विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः आरोपियों के नायकों जैसे स्वागत पर उठते सवाल
By विश्वनाथ सचदेव | Published: August 29, 2019 02:18 PM2019-08-29T14:18:24+5:302019-08-29T14:18:24+5:30
गौ हत्या या ऐसे अन्य कारणों का हवाला देकर जैसे भीड़ की हिंसा को एक तरह का समर्थन दिया जा रहा है वह कानून-व्यवस्था की दृष्टि से एक गंभीर मसला है. जय श्रीराम अथवा भारत माता की जय के नारे लगाना गलत नहीं कहा जा सकता, पर जब हत्या जैसे गंभीर अपराध के आरोपियों के अभिनंदन के साथ ये नारे जुड़ते हैं तो नारा लगाने वालों की मंशा तो संदेह के घेरे में आती ही है.
लगभग साल भर बीत गया इस कांड को हुए. मामला झारखंड के हजारीबाग का है जहां कथित गौहत्या के आरोप में एक कोयला व्यपारी को ‘भीड़’ ने पीट-पीट कर मार दिया था. इस मामले में फास्ट ट्रैक कोर्ट ने ग्यारह व्यक्तियों को अपराधी पाया था, जिन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली थी. उच्च न्यायालय ने इनमें से आठ व्यक्तियों को जमानत पर रिहा कर दिया था.
इस घटना का रिश्ता इन्हीं आठ व्यक्तियों से है. तब जयंत सिन्हा केंद्र में वित्त राज्यमंत्री हुआ करते थे और वे हजारीबाग से ही सांसद निर्वाचित हुए थे. जयंत सिन्हा ने अपने चुनाव क्षेत्र के इन आठ आरोपियों का, जिन्हें निचली अदालत अपराधी घोषित कर चुकी थी, तब मालाएं पहनाकर स्वागत और अभिनंदन किया था, जिसकी देश भर में भर्त्सना हुई थी. मंत्री महोदय ने अपने कृत्य की सफाई तो दी थी, पर आरोपियों का सार्वजनिक स्वागत करने को एक गलत परंपरा और किसी अपराध से कम नहीं माना गया था. मीडिया में काफी-कुछ उछला था तब इस बारे में. फिर, जैसा कि अक्सर होता है, इस कांड को भुला दिया गया. कुछ नहीं सीखा देश ने इस कांड से.
इस कुछ न सीखने का ही उदाहरण यह दूसरी घटना है, जो हाल ही में उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में घटी. कांड की शुरुआत यहां भी कथित गौ हत्या से ही हुई. फिर भीड़ ने हिंसा का उदाहरण प्रस्तुत किया. दो व्यक्ति मारे गए, जिनमें से एक पुलिस सब इंस्पेक्टर भी था, जो उपद्रवियों को शांत करने का प्रयास कर रहा था. कुछ लोग गिरफ्तार हुए. इनमें से छह आरोपियों को जमानत पर छोड़ दिया गया है.
जमानत पाना किसी भी आरोपी का अधिकार है और सामान्यत: जमानत मिलनी ही चाहिए. इन आरोपियों को जमानत मिलना कतई गलत नहीं है. गलत तो वह स्वागत है जो इन आरोपियों का हुआ. हजारीबाग वाले कांड की तरह यह मामला किसी मंत्री द्वारा आरोपियों के स्वागत का तो नहीं है, यहां स्वागत भीड़ ने किया है. आरोपियों को मालाओं से लाद दिया गया. इससे भी गंभीर विषय उन नारों का है जो एक पुलिस अफसर की हत्या के आरोपियों के स्वागत में लगाए गए. हत्या के आरोपियों का अभिनंदन ‘जय श्री राम’, ‘वंदे मातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ के नारों से किया गया. ज्ञातव्य है कि आरोपियों में से एक का संबंध भाजपा की युवा शाखा ‘भारतीय जनता युवा मोर्चा’ से है.
