपने तीन सौ हेक्टेयर क्षेत्रफल के पहाड़ को बचाने के लिए एकजुट हैं. पहाड़ से ग्रेनाइट खोदने का ठेका गांववालों के लिए आफत बन गया था.
खनन के निर्धारित मानकों का अनुपालन न करते हुए नियमानुसार दो इंच ब्लास्टिंग के स्थान पर चार और छह इंच का छिद्रण कर विस्फोट कराने शुरू किए गए. इस ब्लास्टिंग से उछलकर गिरने वाले पत्थरों ने ग्रामीणों का जीना हराम कर दिया. लोगों के मकानों के खपरैल टूटने लगे और छतें दरकने लगीं.
पत्थरों के टूटने से उठने वाले धुंध के गुबार से पनपी सिल्कोसिस की बीमारी ने अब तक तीन लोगों की जान ले ली, वहीं दर्जनों ग्रामीणों को अपनी चपेट में ले लिया. गांव के बच्चे अपंगता का शिकार हो रहे हैं.
पहाड़ के साथ खत्म हो रही हरियाली, जल संसाधन
सरकार की निगाह केवल इससे होने वाली आय पर है जबकि समाज बता रहा है कि पहाड़ के साथ ही वहां की हरियाली, जल संसाधन, जीव-जंतु सभी कुछ खत्म हो रहे हैं. वह दिन दूर नहीं जब वहां केवल रेगिस्तान होगा.
प्रकृति में जिस पहाड़ के निर्माण में हजारों-हजार साल लगते हैं, हमारा समाज उसे उन निर्माणों की सामग्री जुटाने के नाम पर तोड़ देता है जो कि बमुश्किल सौ साल चलते हैं. पहाड़ केवल पत्थर के ढेर नहीं होते, वे इलाके के जंगल, जल और वायु की दशा और दिशा तय करने के साध्य होते हैं.
कभी हिमाचल में, कभी कश्मीर में तो कभी महाराष्ट्र या मध्यप्रदेश में अब धीरे-धीरे यह बात सामने आ रही है कि पहाड़ खिसकने के पीछे असल कारण उस बेजान खड़ी संरचना के प्रति लापरवाही ही था. पहाड़ के नाराज होने पर होने वाली त्रसदी का सबसे खौफनाक मंजर उत्तराखंड में केदारनाथ यात्र के मार्ग पर देखा गया था.
खनिज के लिए, सड़क व पुल की जमीन के लिए या फिर निर्माण सामग्री के लिए, बस्ती के लिए, विस्तार के लिए, जब जमीन बची नहीं तो लोगों ने पहाड़ों को सबसे सस्ता, सुलभ व सहज जरिया मान लिया. उस पर किसी की दावेदारी भी नहीं थी.
अरावली पर्वतमाला के इलाके में गहराता जल संकट
अब गुजरात से देश की राजधानी को जोड़ने वाली 692 किलोमीटर लंबी अरावली पर्वतमाला को ही लें, अदालतें बार-बार चेतावनी दे रही हैं कि पहाड़ों से छेड़छाड़ मत करो, लेकिन बिल्डर लॉबी सब पर भारी है. कभी सदानीरा कहलाने वाले इस इलाके में पानी का संकट जानलेवा स्तर पर खड़ा हो गया है.
सतपुड़ा, मेकल, पश्चिमी घाट, हिमालय कोई भी पर्वतमालाएं लें, खनन ने पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है. रेल मार्ग या हाईवे बनाने के लिए पहाड़ों को मनमाने तरीके से बारूद से उड़ाने वाले इंजीनियर इस तथ्य को शातिरता से नजरअंदाज कर देते हैं कि पहाड़ स्थानीय पयार्वास, समाज, अर्थव्यवस्था, आस्था, विश्वास का प्रतीक होते हैं.
पारंपरिक समाज भले ही इतनी तकनीक न जानता हो, लेकिन इंजीनियर तो जानते हैं कि धरती के दो भाग जब एक-दूसरे की तरफ बढ़ते हैं या सिकुड़ते हैं तो उनके बीच का हिस्सा संकुचित हो कर ऊपर की ओर उठ कर पहाड़ की शक्ल लेता है.
जाहिर है कि इस तरह की संरचना से छोड़छाड़ के भूगर्भीय दुष्परिणाम उस इलाके के कई-कई किलोमीटर दूर तक हो सकते हैं.
पहाड़ी क्षेत्रों में खूब बारूदों को उड़ाने का भी नुकसान
पुणे जिले के मालिण गांव से कुछ ही दूरी पर एक बांध है, उसको बनाने में वहां की पहाड़ियों पर खूब बारूद उड़ाया गया था.
मालिण वही गांव है जो कि दो साल पहले बरसात में पहाड़ ढहने के कारण पूरी तरह नष्ट हो गया था. यह जांच का विषय है कि इलाके के पहाड़ों पर हुई तोड़फोड़ का इस भूस्खलन से कहीं कुछ लेना-देना है या नहीं. किसी पहाड़ी की तोड़फोड़ से इलाके के भूजल स्तर पर असर पड़ने, कुछ झीलों का पानी पाताल में चले जाने की घटनाएं तो होती ही रहती हैं.
यदि धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य है तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व बेहद जरूरी है. वृक्ष से पानी, पानी से अन्न तथा अन्न से जीवन मिलता है. ग्लोबल वार्मिग व जलवायु परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी जंगल उजाड़ दिए गए पहाड़ों से ही हुआ है.
आज हिमालय के पर्यावरण, ग्लेशियर्स के गलने आदि पर तो सरकार सक्रिय हो गई है लेकिन देश में हर साल बढ़ते बाढ़ व सुखाड़ के क्षेत्रफल वाले इलाकों में पहाड़ों से छेड़छाड़ पर कहीं गंभीरता नहीं दिखती.