एन. के. सिंह का ब्लॉग: वैज्ञानिक सोच के अभाव में जड़ हो जाता है समाज
By एनके सिंह | Published: January 11, 2020 05:23 AM2020-01-11T05:23:40+5:302020-01-11T05:23:40+5:30
77 साल बाद आजाद भारत के सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि विवाह के बावजूद कोई पुरुष अगर किसी 18 साल से कम उम्र की पत्नी से शारीरिक संबंध बनाता है तो वह बलात्कार माना जाएगा. सरकार ने सन 2006 में इसे कानून का रूप दे दिया. लेकिन आज पता चला कि न केवल बाल विवाह बल्कि भ्रूण-विवाह भी हो रहा है और कच्ची उम्र में शारीरिक संबंध के कारण जो बच्चे पैदा हो रहे हैं वो देश की पीढ़ियां खराब कर रहे हैं.
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के डेढ़ साल पहले जारी चौथे चक्र में बताया गया था कि आज भी राजस्थान के मेवाड़ अंचल के दो जिलों भीलवाड़ा और चित्तौड़गढ़ में आधी से ज्यादा शादियां बाल-विवाह हैं. यही हालत देश के अन्य भागों जैसे बिहार और उत्तर प्रदेश में भी पाई जाती है. बाल-विवाह प्रतिबंध कानून आज से ठीक 90 साल पहले बनाया गया था लेकिन एक ताजा खुलासे के अनुसार भीलवाड़ा में आज भी तमाम शादियां ऐसी हैं जिनमें दादा ने अभी अजन्मे बच्चे के वैवाहिक भविष्य का फैसला ले लिया और खौफ/सम्मान इतना कि अगली पीढ़ी ने चुपचाप इस आदेश को मान कर अपने अबोध बेटे या बेटी की शादी किसी के अबोध बेटे से कर दी.
किस्सा गंगापुर क्षेत्न के खीवराज गांव का है. और अधिकांश ऐसी शादियों में सात-सात साल के बच्चे परिणय सूत्न में बांधे जाते हैं. सन 1929 में बाल-विवाह प्रतिबंधित कर शादी की उम्र लड़के के लिए 18 साल और लड़की के लिए मात्न 14 साल की गई लेकिन उसके लिए भी अंग्रेज हुकूमत को करीब 35 साल तक एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा. केंद्रीय लेजिस्लेटिव असेंबली बनने के बाद असेंबली के हिंदू सदस्य इसे बढ़ा कर 12 से 14 साल करने पर राजी नहीं थे. गांधी ने कुछ हिंदू सदस्यों द्वारा किए जा रहे विरोध से आहत होकर यंग इंडिया के 26 अगस्त, 1926 के संस्करण में इस कुरीति को भारतीय समाज का अभिशाप बताया. उन्होंने कानून के मसौदे का समर्थन करते हुए लिखा ‘‘कम उम्र में विवाह के कारण स्त्रियों का शरीर विकसित नहीं होता और ऐसे में प्रसव के दौरान उनमें से अधिकांश मर जाती हैं, बच्चे भी कमजोर पैदा होते हैं और एक सशक्त समाज नहीं बन पाता.’’
जरा इस समाज की वैज्ञानिक सोच के अभाव में कट्टरवादिता देखिए, बहुत जद्दोजहद के बाद सन 1891 में अंग्रेज हुकूमत लड़कियों की शादी की न्यूनतम आयु सीमा दस साल से 12 साल करने में सफल हुई लेकिन वह जानती थी कि इसे अमल में लाना मुश्किल है. जनगणना शुरू हो गई थी और हर रिपोर्ट व स्वास्थ्य रिपोर्टो से पता चलता था कि इस कुरीति और संपन्न-लेकिन-अनैतिक कामुक संभ्रांत वर्ग की पिपासा की शिकार ये लड़कियां कम उम्र में बच्चे जनने के कारण खुद तो मौत का शिकार बनती ही हैं, बच्चा भी (अगर अगले पांच साल बच गया) अशक्त पैदा होता है. लेकिन अंग्रेज सरकार को हिंदू धर्माचार्यो और समाज से आक्रोश का डर रहता था. लिहाजा सन 1922 और 1925 में लाए गए सभी गैर-सरकारी विधेयक कट्टरपंथी सोच वाले सदस्यों ने न केवल खारिज कर दिए बल्कि धमकी दी कि अगर हमारे धर्म की व्यवस्था में छेड़छाड़ की तो इसका अंजाम बुरा होगा.
