नीतीश का कुशासन BJP को पड़ेगा महंगा!
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: September 2, 2018 08:33 AM2018-09-02T08:33:15+5:302018-09-02T08:33:15+5:30
राजनीति में दो और दो चार नहीं होते - आठ भी हो सकते हैं और शून्य भी। कारण, राजनीति स्थितिसापेक्ष होती है। एक ही फार्मूला हर समय लागू नहीं हो सकता। समाजशास्त्रियों के लिए ही नहीं राजनीति के पंडितों के लिए भी बिहार की जनता की सोच एक पहेली रही है।
(एन के सिंह)
ताजा खबरों के अनुसार लोकसभा चुनाव के लिए बिहार में सीटों के बंटवारे को लेकर सत्ताधारी गठजोड़ जनता दल(यू) और भाजपा में थोड़ी खटास पैदा हो गई है।
मुख्यमंत्नी नीतीश कुमार के लोग मीडिया में यह प्रचारित करा रहे हैं कि समझौते से भाजपा को ही लाभ होगा लिहाजा यह उसकी (भाजपा की) मजबूरी भी है।
राजनीति में दो और दो चार नहीं होते - आठ भी हो सकते हैं और शून्य भी। कारण, राजनीति स्थितिसापेक्ष होती है। एक ही फार्मूला हर समय लागू नहीं हो सकता। समाजशास्त्रियों के लिए ही नहीं राजनीति के पंडितों के लिए भी बिहार की जनता की सोच एक पहेली रही है।
लोग जातिवादी भी हैं, साम्यवादी-समाजवादी भी, गरीब भी हैं लेकिन उग्र प्रतिक्रियावादी भी। नक्सलवाद की जरखेज जमीन भी मिलती है तो खूंखार अपराधी भी रॉबिनहुड इमेज के साथ पांच-पांच लोकसभा चुनाव जीत कर प्रजातंत्न के मंदिर को पवित्न (?) भी करते रहे हैं।
लिहाजा भाजपा का जद(यू) के साथ सत्ता में आना और हाल में लोकसभा के लिए चुनावी तालमेल कर 40 में से 12 या कुछ अधिक (?) सीटें देना और साथ ही राष्ट्रीय जनता दल के नेता बीमार लालू यादव की जेल की सलाखों से फोटो का मीडिया में आना एक गहरे समेकित विश्लेषण का विषय है।
बलात्कार की ताबड़तोड़ घटनाएं, राज्य अभिकरणों की शाश्वत संलिप्तता (एक मंत्नी को इस्तीफा देना पड़ा), शिक्षा और परीक्षा पद्धति का विद्रूप चेहरा और विकास के पैरामीटर्स पर राज्य का लगातार फिसड्डी रहना (ताजा आंकड़े बताते हैं कि राज्य में पैदा होने वाला हर दूसरा बच्चा ठूंठ या बौना अथवा अवरुद्ध है कुपोषण के कारण) ‘सुशासन बाबू’ का 12 साल का राज आज देश में कुशासन का प्रमाण बन गया है।
किसी समाज की सामूहिक चेतना तमाम घटना-समूहों की प्रकृति और उनकी निरंतरता, राज्य अभिकरणों की भूमिका और इन घटनाओं पर राज्य के मुखिया की प्रत्यक्ष वेदना के आधार पर बनती है।
2जी स्पेक्ट्रम में सीधे तौर पर कांग्रेस गुनाहगार कहीं से नहीं थी लेकिन शुरुआती दौर में ही सरकार बचाने के लिए (या डीएमके को खुश रखने के लिए) जब सत्ताधारी यूपीए-2 के अगुवा दल के रूप में यह सबसे बड़ी पार्टी जनाक्रोश के साथ न रहते हुए आरोपियों को बचाने की कोशिश में दिखी तो जनता ने इसे नजरों से उतार दिया।
बिहार में गरीब बालिकाओं से महीनों और शायद वर्षो से चल रहे सामूहिक बलात्कार और वह भी सरकार द्वारा पोषित संस्थाओं के परिसर में। –इस खबर ने बिहार के लोगों की चेतना को झकझोर दिया।
उनके दिलोदिमाग में सरकार के वहशी निकम्मेपन की एक ऐसी तस्वीर बनती गई जो किसी भी राजनीतिक वायदों से, बेमेल गठबंधनों से, धार्मिक प्रतिबद्धता से या ‘सुशासन बाबू’ नाम के धूम्रपटल से खत्म नहीं होगी।
मुख्यमंत्नी नीतीश कुमार ने हफ्तों तक कोई प्रतिक्रि या नहीं दी। इसी बीच पटना में इसी किस्म की एक और घटना मीडिया की कई दिनों तक खुराक रही।
