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एन. के. सिंह का ब्लॉगः कितना असर करेंगी  ये बजटीय रेवड़ियां?

By एनके सिंह | Updated: February 2, 2019 20:19 IST

बजट 2019. आभासित सत्य और भोगे हुए सत्य का भ्रमद्वंद्व. एक ऐसी सरकार का बजट जो दो माह बाद चुनाव में जा रही है. एक ऐसी सरकार का बजट जो बेरोजगारी की ताजा (लेकिन लीक हुई) रिपोर्ट से आहत है.

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विषय वस्तु के हिसाब से आज के इस बजट के तीन भाग हैं. पिछली यूपीए-2 की सरकार के दौरान के आंकड़ों से तुलना जिसमें ज्यादा समय खर्च किया गया. दूसरा यह बताने में कि मोदी जैसा कोई नहीं और केवल मोदी ही देश को नई ऊंचाइयों पर ले जा सकते हैं और तीसरा मध्यम शहरी वर्ग तथा किसानों को खुश करने की कवायद. अंतरिम बजट में बस एक ही नया मानदंड टूटा है. इस बजट में मोदी सरकार ने प्रत्यक्ष कर में भी छेड़छाड़ की जो आज तक नहीं हुआ है.            

बजट 2019. आभासित सत्य और भोगे हुए सत्य का भ्रमद्वंद्व. एक ऐसी सरकार का बजट जो दो माह बाद चुनाव में जा रही है. एक ऐसी सरकार का बजट जो बेरोजगारी की ताजा (लेकिन लीक हुई) रिपोर्ट से आहत है. एनएसएसओ की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 45 साल में पहली बार बेरोजगारी इतनी ज्यादा बढ़ी है. एक ऐसी सरकार का बजट जिसके  ताजा थोक मूल्य सूचकांक के विश्लेषण से पता चलता है कि किसानों को उनकी उपज का तुलनात्मक मूल्य इस साल पिछले 18 वर्षो में सबसे कम मिला है.

जाहिर है लघु व सीमांत किसानों के लिए, जो 86.4 प्रतिशत है, पहली बार प्रति परिवार 6000 रुपए हर साल देने की ‘बजटीय घोषणा’ की गई. लेकिन एक पेंच के साथ. यह रकम तीन किस्तों में मिलेगी और पहली 2000 रुपए की किस्त जाती हुई मोदी सरकार देगी. यानी 12 करोड़ किसान (या लगभग 24 करोड़ लाभ के पात्न मतदाता) को मात्न 2000 रुपए में अपने पाले में करने की कोशिश. ये वे किसान हैं जिन्होंने पिछले कुछ हफ्तों में गेहूं की बुआई के लिए डाई अमोनियम फॉस्फेट की बोरी पिछले साल के मुकाबले 450 रुपए अधिक में खरीदी है. नाराज युवाओं के लिए असंगठित क्षेत्न में कुछ लाभ की घोषणा और शहरी मध्यम वर्ग के लिए आय कर छूट की सीमा पांच लाख करना. 

सन 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण में मोदी सरकार ने देश के 75 प्रतिशत परिवारों को सार्वभौमिक आधारभूत आय की वकालत की थी जिसके तहत हर परिवार को 7620 रुपए प्रतिवर्ष देने की योजना पर अमल करना था. यह रकम देश के हर व्यक्ति को तेंदुलकर गरीबी सीमा रेखा से ऊपर पहुंचा देगी. लेकिन इस बजट में सरकार इससे मुकरते हुए एक नई योजना लाई है. 

लेकिन मोदी सरकार की इस बात के लिए प्रशंसा की जा सकती है कि चुनावी रेवड़ियां बांटते हुए भी इस बात का ध्यान रखा गया है कि वादे वित्तीय घाटे को आसमान पर न पहुंचा दें. लिहाजा किसानों को देने में भी संयम का परिचय दिया गया है और कॉर्पोरेट को कोई प्रत्यक्ष लाभ न दे कर इस बात की कोशिश की गई है कि यह सरकार कॉर्पोरेट घरानों की हिमायती न लगे. अगर चुनाव पूर्व बजट पर जनता विश्वास करती तो 2004 में वाजपेयी सरकार भी न जाती और 2014 में मनमोहन सरकार भी बनी रहती.

लेकिन जब 2008 में मनमोहन सरकार ने किसानों के लिए कर्ज माफी की घोषणा की तो इसी  किसान ने 2009 के आम चुनाव में भरोसा किया. शायद वर्तमान मोदी सरकार इसी बात से प्रभावित हुई है. लेकिन वह यह भूल गई कि वादों पर भरोसा पिछले वादों के मुकम्मल होने की बुनियाद पर बनता है. प्रधानमंत्नी  के वादों और भोगे यथार्थ में अंतर दिखाई देता है जो हाल में तीन राज्यों के चुनाव में भाजपा की हार में सामने आया. बहरहाल किसानों को अब विपक्ष यह बताने जा रहा है कि किसानों की इस योजना में न तो कृषि मजदूर शामिल हैं न ही यह योजना तेलंगाना  के  प्रति हेक्टेयर 20 हजार रु. देने जैसी है. 2000 रु. पाकर यह किसान खुश होगा या दुखी, यह देखना होगा.  

इस परेशानी की झलक सात समुंदर पार इलाज करने गए केंद्रीय वित्त मंत्नी अरुण जेटली के उस वक्तव्य में दिखाई दी जिसमें उन्होंने कहा कि संविधान में ऐसी कोई मुमानियत नहीं है जो किसी सरकार को पूर्ण बजट प्रस्तुत करने से रोके. इस ऐलान का सीधा मतलब था कि बजट लोक लुभावन होगा, वादों का पिटारा खुलेगा. मतदाताओं के लिए आसमान से तारे तोड़ने की मानिंद. शर्त केवल एक - ‘वादे पर भरोसा हो तो हमें जिताओ’.

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