‘एक देश-एक चुनाव’ के साथ ही जरूरी हैं चुनाव सुधार, पंकज चतुर्वेदी का ब्लॉग
By पंकज चतुर्वेदी | Updated: January 7, 2021 13:30 IST2021-01-07T13:29:26+5:302021-01-07T13:30:44+5:30
लोकतंत्र के मूल आधार निर्वाचन की समूची प्रणाली ही वित्त-प्रधान हो गई है और विडंबना है कि सभी राजनीतिक दल चुनाव सुधार के किसी भी कदम से बचते रहे हैं. वास्तव में यह लोकतंत्र के समक्ष नई चुनौतियों की बानगी मात्र था.

कई बार निर्वाचन आयोग असहाय सा दिखा और फिर आयोग ने ही अपने खर्चे इतने ज्यादा बढ़ा लिए हैं. (file photo)
यह विडंबना है कि हमारे देश में लगभग हर साल चुनाव होते रहते हैं, आचार संहिता लागू हो जाती है, राजनेता व जिम्मेदार लोग अपना काम-धंधा छोड़ कर चुनाव प्रचार में लग जाते हैं.
इससे न केवल सरकारी व्यय बढ़ता है, बल्कि प्रशासनिक मशीनरी, राजनीतिक तंत्र भी अपने मूल उद्देश्य से लंबे समय तक विमुख रहता है. लेकिन यदि चुनाव साथ ही करवाने हैं तो अन्य चुनाव सुधार भी साथ ही लागू करना अनिवार्य है. इसमें सबसे प्राथमिक है मतदाता का बेहतर प्रशिक्षण.
हालांकि हमारे देश में कोई चार बार एक साथ चुनाव हुए हैं. लेकिन राज्यों में अलग से चुनाव होने का असल कारण आयाराम-गयाराम की राजनीति रहा. दलबदल विरोधी कानून आज के हालात में अप्रासंगिक है. कोई कभी भी दल बदल कर नए दल से चुनाव लड़ कर तस्वीर बदल देता है.
लोकतंत्र के मूल आधार निर्वाचन की समूची प्रणाली ही वित्त-प्रधान हो गई है और विडंबना है कि सभी राजनीतिक दल चुनाव सुधार के किसी भी कदम से बचते रहे हैं. वास्तव में यह लोकतंत्र के समक्ष नई चुनौतियों की बानगी मात्र था. यह चरम बिंदु है जब चुनाव सुधार की बात आर्थिक -सुधार के बनिस्बत अधिक प्राथमिकता से करना जरूरी है. जमीनी हकीकत यह है कि कोई भी दल ईमानदारी से चुनाव सुधारों की दिशा में काम नहीं करना चाहता है.
लोकतंत्र के लिए जानलेवा वायरस हैं और ये सभी ताकतवर हो कर उभरी हैं
आधी-अधूरी मतदाता सूची, कम मतदान, पढ़े-लिखे मध्य वर्ग की मतदान में कम रुचि, महंगी निर्वाचन प्रक्रिया, बाहुबलियों और धन्नासेठों की पैठ, उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या, जाति-धर्म की सियासत, चुनाव करवाने के बढ़ते खर्च, आचार संहिता की अवहेलना - ये कुछ ऐसी बुराइयां हैं जो स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जानलेवा वायरस हैं और ये सभी ताकतवर हो कर उभरी हैं.
कहीं पर हजारों मतदाताओं के नाम गायब हैं तो नगालैंड में एक राजनेता कैमरे के सामने 11 वोट डाल लेता है. गाजियाबाद में रहने वाले पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त या कर्नाटक निर्वाचन आयोग के ब्रांड एंबेसेडर राहुल द्रविड़ का नाम ही मतदाता सूची में नहीं होता और किसी भी जिम्मेदार पर कड़ी कार्रवाई होती नहीं. कई बार निर्वाचन आयोग असहाय सा दिखा और फिर आयोग ने ही अपने खर्चे इतने ज्यादा बढ़ा लिए हैं कि वह आम आदमी के विकास के लिए जरूरी बजट पर डाका डालता हुआ प्रतीत होता है.
कई राजनीतिक कार्यकर्ता जिंदगीभर मेहनत करते हैं
यह एक विडंबना है कि कई राजनीतिक कार्यकर्ता जिंदगीभर मेहनत करते हैं और चुनाव के समय उनके इलाके में कहीं दूर का उम्मीदवार आ कर चुनाव लड़ जाता है और ग्लैमर या पैसे या फिर जातीय समीकरणों के चलते जीत भी जाता है.
संसद का चुनाव लड़ने के लिए निर्वाचन क्षेत्र में कम से कम पांच साल तक सामाजिक काम करने के प्रमाण प्रस्तुत करना, उस इलाके या राज्य में संगठन में निर्वाचित पदाधिकारी की अनिवार्यता ‘जमीन से जुड़े’ कार्यकताओं को संसद तक पहुंचाने में कारगर कदम हो सकता है. इससे थैलीशाहों और नवसामंतवर्ग की सियासत में बढ़ रही पैठ को कुछ हद तक सीमित किया जा सकता है.
एक बात और हमें पाकिस्तान से सीख लेनी चाहिए कि चुनाव से पहले सरकार भंग हो और किसी वरिष्ठ न्यायाधीश को कार्यवाहक सरकार का जिम्मा दे दिया जाए. इससे चुनाव में सरकारी मशीनरी के इस्तेमाल की कुरीति से बचा जा सकता है. आज प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री सरकारी विमान व सुविधा पर प्रचार करते हैं. कई जगह चुनाव निष्पक्षता से करवाने की ड्यूटी में लगे अफसरों को प्रभावित करने की खबरें भी आती हैं.