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नवीन कुमार का ब्लॉग: लड़कियों की असल आज़ादी किताब है, हिजाब नहीं

By नवीन कुमार | Updated: February 13, 2022 13:30 IST

हिजाब पर बहस छिड़ी है। असदुद्दीन ओवैसी ने कहा है कि एक दिन इस देश की प्रधानमंत्री एक हिजाबी बनेगी। वहीं, एक कहानी कश्मीर की अरुसा परवेज़ की भी है। मुस्कान खान के साथ खड़े होने की बात करने वाले अरुसा परवेज़ की गर्दन काट लेने के फ़रमान पर दुबक गए हैं।

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असदुद्दीन ओवैसी ने कहा है कि इंशाअल्लाह एक दिन इस मुल्क की प्रधानमंत्री एक हिजाबी बनेगी। मैं तो चाहता हूं कि ओवैसी भी प्रधानमंत्री हो जाएं। लेकिन इसके पहले मैं पूछना चाहता हूँ कि ओवैसी या उनकी तरह के लोग हिजाब क्यों नहीं पहनते। या फिर हिजाब की वो तरफदार जमातें हिजाबों, नक़ाबों और बुर्कों में अपने आपको समो क्यों नहीं लेतीं जो आरुसा परवेज़ की जान ले लेना चाहती हैं।

उन मुस्लिम, हिंदू, धर्मनिरपेक्ष और संविधानपरस्त बुद्धिजीवियों को काठ मार गया है जो कर्नाटक की घटना के बाद ऐसे एलान कर रहे थे जैसे हिजाब ही क्रांति हो। अरुसा परवेज़ के नाम से वो थूक गटकने लग गए। तो ओवैसी साहब अरुसा परवेज़ का नाम क्यों नहीं लेते? क्योंकि वो उनके भड़काऊ एजेंडे पर फ़िट नहीं बैठती।  लेकिन कश्मीर की बेटियों ने ऐसे तमाम लोगों को लानतें भेजी हैं। 

16 साल की अरुसा परवेज़ ने उन हिजाबपरस्तों के चेहरों पर ज़बरदस्त मुक्का मारा है जिन्होंने हिजाब न पहनने पर उनके परिवार का जीना हराम कर दिया है। जो लोग जीभ पटक-पटक कर कह रहे थे कि हिजाब पहनने या न पहनने का फ़ैसला लड़कियाँ ख़ुद कर लेंगी, उन्हें ये हक़ संविधान देता है उन्हीं लोगों की ज़ुबानें अरुसा की ज़िंदगी नर्क बना देने पर आमादा हिजाबवादियों पर कटकर गिर गई हैं। यही कट्टरपंथ है। अरुसा परवेज़ की हिम्मत ने संविधान और आज़ादी के नाम पर सिर उठा रहे कट्टरपंथियों को बेनक़ाब कर दिया है। इस देश को ऐसे लोगों के मंसूबों से ख़तरा है। ऐसे तमाम चेहरों को पहचानने की ज़रूरत है। 

मुस्कान खान के साथ खड़े होने की दुहाई देने वाले अरुसा परवेज़ की गर्दन काट लेने के फ़रमान पर दुबक गए हैं। उडूपी की हिजाबपरस्त लड़कियों को शेरनी बताने वाले अरुसा आलम का साथ देने से भाग खड़े हुए हैं। उनकी शिनाख्त करनी पड़ेगी। 

अरुसा परवेज़ एक कश्मीरी छात्रा हैं। श्रीनगर के डाउनटाउन में इलाहीबाग की रहने वाली हैं। बारहवीं की बोर्ड परीक्षा में उन्होंने विज्ञान विषय में पूरे जम्मू-कश्मीर में टॉप किया है। 8 फरवरी को नतीजे आए थे। अरुसा ने 500 में से 499 नंबर हासिल किए थे। ये किसी कमाल से कम नहीं था। 

परीक्षा के नतीजे आते ही अरुसा मीडिया में छा गईं। उनका पूरा परिवार, उनका स्कूल, कश्मीर की बेटियाँ, तरक्कीपसंद लोग उसकी इस कामयाबी के उत्सव में डूब गए। इंटरनेट उनकी तस्वीरों से भर गया। भारत ही नहीं दुनिया के तमाम मुल्कों में बसे हुए कश्मीर उन्हें मुबारकबाद देने लगे। ये मौक़ा ही ऐसा था। सोलह साल की बच्ची की ये ज़बरदस्त कामयाबी कट्टरपंथी हिजाबपरस्त जमातों को अखर गई। ख़ासकर मर्दों की सीने पर सांप लोटने लगा। इन गंदे और घिनौने लोगों को ये बच्ची भड़काऊ लगने लगी। बेगैरत लगने लगी। अपराधी लगने लगी। क्योंकि तस्वीरों में आरुसा ने हिजाब नहीं किया हुआ है। पर्दा नहीं किया हुआ है। उन्होंने नक़ाब नहीं ओढ़ा हुआ है। वो बुर्के में नहीं ढकी हुई हैं। 

