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राजेश बादल का ब्लॉग: अब तो दोस्त ही बन गए भारत के लिए सिरदर्द!

By राजेश बादल | Updated: November 20, 2019 18:46 IST

बीते अनेक दिनों से नेपाल में भारत विरोधी आंदोलन तेज हो गए हैं. विडंबना है कि इन प्रदर्शनों में कम्युनिस्ट पार्टी के साथ साथ नेपाली कांग्रेस भी शामिल है. कालापानी इलाके में 1962 के चीन-भारत युद्ध के बाद से ही भारतीय सेना तैनात है.

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ठळक मुद्देपास पड़ोस से आ रही ताजा खबरें भारत के लिए बहुत शुभ संकेत नहीं नेपाल के पीएम हिंदुस्तान से एक-एक इंच जमीन मुक्त कर देने की मांग कर रहे हैं श्रीलंका में गोटबाया राजपक्षे की जीत भी भारत के लिए बहुत शुभ संकेत नहीं

दशकों से हमारे उपकारों के बोझ तले दबे मुल्क अब भारतीय लोकतांत्रिक छत्र के तले सांस लेने को तैयार नहीं हैं.क्या आपको याद आता है कि हमारे सबसे प्रिय रोटी-बेटी जैसे संबंधों का लंबा इतिहास रखने वाले नेपाल ने कभी इतनी तल्खी दिखाई हो. उनके प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा औली हिंदुस्तान से एक-एक इंच जमीन मुक्त कर देने की मांग कर रहे हैं.

पास पड़ोस से आ रही ताजा खबरें भारत के लिए बहुत शुभ संकेत नहीं दे रही हैं. लग रहा है जैसे उन्होंने लंबे समय से म्यान में बंद तलवारें तान दी हैं. हम अपने विराट आकार और आदि -लोकतंत्न की कितनी ही दुहाई पेश करें, सच्चाई तो यही है कि दशकों से हमारे उपकारों के बोझ तले दबे मुल्क अब भारतीय लोकतांत्रिक छत्न के तले सांस लेने को तैयार नहीं हैं. शायद वे अपने को बहुत सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे हैं. 

इसलिए वे एकदलीय और अधिनायकवादी राजमार्ग पर चल पड़े चीन के पीछे अनुयायी की भूमिका निभाते नजर आते हैं. भारत की विदेश नीति में उन्हें भला नहीं दिखाई देता. इसलिए वे इस उपमहाद्वीप के लिए चेतावनी भरा संदेश दे रहे हैं. भारत को इन संदेशों का संकेत समझना बेहद जरूरी है.

क्या आपको याद आता है कि हमारे सबसे प्रिय रोटी-बेटी जैसे संबंधों का लंबा इतिहास रखने वाले नेपाल ने कभी इतनी तल्खी दिखाई हो. उनके प्रधानमंत्नी के.पी. शर्मा औली हिंदुस्तान से एक-एक इंच जमीन मुक्त कर देने की मांग कर रहे हैं. यह मांग वे नेपाल, चीन के तिब्बत और भारत के संधि स्थल पर बसे कालापानी में भारतीय सैनिकों की मौजूदगी के संदर्भ में कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि नेपाल की जमीन से विदेशी सैनिकों को वापस जाना चाहिए. यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम अपनी जमीन की रक्षा करें. हमें किसी और की जमीन नहीं चाहिए तो हमारे पड़ोसी भी नेपाल की जमीन से सैनिकों को वापस बुलाएं. नेपाली प्रधानमंत्नी के सुर आक्रामक हैं. वे अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि कुछ लोग मांग कर रहे हैं कि भारत ने हाल ही में जो नया नक्शा जारी किया है, उस नक्शे को सही किया जाए. 

यह तो हम अभी कर सकते हैं. मामला जमीन वापस लेने का है. हमारी सरकार जमीन वापस लेगी. मानचित्न तो प्रेस में प्रिंट हो जाएगा, लेकिन मामला मानचित्न का है ही नहीं. नेपाल अपनी जमीन वापस लेने में सक्षम है.

