पंकज चतुर्वेदी का ब्लॉग: कूड़ादान बनते रेल पथों को स्वच्छता का इंतजार

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: January 7, 2022 17:40 IST2022-01-07T17:38:53+5:302022-01-07T17:40:16+5:30

जिन पटरियों पर रेल दौड़ती है और जिन रास्तों से यात्री रेलवे व देश की सुंदर छवि देखने की कल्पना करता है, उसके उद्धार के लिए रेलवे के पास न ता कोई रोड-मैप है और न ही परिकल्पना।

Need swachh railway track abhiyan says Pankaj Chaturvedi in his blog | पंकज चतुर्वेदी का ब्लॉग: कूड़ादान बनते रेल पथों को स्वच्छता का इंतजार

पंकज चतुर्वेदी का ब्लॉग: कूड़ादान बनते रेल पथों को स्वच्छता का इंतजार

सन् 2014 में शुरू हुए 'स्वच्छता अभियान' की सफलता के दावे और आंकड़ों में जो कुछ भी फर्क हो लेकिन यह बात सच है कि इससे आम लोगों में साफ-सफाई के प्रति जागरूकता जरूर आई। अब शहरी क्षेत्रों पर केंद्रित स्वच्छता अभियान का दूसरा चरण शुरू हुआ है लेकिन हकीकत यह है कि किसी भी शहर-कस्बे में प्रवेश के लिए बिछाई गई रेल की पटरियां बानगी हैं कि यहां अभी स्वच्छता के प्रति निर्विकार भाव बरकरार है।

कहते हैं कि भारतीय रेल हमारे समाज का असल आईना है। इसमें इंसान नहीं, बल्कि देश के सुख-दुख, समृद्धि-गरीबी, मानसिकता, मूल व्यवहार जैसी कई मनोवृत्तियां सफर करती हैं। भारतीय रेल 66 हजार किलोमीटर से अधिक के रास्तों के साथ दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा नेटवर्क है, जिसमें हर रोज बारह हजार से अधिक यात्री रेल और कोई सात हजार मालगाड़ियां शामिल हैं।

अनुमान है कि इस नेटवर्क में हर रोज कोई दो करोड़ तीस लाख यात्री सफर करते हैं तथा एक अरब मीट्रिक टन सामान की ढुलाई होती है। लेकिन दुखद है कि पूरे देश की रेल की पटरियों के किनारे गंदगी सिस्टम की उपेक्षा की तस्वीर प्रस्तुत करती है। कई जगह तो प्लेटफार्म भी अतिक्रमण, अवांछित गतिविधियों और कूड़े का ढेर बने हैं।

असल में रेल पटरियों के किनारे की कई-कई हजार एकड़ भूमि अवैध अतिक्रमणों की चपेट में है। इन पर राजनीतिक संरक्षण प्राप्त भूमाफिया का कब्जा है जो कि वहां रहने वाले गरीब मेहनतकश लोगों से वसूली करते हैं। इनमें से बड़ी संख्या में लोगों के जीविकोपार्जन का जरिया कूड़ा बीनना या कबाड़ी का काम करना ही है।

ये लोग पूरे शहर का कूड़ा जमा करते हैं, अपने काम का सामान निकाल कर बेच देते हैं और बाकी कूड़ा देश की रेल पटरियों के किनारे ही फेंक देते हैं, जहां धीरे-धीरे गंदगी के पहाड़ बन जाते हैं. यह भी आगे चलकर नई झुग्गी का मैदान होता है। कचरे का निपटान पूरे देश के लिए समस्या बनता जा रहा है।

सरकार भी मानती है कि देश के कुल कूड़े का महज पांच प्रतिशत का ईमानदारी से निपटान हो पाता है। राजधानी दिल्ली का तो 57 फीसदी कूड़ा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से यमुना में बहा दिया जाता है या फिर रेल पटरियों के किनारे फेंक दिया जाता है। राजधानी दिल्ली में कचरे का निपटान अब हाथ से बाहर निकलती समस्या बनता जा रहा है।

इस समय अकेले दिल्ली शहर 16 हजार मीट्रिक टन कचरा उपजा रहा है। उसके अपने कूड़ेदान पूरी तरह भर गए हैं और आसपास 100 किलोमीटर दूर तक कोई नहीं चाहता कि उनके गांव-कस्बे में कूड़े का अंबार लगे। कहने को दिल्ली में पांच साल पहले पॉलिथिन की थैलियों पर रोक लगाई जा चुकी है, लेकिन आज भी प्रतिदिन 583 मीट्रिक टन कचरा प्लास्टिक का ही है।

इलेक्ट्रॉनिक और मेडिकल कचरा तो यहां की जमीन और जल को जहर बना रहा है। घर-घर से कूड़ा जुटाने वाले अपने मतलब का माल निकाल कर ऐसे सभी अपशिष्ट को ठिकाने लगाने के लिए रेल पटरियों के किनारे ही जाते हैं, क्योंकि वहां कोई रोक-टोक करने वाला नहीं है।
पटरियों के किनारे जमा कचरे में खुद रेलवे का भी बड़ा योगदान है।

खासकर शताब्दी, राजधानी जैसी गाड़ियों में, जिसमें ग्राहक को अनिवार्य रूप से तीन से आठ तक भोजन परोसने होते हैं। इन दिनों पूरा भोजन पैक्ड और एक बार इस्तेमाल होने वाले बर्तनों में ही होता है। यह हर रोज होता है कि अपना मुकाम आने से पहले खानपान व्यवस्था वाले कर्मचारी बचा भोजन, बोतल, पैकिंग सामग्री के बड़े-बड़े थप्पे चलती ट्रेन से पटरियों के किनारे ही फेंक देते हैं।

यदि हर दिन एक रास्ते पर दस डिब्बों से ऐसा कचरा फेंका जाए तो जाहिर है कि एक साल में उस वीराने में प्लास्टिक जैसी नष्ट न होने वाली चीजों का अंबार होगा. कागज, प्लास्टिक, धातु जैसा बहुत सा कूड़ा तो कचरा बीनने वाले जमा कर रिसाइक्लिंग वालों को बेच देते हैं। सब्जी के छिलके, खाने-पीने की चीजें, मरे हुए जानवर आदि कुछ समय में सड़-गल जाते हैं।

इसके बावजूद ऐसा बहुत कुछ बच जाता है, जो हमारे लिए विकराल संकट का रूप लेता जा रहा है। दिल्ली तो महज एक उदाहरण है, ठीक यही हाल इंदौर, पटना, बेंगलुरु, गुवाहाटी या फिर इलाहाबाद रेलवे ट्रैक के भी हैं। शहर आने से पहले गंदगी का अंबार पूरे देश में एक समान ही है। 

कुछ साल पहले बजट में ‘रेलवे स्टेशन विकास निगम’ के गठन की घोषणा की गई थी, जिसने रेलवे स्टेशन को हवाई अड्डे की तरह चमकाने के सपने दिखाए थे। कुछ स्टेशनों पर काम भी हुआ, लेकिन जिन पटरियों पर रेल दौड़ती है और जिन रास्तों से यात्री रेलवे व देश की सुंदर छवि देखने की कल्पना करता है, उसके उद्धार के लिए रेलवे के पास न ता कोई रोड-मैप है और न ही परिकल्पना।

Web Title: Need swachh railway track abhiyan says Pankaj Chaturvedi in his blog

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