ब्लॉग: राजनीतिक बहसों में गंभीरता का खलता है अभाव
By विश्वनाथ सचदेव | Published: February 9, 2022 12:09 PM2022-02-09T12:09:08+5:302022-02-09T12:12:04+5:30
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव का पारित होना महज एक औपचारिकता होती है. सरकार के पास बहुमत है अत: प्रस्ताव तो पारित होना ही होता है. पर निस्संदेह यह एक ऐसा अवसर होता है जब हमारे सांसद, सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष दोनों, दलगत राजनीति से ऊपर उठकर गंभीर चिंतन-मनन कर सकते हैं.
हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था में सरकार भले ही प्रधानमंत्री चलाते हों, पर कहलाती वह राष्ट्रपति की ही सरकार है. इसीलिए, जब राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों को संबोधित करते हुए अपना अभिभाषण देते हैं तो सरकार की उपलब्धियां गिनाते हुए वे यही कहते हैं कि मेरी सरकार ने यह-यह किया, फिर भले ही वे सरकार के किसी कृत्य से सहमत हों या न हों.
राष्ट्रपति के इस बार के अभिभाषण में भी यही गिनाया गया कि सरकार ने क्या-क्या किया है, और यह भाषण पढ़ भले ही राष्ट्रपति रहे हों, पर उसके हर शब्द पर सरकार की स्वीकृति होती है. यही परंपरा है.
फिर संसद के दोनों सदनों में इस पर बहस होती है जिसे राष्ट्रपति के अभिभाषण के लिए धन्यवाद प्रस्ताव के रूप में रखा जाता है. यह प्रस्ताव तो पारित होना ही होता है, पर विपक्ष को अवसर अवश्य मिल जाता है, सरकार के कार्यो की आलोचना करने का. अवसर सरकारी पक्ष को भी मिलता है अपनी बात रखने का, विपक्ष की आलोचना का जवाब देने का.
स्पष्ट है, एक गंभीर बहस का अवसर होता है यह, पर अक्सर देखा गया है कि संसद में इस अवसर का समुचित उपयोग नहीं होता. निस्संदेह कुछ भाषण बहुत अच्छे होते हैं, पर ज्यादातर भाषण आरोपों-प्रत्यारोपों की बलि चढ़ जाते हैं.
बहरहाल, राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई बहस में भी कुछ बातें सचमुच रेखांकित किए जाने लायक हैं. इनमें से एक कांग्रेस के नेता राहुल गांधी का वक्तव्य भी है. राहुल बहुत अच्छे वक्ता नहीं माने जाते, पर दो भारत वाला उनका यह भाषण निश्चित रूप से ध्यान आकर्षित करने वाला था.
भले ही यह बात उन्होंने पहली बार न कही हो, पर अमीरी और गरीबी में बंटे हमारे देश के लिए यह स्थिति गंभीर चिंता करने की है. यह तथ्य अपने आप में भयावह है कि स्वतंत्रता के इस कथित अमृत-काल में देश की अधिसंख्य आबादी गरीबी का जीवन जी रही है. इसके बरक्स देश में अरबपतियों की संख्या में वृद्धि आर्थिक विषमता की बढ़ती खाई की भयावहता ही उजागर करती है.
देश में शीर्ष के दस प्रतिशत लोगों के पास आज जितनी संपत्ति है उतनी देश की आधी आबादी की कुल संपत्ति भी नहीं है. यही हैं वे दो भारत जिनके बीच की खाई को पाटना जरूरी है और यह काम नहीं हो रहा. विपक्ष के इस आरोप का गंभीरतापूर्वक अध्ययन होना चाहिए, पर इसे मजाक में उड़ाने की कोशिशें हो रही हैं.
ऐसा नहीं है कि आर्थिक विषमता पहले नहीं थी. बहुत पुरानी बीमारी है यह. वर्ष 1963 में, यानी आज से आधी सदी पहले भी हमारी संसद में इस विषय को लेकर बहस हुई थी.तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सुरक्षा-व्यवस्था पर 25 हजार रुपए प्रतिदिन खर्च होने का सवाल उठाते हुए समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने ‘पंद्रह आना बनाम तीन आना’ की आय का सवाल उठाया था.
सरकार की ओर से कहा गया था कि देश में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन आय पंद्रह आना है, तब डॉ. लोहिया ने सरकारी आंकड़े देते हुए बताया था कि देश का नागरिक तीन आना प्रतिदिन पर गुजर-बसर करने के लिए बाध्य है. इस विषय को लेकर तब संसद में, और देश में भी, बहुत चर्चा हुई थी. पर तब की सरकार के मुखिया ने इसे मजाक में उड़ाने की कोशिश नहीं की थी.
आज तक संसद में हुई उस बहस को गिनी-चुनी अति महत्वपूर्ण बहसों में गिना जाता है. दुर्भाग्य से आज हमारी संसद में शोर-शराबे में समय अधिक व्यय होता है. कभी-कभार ही कोई गंभीर बहस होती दिखाई देती है.
प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर विपक्ष की आलोचना का उत्तर देते हुए कई बार जवाहरलाल नेहरू को उद्धृत किया है. देश के पहले प्रधानमंत्री ने संसदीय जनतंत्र की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए, ‘काम के प्रति निष्ठा, सहयोग-सहकार की आवश्यकता, स्वानुशासन और संयम बरतने की महत्ता’ की बात कही थी.
नेहरू से राजनीतिक विरोध हो सकता है पर उनके इस कथन की उपयोगिता और उपयुक्तता के बारे में संदेह नहीं किया जाना चाहिए. भाजपा के ही पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नेहरू की इस बात को आगे बढ़ाया था.
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव का पारित होना महज एक औपचारिकता होती है. सरकार के पास बहुमत है अत: प्रस्ताव तो पारित होना ही होता है. पर निस्संदेह यह एक ऐसा अवसर होता है जब हमारे सांसद, सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष दोनों, दलगत राजनीति से ऊपर उठकर गंभीर चिंतन-मनन कर सकते हैं.
पर, दुर्भाग्य से, अक्सर ऐसा होता नहीं. अक्सर अनावश्यक आरोप-प्रत्यारोप बहस पर हावी हो जाते हैं. इस मौके पर जिस गंभीरता की आवश्यकता होती है, अक्सर उसका अभाव दिखता-खलता है.