बहरहाल कुछ उदारवादी और वैज्ञानिक सोच के सदस्यों और गांधीजी के रु ख की वजह से ब्रितानी हुकूमत सन 1925 में लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र 13 साल और शारीरिक संबंध की न्यूनतम आयु 14 साल करने में सफल हुई. बहस के दौरान सदन-पटल पर रखी गई सन 1921 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार इस कुरीति के कारण पिछले कई दशकों से हर नई पीढ़ी में 32 लाख स्त्रियां बच्चे को जन्म देने के दौरान मर जाती हैं क्योंकि उनका शरीर कम आयु के कारण इसे बर्दाश्त नहीं करता. इसके अलावा जन्म के समय ही मरे बच्चों की या शरीर से कमजोर बच्चों की संख्या बेहद डरावनी थी. सन 1929 में राजा राममोहन राय की मदद से अंग्रेज सरकार ने बाल-विवाह विरोधी कानून तो बना दिया लेकिन 1931 की जनगणना में पाया गया कि बाल-विवाह की संख्या चार गुना बढ़ गई.
77 साल बाद आजाद भारत के सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि विवाह के बावजूद कोई पुरुष अगर किसी 18 साल से कम उम्र की पत्नी से शारीरिक संबंध बनाता है तो वह बलात्कार माना जाएगा. सरकार ने सन 2006 में इसे कानून का रूप दे दिया. लेकिन आज पता चला कि न केवल बाल विवाह बल्कि भ्रूण-विवाह भी हो रहा है और कच्ची उम्र में शारीरिक संबंध के कारण जो बच्चे पैदा हो रहे हैं वो देश की पीढ़ियां खराब कर रहे हैं. इस क्षेत्न में मातृ मृत्यु दर राष्ट्रीय औसत के लगभग दूना और राज्य औसत से सवा गुना ज्यादा है. बाल-मृत्यु दर और शिशु स्वास्थ्य की भी यही स्थिति है. मुद्दा सरकार की अक्षमता से ज्यादा समाज में कुंठित और रूढ़िवादी सोच का है. सरकार केवल कानून बना सकती है लेकिन सामाजिक स्तर पर गैरसरकारी संस्थाओं को आगे बढ़ कर इस वर्ग की सोच बदलनी होगी.
एक ओर सुप्रीम कोर्ट ने कुछ साल पहले ‘लिव-इन’ संबंधों को मान्यता दे दी और हाल ही में विवाहेतर शारीरिक संबंधों को भी वैध माना है. लेकिन वहीं दूसरी ओर समाज या सरकार की कोई भी संस्था या धर्माचार्य इस बात के लिए नहीं खड़े हो रहे हैं कि भीलवाड़ा जैसी मानसिकता के दंश से इस देश की बालिकाओं को कैसे बचाया जाए. महज कानून बनाने से सामाजिक कुरीति खत्म होनी होती तो भ्रष्टाचार के खिलाफ अलग-अलग एक दर्जन से ज्यादा कानून हैं लेकिन यह घटने के बजाय बढ़ता जा रहा है. हाल ही में अपराधी ‘बाबाओं’ द्वारा किए गए दुराचार के बाद अब विश्वसनीय सामाजिक संस्थाएं बनानी होंगी जो वैज्ञानिक सोच विकसित करें व लोग बेटियों को जल्द शादी कर अकाल मौत के मुंह में झोंकने की जगह उन्हें बेटों की तरह शिक्षा दें और खिलाड़ी, वैज्ञानिक, अधिकारी बनाएं.