New Year 2025: नये साल में प्रखर होंगी लोकतंत्र की किरणें?
By राजेश बादल | Updated: January 1, 2025 05:35 IST2025-01-01T05:35:25+5:302025-01-01T05:35:25+5:30
New Year 2025: हमारी सियासत पर दिखाई दिया और धीरे-धीरे भारतीय उपवन से जम्हूरियत की यह खुशबू कम होती गई.

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New Year 2025: वर्तमान सदी अपनी चौथाई उमर पूरी कर चुकी है. यानी अब यह एक गबरू जवान के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत है. पच्चीस बरस का हो रहा यह शताब्दी नौजवान वास्तव में मानसिक रूप से कितना परिपक्व हुआ है? कह सकता हूं कि उसकी देह या कदकाठी तो मजबूत है लेकिन दिमागी तौर पर यह सदी अभी बालिग नहीं दिखाई देती. मां बनने की क्षमता तो यह शताब्दी रखती है मगर संसार को संस्कारवान बना रही है, इसमें अभी संदेह है. इसका क्या अर्थ लगाया जाए? हजार साल की लंबी गुलामी के बाद हमारे सामने अपना लोकतंत्र तो आ गया लेकिन हमारे भीतर वह संकल्प बोध नहीं था, जो किसी नवोदित आजाद मुल्क के भीतर होना चाहिए था. अंगरेज हमें देश थमाकर चले गए पर हम अपने पर राज करने की मौलिक शैली भूल चुके थे.
सदियों तक परतंत्र रहते हुए भारत अपनी गणतांत्रिक जड़ों से अलग हो चुका था और बिना जड़ों के हम अपनी शासन शैली को जमीन में खोज रहे थे. यह ठीक है कि भारतीय स्वतंत्रता के प्रतीक पुरुषों ने आजाद होने से पहले ही इस कमजोरी को भांप लिया था. इस कारण विश्व का श्रेष्ठ संविधान रचने की कवायद होती रही.
जब संविधान नामक नियामक संस्था हमारे बीच आई तो उन पूर्वजों या प्रतीक पुरुषों ने उसे अपनी गीता मानकर राष्ट्र में संविधान के नये बीजों से लोकतांत्रिक फसल लेने का प्रयास किया. यह प्रयोग कामयाब रहा. शायद इसलिए कि उस संविधान संस्था में हिंदुस्तान के बगीचे में मौजूद सारे फूल अपनी-अपनी सुगंध के साथ उपस्थित थे.
कोई एक फूल अपने आपको राजा फूल नहीं कह सकता था. लेकिन बाद के दिनों में ऐसा लगने लगा कि शायद हमें स्वयं अपनी इस सुगंध से अरुचि हो गई है. उसका असर हमारी सियासत पर दिखाई दिया और धीरे-धीरे भारतीय उपवन से जम्हूरियत की यह खुशबू कम होती गई. पुराना सामंत बोध अपने नए विकृत स्वरूप में चुपचाप दाखिल होता रहा.
जाने-माने संपादक और दार्शनिक चिंतक राजेंद्र माथुर ने पचपन साल पहले इसकी शानदार मीमांसा की थी. मैं यहां उनकी एक लंबी टिप्पणी पेश करना चाहूंगा. राजेंद्र माथुर राम नाम से प्रजातंत्र शीर्षक से 26 जनवरी 1969 को लिखे आलेख में कहते हैं, ‘‘जो हमने देखा है, वही कर रहे हैं. शासक विदेशी थे, इसलिए शासन प्रक्रिया भी हमारे लिए विदेशी हो गई.
अब स्वराज है लेकिन हालत ज्यों की त्यों है. हम इस देश को ऐसे लूट रहे हैं, जैसे यह देश हमारा नहीं, बल्कि और किसी का हो. एक माने में भारत पर आज भी उन्हीं शासकों का राज है. जनता और शासकों के बीच जो संगीतमय जुगलबंदी प्रजातंत्र में चलती है, वह हमारे यहां गायब है. मंत्री बनना या आईएएस परीक्षा में पास होना हमारे यहां इतना महत्वपूर्ण क्यों है?
