ब्लॉग: नेताजी सुभाषचंद्र बोस : महानायक भी और मिथक भी !

By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: January 23, 2024 10:06 AM2024-01-23T10:06:37+5:302024-01-23T10:08:14+5:30

1897 में आज ही के दिन कटक में धर्मपरायण माता प्रभावती देवी और वकील पिता जानकीनाथ बोस के पुत्र के रूप में जन्मे सुभाष चंद्र बोस के व्यक्तित्व व कृतित्व में बचपन से ही वीरता व बुद्धिमत्ता का मणिकांचन संयोग था।

Netaji Subhash Chandra Bose A great hero as well as a myth! | ब्लॉग: नेताजी सुभाषचंद्र बोस : महानायक भी और मिथक भी !

नेताजी सुभाषचंद्र बोस

Highlightsदेशवासियों ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस के शौर्य को अप्रतिम मानावे आईसीएस की अप्रेंटिसशिप छोड़कर स्वतंत्रता संघर्ष में कूद पड़ेवे स्वामी विवेकानंद के जीवन व दर्शन से गहराई से प्रभावित थे

लंबे स्वतंत्रता संघर्ष ने हमारे देश को जितने महानायक दिए, देशवासियों ने जिस तरह उनमें नेताजी सुभाषचंद्र बोस के शौर्य को अप्रतिम माना, उसे लेकर नाना प्रकार के मिथ रचे, यहां तक कि 18 अगस्त, 1945 को ताइपे में हुई विमान दुर्घटना में उनके निधन की खबर को सिरे से खारिज कर दिया और लंबे अरसे तक अपनी उम्मीदों में जिंदा रखा, वैसा दूसरे बहुत से नायकों को नसीब नहीं हुआ।

हम जानते हैं कि 1897 में आज ही के दिन कटक में धर्मपरायण माता प्रभावती देवी और वकील पिता जानकीनाथ बोस के पुत्र के रूप में जन्मे सुभाष चंद्र बोस के व्यक्तित्व व कृतित्व में बचपन से ही वीरता व बुद्धिमत्ता का मणिकांचन संयोग था। वे स्वामी विवेकानंद के जीवन व दर्शन से गहराई से प्रभावित थे। 1920 में इंग्लैंड में उन दिनों की सर्वाधिक प्रतिष्ठित आईसीएस परीक्षा में चौथे स्थान पर आकर वे उज्ज्वल भविष्य के सपने संजो ही रहे थे कि गोरे जनरल डायर द्वारा पंजाब के जलियांवाला बाग में शांतिपूर्वक सभा कर रहे देशवासियों पर कराई गई अंधाधुंध पुलिस गोलीबारी ने उनको अंदर तक हिला दिया।

फिर तो अत्याचारी गोरी सत्ता के प्रति बदले की आग उनके हृदय में ऐसी भड़क उठी कि वे आईसीएस की अप्रेंटिसशिप छोड़कर देश वापस लौट आए और स्वतंत्रता संघर्ष में कूद पड़े। देशबंधु चितरंजनदास को उन्होंने अपना राजनीति गुरु माना और सालों-साल कांग्रेस की गतिविधियों का हिस्सा रहे। आगे चलकर अंग्रेजों को सशस्त्र संघर्ष में पटखनी देकर बलपूर्वक देश से बाहर करने का सपना देखते हुए नेताजी ने कांग्रेस छोड़ दी, फॉरवर्ड ब्लाॉक बनाया और देशवासियों को नया नारा दिया-‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’।

गोरी सत्ता द्वारा दिए गए देश निर्वासन जैसे क्रूर दंड को तो वे पहले ही बेकार कर चुके थे, 1941 में भूमिगत होकर अफगानिस्तान के रास्ते जर्मनी जा पहुंचे और ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त’ की रणनीति के तहत भारत की स्वाधीनता के लिए ब्रिटिश साम्राज्य के जर्मनी व जापान जैसे शत्रु देश का सहयोग सुनिश्चित करने में लग गए। इसी क्रम में सिंगापुर पहुंचकर उन्होंने रासबिहारी बोस से भेंट की और 21 अक्तूबर, 1943 को आजाद हिंद सेना व सरकार गठित करके अपना सशस्त्र अभियान आरंभ किया। उन्हें विश्वास था कि वे जल्दी ही अंग्रेजों को हराकर भारत को मुक्त करा लेंगे। देश-विदेश में भारी सहयोग व समर्थन के बीच अंडमान निकोबार को मुक्त कराते हुए 18 मार्च, 1944 को वे भारतभूमि तक पहुंच गए थे, लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। विश्वयुद्ध में उनके सहयोगी देशों की हार के साथ ही बाजी पलट गई और उनका मिशन अधूरा रह गया. लेकिन यह अधूरापन उनके अभियान की महत्ता को कम नहीं करता।

Web Title: Netaji Subhash Chandra Bose A great hero as well as a myth!

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