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ब्लॉग: अब आंदोलनों से जागतीं राजनीतिक उम्मीदें

By Amitabh Shrivastava | Updated: August 24, 2024 10:28 IST

हर विपक्षी दल मन ही मन सरकार के खिलाफ आंदोलन को अपने पक्ष में मान कर खुश होता रहता है।

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महाराष्ट्र सरकार की ‘लाड़ली बहन योजना’ आरंभ होने के बाद विपक्ष में बेचैनी पैदा होना स्वाभाविक था, लेकिन हर घटना में राजनीति ढूंढ़ने में माहिर होते राजनीतिक दल चुनौतियों के आगे रास्ता खोज ले रहे हैं। पहले सवाल का जवाब दिया जाता था, अब आंदोलन का उत्तर दूसरे आंदोलन से दिया जा रहा है। उसमें थोड़ा आगे बढ़ें तो अनुमान धरना-प्रदर्शन की तीव्रता से उत्पन्न ताकत से लगाया जा रहा है।

बंद हो या प्रदर्शन या फिर तोड़-फोड़ की घटनाएं, यदि उनमें राजनीति का जोड़ लगता है तो समस्याएं अपनी जगह रह जाती हैं और उनकी संवेदनशीलता को एक नया मोड़ मिल जाता है। रही न्याय की बात तो वह जहां की तहां बनी रह जाती है, जिससे आम आदमी का प्रत्यक्ष संबंध है।

राज्य में जब से लाड़ली बहन योजना आरंभ हुई, तब से उसे महिलाओं की हितैषी कम, चुनावी स्वार्थ से जुड़ी योजना बताने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी जा रही है। यहां तक कि अनेक सत्तारुढ़ दल के नेताओं ने भी हल्के अंदाज में उसे चुनाव से जुड़ा बताया है। हालांकि राज्य का नेतृत्व योजना की गंभीरता कम करता नहीं दिखा। यहां तक कि अनेक संशोधन कर महिलाओं की शिकायतों और परेशानियों को दूर किया गया।

 वैसे राज्य विधानसभा के चुनाव समीप आते देख योजना के लाभ-हानि पर विचार किया जाना स्वाभाविक स्थिति थी। इसी बीच, कोलकाता में डॉक्टर के साथ हुए अत्याचार के बाद बदलापुर के स्कूल में हुई घटना ने विपक्ष को नया हथियार हाथ में दे दिया, जिससे सरकार पर ही केवल प्रहार नहीं हुआ, बल्कि सरकारी योजना पर भी सीधा निशाना लगा। एक बड़ी घटना से राज्य की अनेक दब जाने वाली घटनाएं सामने आ गईं। जिन पर न चाहते हुए भी राज्य सरकार को संयम दिखाने पर मजबूर होना पड़ रहा है।

आम तौर पर किसी घटना पर जनआक्रोश गलत नहीं माना जा सकता है, किंतु उसमें राजनीतिक दलों का आग में घी डालना और अपने भविष्य की चिंता को आम आदमी की परेशानियों से हल्का करना उचित नहीं ठहराया जा सकता है। बावजूद इसके चुनावी मौसम में हर दल अपने विरोधी की गलतियों को ढूंढ़ कर आंदोलन करने में जुटे हैं। कभी किसी नेता का बयान तो कभी सरकार या प्रशासन की गलती आंदोलन का बहाना बन जाती है।

आम तौर पर आंदोलनों को विपक्ष की भूमिका का भाग माना जाता है। लेकिन राज्य में सत्ता पक्ष भी विपक्ष की कमजोरियों को ढूंढ़ आंदोलन करने में नहीं हिचकिचा रहा है। बांग्लादेश की घटनाओं के बहाने भगवा दल हिंदू संगठनों को सक्रिय कर रहे हैं, तो विपक्ष हिंडनबर्ग की रिसर्च रिपोर्ट पर सरकार को घेर रहा है। उसके पास वक्फ बोर्ड की संपत्तियों पर केंद्र सरकार के विधेयक से लेकर मुंबई की धारावी बस्ती तक के आक्रामक हथियार हैं। सत्ता पक्ष के पास आंदोलनों के खिलाफ आंदोलन की राह है, जो उसने पिछले दिनों अन्य पिछड़ा वर्ग(ओबीसी) और धनगर समाज के आंदोलन के बहाने दिखाई। इनसे उसे राजनीतिक लाभ तो सीधे तौर पर नहीं मिला, लेकिन समाज के ध्रुवीकरण में आसानी हुई।