क्योंकि रेखा के उस पार जो विश्व है, वह अलग है. वह विजेताओं का विश्व है. अंगरेज चले गए, लेकिन रेखा के उस पार उनके साम्राज्य का प्रतिबिंब मौजूद है. जो आदमी नायब तहसीलदार बन जाता है, वह भी रेखा के उस पार चला जाता है और विदेशी लुटेरा बन जाता है. महात्मा गांधी अगर राज्य का महत्व कम करना चाहते थे तो उसके पीछे अनेक प्रबल कारण थे.
बड़ा कारण तो यह था कि हजार बरस से भूखे मरने वाले देश को पहले मौसंबी के रस की जरूरत थी, दाल व फलों की नहीं. गांधी अपने अंतर्मन में जानते होंगे कि भारत के बंदर ने कभी राज्य का उस्तरा पकड़ा ही नहीं है. शनैः शनैः इस देश की शासनेंद्रिय का विकास होगा. सत्ता की सीमा और जनता की महिमा यह देश सीख सके, इसके लिए कुछ वर्षों तक भारत को गांधी जैसे भक्त नेताओं की आवश्यकता थी, जो कुर्सी-मुखी नहीं, जन-मुखी होते. वे जनता को और शासकों को सिखाते कि अपने घर में नियम और संयम से कैसे रहा जाता है.
लेकिन हुआ यह है कि राम नाम से प्रजातंत्र की ओर करंट इतनी तेजी से बढ़ा है कि शॉर्ट सर्किट हो गया है और सारे देश में अंधेरा घुप्प है. यानी 15 अगस्त, 1947 के पहले भी अंधेरा था और अब भी है.’’ वे लिखते हैं, एक हजार साल बाद लुटेरे गए हैं और हमारा घर हमें वापस मिला है. हम, जो प्रेतों की तरह बल्लियों और खपरैलों पर बैठे थे, अब नीचे आ गए हैं.
पर हम भूल गए हैं कि घर में कैसे रहा जाता है. वे कौन से संयम और स्नेह के तंतु हैं, रिश्तों का वह कौन सा ताना-बाना है, जो परिवार को गरिमा और संतोष प्रदान करता है- हमें नहीं मालूम. 55 साल पहले लिखा गया यह आलेख आज भी प्रासंगिक इसलिए है कि आज 77 साल बाद भी हम दुविधा के इसी जाल में उलझे हुए हैं. हमने शासन करने के लिए एक प्रणाली तो बनाई, लेकिन उसको मानने के लिए राष्ट्रीय चरित्र विकसित नहीं किया. आजादी के समय भले ही 18 फीसदी साक्षरता रही हो, पर उस समय के भारत में मानवीय और नैतिक मूल्यों का एक विराट भंडार उपस्थित था.
आज हम 75 प्रतिशत आधुनिकता के साथ उपस्थित हैं लेकिन राष्ट्रबोध नदारद है. यह एक निराशाजनक तस्वीर है. असल में ऐसी स्थिति तब बनती है, जब मुल्क सियासी ढांचे में ढलता तो है, पर उसमें जिम्मेदारी और सरोकारों वाला नेतृत्व नहीं होता. एक ऐसा प्रेरक नेतृत्व, जो हमारे समाज के सामने मुंह बाये खड़ी मुश्किलों को पार करने की हिम्मत और हौसला दे.
यह काम खंड-खंड समाज नहीं करता, बल्कि एकजुट देश ही करता है. याद करिए कि जवाहरलाल नेहरू के जमाने में भारतीय अगुआई भी दो हिस्सों में विभाजित थी. एक तरफ ओजस्वी, आजादी के आंदोलन से निकले तपे तपाए, विराट दृष्टिकोण वाले नेता थे तो दूसरी ओर संकीर्ण, अनुदार, कट्टर और छुटभैये नेताओं का बड़ा झुंड था.
दोनों के बीच कोई मंझली दुनिया नहीं थी इसलिए अब न नेहरू का रूमानी आदर्शवाद है, न मजबूत और स्वस्थ वातावरण है, जो इस विशाल राष्ट्र की पतवार थामने का काम करे. अब केवल आत्मकेंद्रित सामंती और अराजक सोच है.
बकौल साहिर लुधियानवी- आओ! कि आज ग़ौर करें इस सवाल पर, देखे थे हमने जो, वो हसीं ख़्वाब क्या हुए/ दौलत बढ़ी तो मुल्क में इफलास क्यों बढ़ा, खुशहालिए अवाम के असबाब क्या हुए /मजहब का रोग आज भी क्यों ला इलाज है, वह नुस्खा -हाय-नादिरो नायाब क्या हुए.