बुलंदशहर-कांड के इन आरोपियों का नायकों की तरह किया गया स्वागत, चर्चा का विषय बन गया है और इस पर सवालिया निशान लग रहे हैं. हजारीबाग वाले कांड में एक केंद्रीय मंत्री ने आरोपियों को मालाएं पहनाई थीं और बुलंदशहर वाले इस कांड में आरोपियों का स्वागत करने वालों में भाजपा से जुड़े संगठनों के लोग बताए जा रहे हैं.
यहां इस बात को भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि उत्तर प्रदेश के अस्सी से अधिक पूर्व सरकारी अधिकारियों ने खुला पत्र लिखकर पुलिस अधिकारी की हत्या की भर्त्सना की थी और शीघ्रातिशीघ्र अपराधियों को सजा दिलवाने की मांग की थी. मांग करने वाले इन पूर्व अधिकारियों में पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन और शिवशंकर मेनन जैसे वरिष्ठ अधिकारी शामिल हैं. निश्चित रूप से इन सबकी चिंता यह भी थी कि भीड़ की हिंसा समूची-राज्य-व्यवस्था को भी चुनौती दे रही है. पिछले एक अर्से से देश में ‘भीड़ का गुस्सा’ के नाम पर आपराधिक गतिविधियों को बढ़ावा मिल रहा है. गौ हत्या या ऐसे अन्य कारणों का हवाला देकर जैसे भीड़ की हिंसा को एक तरह का समर्थन दिया जा रहा है वह कानून-व्यवस्था की दृष्टि से एक गंभीर मसला है.
जय श्रीराम अथवा भारत माता की जय के नारे लगाना गलत नहीं कहा जा सकता, पर जब हत्या जैसे गंभीर अपराध के आरोपियों के अभिनंदन के साथ ये नारे जुड़ते हैं तो नारा लगाने वालों की मंशा तो संदेह के घेरे में आती ही है. ऐसे में कहीं न कहीं यह संदेश तो जाता ही है कि इस तरह के आयोजनों के पीछे शायद कोई राजनीतिक मंतव्य है.
भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा को किसी भी दृष्टि से स्वीकारा नहीं जा सकता. ऐसे कृत्यों के आरोपियों के प्रति भी दिखायी जाने वाली उदारता कानून-व्यवस्था में विश्वास के हमारे दावों को खोखला ही सिद्ध करती है. यह सही है कि आरोपी होने का मतलब अपराधी होना नहीं होता, लेकिन सही यह भी है कि जबतक आरोपी बरी घोषित नहीं हो जाता, उसे पूर्णतया निर्दोष भी नहीं माना जाता. इसलिए, दोनों ही स्थितियों में सावधानी बरतने की आवश्यकता है.
सवाल हत्या जैसे गंभीर अपराधों के आरोपियों को जमानत पर छोड़ने की आवश्यकता या विवशता का भी है. कई बार जमानत इसलिए भी देनी पड़ती है कि कोई निरपराध अनिश्चित काल तक बंदी न बना रहे. मुकदमों का लंबा चलना भी कभी-कभी जमानत को जरूरी बना देता है. कोई व्यवस्था ऐसी करनी ही होगी कि अदालतों में मामले उचित समय में निपट जाएं.
कानून के शासन का एक मतलब शीघ्र न्याय मिलना भी है. और न्याय का मतलब सिर्फ अदालती कार्रवाई तक ही सीमित नहीं है. न्याय समाज भी करता है. यह समाज को सोचना है कि वह अपनी कथनी करनी से अपराधियों को महिमा-मंडित तो नहीं करता.
दुर्भाग्य से, भीड़ की हिंसा के अधिकतर मामले आज राजनीतिक स्वार्थों से जुड़े दिखाई देते हैं. इन्हीं स्वार्थों ने ‘जय श्रीराम’ जैसे धार्मिक नारों और ‘भारत माता की जय’ जैसे राष्ट्रीय उद्घोषों की गरिमा को कम कर दिया है. बुलंदशहर-कांड के संदर्भ में इन नारों का उपयोग कथित नायकों को महिमा प्रदान करने जैसा है. ऐसी कोई भी कोशिश राष्ट्रीय हितों के विपरीत ही जाती है.