दरअसल कालापानी की स्थिति कुछ-कुछ डोकलाम जैसी है. जब डोकलाम में चीन की दाल उस तरह से नहीं गली, जैसी कि वह चाहता था तो उसने नेपाल में एक जन आंदोलन को परदे के पीछे से हवा दी है. चीनी राष्ट्रपति अक्तूबर में भारत से सीधे नेपाल गए थे और वहां से तिब्बत के संदर्भ में अत्यंत आक्रामक बयान दिया था कि चीन अपनी जमीन के एक इंच पर भी किसी को अधिकार नहीं करने देगा और हड्डी-पसली तोड़ देगा. अब यही भाषा नेपाली प्रधानमंत्नी बोल रहे हैं. 

बीते अनेक दिनों से नेपाल में भारत विरोधी आंदोलन तेज हो गए हैं. विडंबना है कि इन प्रदर्शनों में कम्युनिस्ट पार्टी के साथ साथ नेपाली कांग्रेस भी शामिल है. कालापानी इलाके में 1962 के चीन-भारत युद्ध के बाद से ही भारतीय सेना तैनात है. जम्मू कश्मीर और लद्दाख के विभाजन के बाद हिंदुस्तान का नया नक्शा जारी किया गया है. इसमें कालापानी को भी भारत का हिस्सा बताया गया है. कालापानी उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में करीब पैंतीस किलोमीटर की पट्टी है. काली नदी यहीं से निकलती है. नेपाल का दावा है कि यह उसका इलाका है. 

इसका आधार वह 1961 में कराई गई अपनी जनगणना को बताता है. नेपाल कहता है कि उस समय भारत ने कोई ऐतराज नहीं दर्ज कराया था. इसलिए अब भारत वह पट्टी खाली करे. भारत और नेपाल के रिश्ते अतीत में कितने ही मधुर रहे हों लेकिन हकीकत तो यही है कि बीते पांच साल में नेपाल भारत से छिटका है और चीन के करीब गया है. चार बरस पहले की आर्थिक नाकाबंदी की कड़वाहट अभी तक नेपाल भूल नहीं सका है.

दूसरी घटना श्रीलंका में राष्ट्रपति चुनाव में गोटबाया राजपक्षे की जीत है. पूर्व राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे के भाई गोटबाया लिट्टे के खिलाफलड़ाई के दिनों में फौजी अफसर थे और चुन-चुन कर तमिल समर्थकों का सफाया किया था. इसी कारण उन्हें तमिलों के वोट कम मिले. इस बार के प्रचार में राजपक्षे ने सिंहल राष्ट्रवाद के मुद्दे पर पूरे देश से अच्छे वोट हासिल किए हैं. 

उनके विरोधी सजित प्रेमदासा को सिर्फ उत्तर और पूर्वी भाग से अधिक मत मिले हैं. सिंहलियों के वोट से उन्हें जीत हासिल हुई है. लेकिन चिंता की बात यह नहीं है कि गोटबाया तमिलों के विरोधी हैं और भारत के साथ संबंध सुधारने की दिशा में कभी उत्साहित नहीं दिखाई दिए हैं. यह अलग बात है कि उनकी पढ़ाई-लिखाई चेन्नई में हुई है. भारत के लिए परेशान करने वाली बात यह है कि दोनों भाई चीन की गोद में बैठे हुए हैं. पाकिस्तान पहले ही चीनी संरक्षण में पल रहा है. 

मालदीव में भी वह खामोश नहीं है. यक्ष प्रश्न है कि अपनी कूटनीति और विदेश नीति के लिए अनेक बार झंडे गाड़ चुके भारत के जानकार अफसर और राजनेता हिंदुस्तान के वैदेशिक हितों का पूर्वानुमान क्यों नहीं लगाते? यह भी एक कोण है कि पिछले दिनों हिंदुस्तान की अंदरूनी चुनौतियों ने यहां की सियासत को इतना उलझा रखा है कि पड़ोसियों और दोस्तों के बारे में अधिक सोचने की गुंजाइश ही नहीं है. यदि यह सत्य है तो फिर हमें आने वाले बरसों में गंभीर परिणाम भुगतने को तैयार रहना चाहिए. 

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