गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: संस्कृत की समकालीन प्रासंगिकता को समझने की जरूरत
By गिरीश्वर मिश्र | Updated: August 19, 2024 05:31 IST2024-08-19T05:31:26+5:302024-08-19T05:31:26+5:30
ज्ञान की साधना को जीवन के क्लेशों से छुटकारा दिलाने के उपाय के रूप में स्थापित करते हुए पुरुषार्थों से मनुष्य जीवन को समग्रता में जीने का प्रावधान किया गया है. इसीलिए ज्ञान को पवित्र माना गया है, न कि दूसरों पर नियंत्रण का जरिया.

(प्रतीकात्मक तस्वीर)
ज्ञान की भारतीय परंपरा के स्रोत के रूप में संस्कृत भाषा और साहित्य प्रेरणा और गौरव का विषय है. ज्ञान की साधना को जीवन के क्लेशों से छुटकारा दिलाने के उपाय के रूप में स्थापित करते हुए पुरुषार्थों से मनुष्य जीवन को समग्रता में जीने का प्रावधान किया गया है. इसीलिए ज्ञान को पवित्र माना गया है, न कि दूसरों पर नियंत्रण का जरिया.
संस्कृत विद्या के विस्तृत प्रांगण में सृष्टि और मनुष्य जीवन से जुड़े सभी पक्षों को शामिल किया गया है. वेद, वेदांग, उपनिषद, स्मृतियों, पुराणों, महाकाव्यों ही नहीं गणित, ज्योतिष, व्याकरण, योग, आयुर्वेद, वृक्षायुर्वेद, धातु विज्ञान तथा नाना विद्याओं जैसे व्यावहारिक विषयों का विकास विपरीत परिस्थितियों में भी होता रहा. इस ज्ञान-कोष को आक्रांताओं के विद्वेष का सामना करना पड़ा और नालंदा जैसे विश्वविख्यात ज्ञान केंद्र को नष्ट कर दिया गया.
वाचिक पद्धति के अध्ययन-अध्यापन से बहुत कुछ बच गया और वह अगली पीढ़ी तक पहुंचता रहा. भारतीय ज्ञान परंपरा के बौद्धिक परिवेश में प्रवेश करने पर ज्ञान के प्रति निश्छल उत्सुकता और अदम्य साहस के प्रमाण पग-पग पर मिलते हैं. इसमें आलोचना और परिष्कार का कार्य भी सतत होता रहा है. संस्कृति के जीवित प्रवाह स्वरूप संस्कृत में उपलब्ध भारतीय मनीषा को प्रतिष्ठित करना मानव कल्याण के लिए आवश्यक है.
दुर्भाग्य से संस्कृत को अनुष्ठानों के लिए आरक्षित कर जीवन-संस्कार, पूजन और उद्घाटन से जोड़ दिया गया. हम इस अमूल्य विरासत का मूल्य भूल गए. शिक्षा, परिवार, राजनय, व्यवसाय, वाणिज्य, स्वास्थ्य, प्रकृति, जीवन, जगत और ईश्वर को लेकर उपलब्ध चिंतन बेमानी रहा. हम नाम तो सुनते रहे पर बिना श्रद्धा के, क्योंकि मन में संदेह और दुविधा थी. पश्चिमी सांस्कृतिक और वैज्ञानिक घुसपैठ ने हमारी विश्व दृष्टि को ही बदलना शुरू किया.
आज अतिशय भौतिकता और उपभोक्तावाद से सभी त्रस्त हो रहे हैं. भारत में अकादमिक समाजीकरण की जो धारा बही, उसमें हमारी सोच परमुखापेक्षी होती गई और हमारे लिए ज्ञान का संदर्भबिंदु पश्चिमी चिंतन होता गया. ज्ञान के लिए हम परोपजीवी होते गए. हम उन्हीं की सोच का अनुगमन करते रहे. ज्ञान की राजनीति से बेखबर हम नए उन्मेष से वंचित होते गए. पश्चिम के अनुधावन से मौलिकता जाती रही.
भारत के शास्त्रीय चिंतन को समझना और उसका उपयोग सैद्धांतिक विकास व व्यावहारिक समाधान में लाभकारी होगा. योग और आयुर्वेद को लेकर जरूर उत्सुकता बढ़ी है पर अन्य क्षेत्र अभी भी उपेक्षित हैं. संस्कृत के लिए अवसर से न केवल ज्ञान के नए आयाम उभरेंगे बल्कि संस्कृति से अपरिचय कम होगा, भ्रम भागेगा और हम स्वयं को पहचान सकेंगे.