सोशल मीडिया पर आरुसा परवेज़ पर हमले शुरु हुए। बजबजाते हुए दिमाग़ों से निकली हुई धमकियों ने अरुसा के पूरे परिवार को घेर लिया। एक ने लिखा- बेगैरत। दूसरे ने लिखा पर्दा नहीं किया। तीसरे ने लिखा इसकी गर्दन काट दो। इस तरह की हज़ारों धमकियों से ट्विटर, फ़ेसबुक और व्हाटसऐप भर गया। जिस बुरी तरह अरूसा को ट्रोल किया गया है उससे उनका परिवार दहल गया। जो हैरानी की बात है वो यह कि उन हिजाबपरस्तों ने आरुसा की आज़ादी के पक्ष में एक शब्द नहीं लिखा-बोला। अरुसा को शाबासी देना तो बहुत दूर की बात है। सवाल है कि ओवैसी अरुसा के हक़ो हुकूक, उसकी मासूमियत, उसकी कामयाबियों की बात गलती से भी बात नहीं करते। वो भूले से भी नहीं कहते कि हिजाब पहनना या न पहनना अरुसा का हक़ है। क्यों नहीं कहते कि उन्हें गर्व है अरुसा की कामयाबी पर। 

एक बच्ची की गर्दन काट लेने की धमकी देने वाले हिजाबपरस्तों को जवाब देने के लिए अरुसा परवेज़ को ख़ुद हिम्मत जुटानी पड़ती है। उन्होंने कहा जो लोग इस्लाम में यक़ीन करते हैं उन्हें इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि मैंने क्या पहना है और क्या नहीं। उन्होंने उन कायरों और जाहिलों को चुनौती देते हुए कहा कि मुझे इन धमकियों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। और ना ही मैं इनसे घबराती हूँ। ये सच है कि हमारे मां-बाप बहुत डर गए हैं लेकिन हम जल्दी ही इससे लड़ना सीख जाएँगे। हमें डराने वालों को मेरा जवाब है कि मैं दिल से मुसलमान हूँ, हिजाब से नहीं। 

अरुसा की शिक्षकों जो ख़ुद मुसलमान हैं, उन्होंने आरुसा का साथ देते हुए कहा कि जिन्हें उसकी ख़ुशी में शरीक होना चाहिए था, उसकी कामयाबी को सेलिब्रेट करना चाहिए था वो उसे धमका रहे हैं, लानत है ऐसे कायर लोगों पर। लेखक और स्तंभकार फारुक शाह ने कहा कि आरुसा पर हो रहे हमले नाक़ाबिले बर्दाश्त है। एक काबिल और प्रतिभाशाली लड़की के जीवन के सबसे हसीन पलों को भद्दी टिप्पणियों से बर्बाद कर देने वाले इस्लाम को सिर्फ़ बदनाम कर रहे हैं। हमें आज दक़ियानूसी नहीं, पढ़े-लिखे और सभ्य मज़हबी नेता और उलेमा चाहिए। ओवैसी जैसे लोग क्या इतनी मामूली सी बात को समझते हैं?

आरुसा परवेज़ को मिल रही धमकियों पर मुसलमानों में छाई हुई खामोशी परेशान करने वाली है। हमें समझना पड़ेगा कि बात कर्नाटक की हो या कश्मीर की, हिंदू की हो या मुसलमान की। जब बात लड़कियों की पढ़ाई की आती है, उनकी नौकरी की आती है, उनके घरों से बाहर निकलने की आती है, मोर्चों पर निकलने की आती है तो मर्दों की छातियाँ दरकने लगती है। अरुसा हों या मुस्कान दोनों ही  धर्मांध पितृसत्ता के ख़िलाफ़ लड़कियों की तनती हुई मुट्ठियों की प्रतीक हैं। आप अगर मुस्कान खान के साथ होने का नाटक कर रहे हैं और अरुसा परवेज़ पर ख़ामोश हैं तो आपका काइयाँपन बेपर्दा हो जाता है। और लड़कियाँ इसे समझ रही हैं। धर्मांध पितृसत्ता और स्त्री-अधिकार की लड़ाई को पार्टी पॉलिटिक्स तक समेट देने वालों को शर्मिंदा होना चाहिए। माफ़ी माँगनी चाहिए अरुसा परवेज़ से।

कोई इधर उधर की बात नहीं। ये बात समझनी ही होगी कि असल आज़ादी हिजाब नहीं किताब है। तालीम से ही आगे का रास्ता निकलेगा। अगर आप बेटियों के हाथों में सजी किताब को कुचलकर हिजाब को बचाना चाहते हैं एक दिन अपने मुस्तबिक को कुचल बैठेंगे। आपको ये बात अच्छी लगे या बुरी, लेकिन आज नहीं तो कल इसे समझना ज़रूर पड़ेगा।

टॅग्स :कर्नाटक हिजाब विवादअसदुद्दीन ओवैसी
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