अभी इसकी राख ठंडी भी नहीं हुई थी कि एक-के-बाद-एक सड़क से उतार कर महिलाओं को खेत में ले जाकर बलात्कार, महिलाओं को विवस्त्न कर घुमाने की घटनाएं सामने आने लगीं।
आज इसका ठीकरा केवल नीतीश के सिर पर न फूट कर भाजपा पर भी फूट रहा है। जब लोकसभा चुनाव में भाजपा के नेता किसी जद(यू) के प्रत्याशी के लिए वोट मांगेंगे तो उन्हें बताना होगा कि मुजफ्फरपुर महिला अनाथालय (शेल्टर होम) कांड का कौन जिम्मेदार है और कैसे मुख्यमंत्नी की फोटो इस कांड के मास्टरमाइंड के साथ है।
ताजा खबर है कि राज्य समाज कल्याण मंत्नी ने अपनी विभागीय वेबसाइट पर राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 की ताजा रिपोर्ट जारी करते हुए बिहार में कुपोषण के आंकड़ों पर चिंता व्यक्त की।
दरअसल इस रिपोर्ट के अनुसार बिहार का हर दूसरा बच्चा कुपोषण-जनित अक्षमता जैसे बौना कद, क्षीणकाय या अन्य बीमारियों से ग्रस्त है। जहां छत्तीसगढ़ जैसे अन्य राज्य तेजी से कुपोषण से छुटकारा पा रहे हैं, बिहार की सरकार इस दिशा में कुछ भी सार्थक प्रयास करती नहीं दिख रही है।
परिवार नियोजन में यह राज्य दशकों से पूर्ण रूप से असफल रहा है। मंत्नी ने इस बात की भी तस्दीक की कि कुल 38 में से 23 जिलों में स्थिति और गंभीर है। जाहिर है बिहार में न तो कानून व्यवस्था अच्छी है न ही विकास में अन्य पिछड़े राज्यों की रफ्तार से कोई मुकाबला।
अब जरा निरपेक्ष विश्लेषण करें। क्या आज अगर शासन में नीतीश और लालू की पार्टी रहती तो मजबूत सांगठनिक क्षमता वाली भाजपा विपक्षी दल के रूप में एक अलग तस्वीर नहीं पेश करती, जिस पर जनता का भरोसा होता और सरकार के लिए क्षोभ दूना हो जाता? और ऐसे में क्या भाजपा आने वाले कई वर्षो तक अपना पुख्ता आधार बिहार में नहीं जमा सकती थी जैसा कि असम में हुआ?
दरअसल बिहार में लालू-नीतीश गठबंधन की सरकार में अगर यह सब कुछ हुआ होता तो बैकवर्ड समाज में फूट पड़ती, हिंदू सांप्रदायिकता मजबूत होती और उच्च वर्ग सहित गैर-यादव पिछड़ी जाति का समर्थन हासिल कर भाजपा नीतीश की दबाव की राजनीति (बारगेनिंग) से हमेशा के लिए मुक्ति पा सकती थी।
लेकिन भाजपा नेतृत्व को अपनी पार्टी या गठबंधन की क्षमता पर पूरा विश्वास नहीं था। वह भी तब जब कि लालू -नीतीश गठबंधन के दौर में 2015 के विधानसभा चुनाव में भी इस पार्टी को सबसे ज्यादा 24। 4 प्रतिशत वोट मिले थे जो लालू की पार्टी से डेढ़ गुना ज्यादा थे।
भाजपा-नेतृत्व वाले गठबंधन और लालू-नीतीश के महागठबंधन के बीच फासला मात्न सात प्रतिशत का था जबकि अन्य के खाते में 24। 6 प्रतिशत गए थे। एक ताजा सर्वेक्षण के अनुसार नीतीश कुमार की लोकप्रियता लगातार घटती जा रही है।
आज 2015 के मुकाबले अंतर यह है कि मुजफ्फरपुर बालिका गृह बलात्कार कांड निचले वर्ग की संवेदना झकझोर रहा है जबकि विकास के नाम पर मात्न सरकारी लूट ने मानव विकास सूचकांक के तीनों पैरामीटर्स (शिक्षा, स्वास्थ्य और प्रति-व्यक्ति आय) पर अन्य राज्यों की अपेक्षा यह राज्य नीचे ही गिरता जा रहा है।
भाजपा इस मौके को एक बार फिर खो सकती है मात्न अपने प्रति अविश्वास के कारण। फिर नीतीश लोकसभा की 12 सीटें लड़ने के बाद भी क्या भाजपा के विश्वसनीय सहयोगी रहेंगे? 2020 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए यह प्रश्न बना रहेगा।