सत्ता पक्ष और विपक्ष से परे राज्य में चल रहे मराठा आरक्षण आंदोलन, ओबीसी आंदोलन, किसान आंदोलन अपनी जगह अपनी मांगों को रख रहे हैं। परंतु परोक्ष रूप से सभी आंदोलनों के पीछे राजनीतिक दलों की भूमिका की ओर इशारा किया जा रहा है। हालांकि आंदोलनकारी स्पष्ट रूप से राजनीतिक सहयोग से इंकार ही नहीं करते, बल्कि उनकी आलोचना भी करते हैं। किंतु चुनावों को देख चर्चाओं को हवा मिलती रहती है। हर विपक्षी दल मन ही मन सरकार के खिलाफ आंदोलन को अपने पक्ष में मान कर खुश होता रहता है। यूं देखा जाए तो चुनाव को लेकर बेरोजगारी, महंगाई जैसे मुद्दे आम आदमी से जुड़े हुए हैं, जिन पर उसे राहत की अपेक्षा है। मगर सरकार जन समस्याओं को अपने ढंग से निपटाने का दावा करती है और उसे विपक्ष बार-बार खोखला साबित करता है।

‘लाड़ली बहन’, ‘लाड़ला भाई’ और इसी तरह की किसानों के लिए योजना की राज्य सरकार ने बात की है। जो कुछ हद तक ये बेरोजगारी, महंगाई और किसानों की दिक्कतों को दूर करने में सहायक हो सकती है। मगर इनका प्रभाव कितने दिन रहेगा और इनके क्रियान्वयन के बीच होने वाली अप्रत्याशित घटनाएं सकारात्मक माहौल को कैसे बनाए रख पाएंगी, यह ध्यान देने योग्य होगा। बदलापुर की घटना के बाद लाड़ली बहन की आर्थिक सहायता से  सुरक्षा पर अधिक माहौल तैयार हुआ है, जिसको लेकर सरकार के पास कोई ठोस जवाब नहीं है।

फिलहाल लोकतंत्र में शांतिपूर्ण ढंग से आंदोलन करने का सभी को अधिकार प्राप्त है और वह उस स्थिति में अधिक जायज हो जाता है जब कहीं अन्याय, अत्याचार और असंतोष की स्थिति हो। मगर राजनीतिक लाभ के लिए किए जाने वाले आंदोलनों की ध्वनि और विचार भी स्पष्ट रूप से सामने आ जाते हैं। कुछ माह में राज्य में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, इसलिए राजनीतिक दलों की सक्रियता स्वाभाविक है। किंतु उसमें यदि आम जनता की परेशानियों और जरूरतों के प्रति ईमानदारी बनी रहे तो अधिक बेहतर है।

महाराष्ट्र में सत्ताधारी और विपक्ष दोनों के गठबंधन दलों ने विधानसभा के कार्यकाल में आधा-आधा समय सत्ता भोगी है। इसलिए दोनों के कार्यकाल के अच्छे-बुरे प्रसंग सामने हैं। केवल मत मांगने के लिए एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना और खुद को बेहतर बताना जन समस्याओं का हल नहीं है। वास्तविकता की जमीन पर समस्याएं स्पष्ट रूप से दिखती हैं। सत्ता पाकर उनसे मुंह चुराना कुर्सी बचाने का खेल हो सकता है और सत्ता से दूर जाते ही आंदोलनों से वापसी की कोशिश में जुटना नैतिक नहीं माना जा सकता है।

जिम्मेदारियों के निर्वहन में चूक स्वीकार कर ईमानदारी से सत्ता में वापसी के प्रयास करना जन अपेक्षा पर खरा उतरना माना जा सकता है। शोर-शराबे, नारेबाजी और हुल्लड़बाजी के आंदोलनों से अधिक समय तक राजनीतिक उम्मीद नहीं लगाई जा सकती है। परदे के आगे और परदे के पीछे ‘पब्लिक’ सब जानती है।

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