#MeToo के बेरहम प्रकाश से नहीं चुरा सकते आंख
By अभय कुमार दुबे | Published: October 17, 2018 07:00 AM2018-10-17T07:00:46+5:302018-10-17T07:00:46+5:30
चूंकि ‘मी टू मुहिम’ का स्वरूप औचक (रैंडम) है, और इसके बाद होने वाली सामाजिक और पेशेवर लानत-मलामत का विन्यास काफी-कुछ ‘मीडिया ट्रायल’ से मिलता-जुलता है, इसलिए इस मुहिम की आलोचनाएं भी हो रही हैं। इन आलोचनाओं में आम तौर से दो आपत्तियां केंद्रीय हैं।
अगर एक सर्वेक्षण के जरिए लोगों से सवाल पूछा जाए कि क्या आप चाहते हैं कि स्त्रियों का कार्यस्थल पर यौन-शोषण रोका जाना चाहिए- तो मेरे ख्याल से तकरीबन सभी लोग हां में जवाब देंगे। सर्वेक्षण का दूसरा सवाल यह हो सकता है कि ऐसा यौन-शोषण रोकने के लिए कौन सा तरीका अपनाया जाना चाहिए? इस प्रश्न के उत्तर में तरह-तरह की राय सामने आएगी। ऐसे ज्यादातर सुझाव यौन-शोषण की घटना घटित हो जाने के बाद की जाने वाली शिकायत, उसकी जांच और उस शिकायत के सही पाए जाने की सूरत में शोषणकारी पुरुष को सजा देने के संस्थागत बंदोबस्त की तरफ इशारा करते हुए मिलेंगे। ‘मी टू मुहिम’ ने बताया है कि यौन-शोषण रोकने का संस्थागत मैकेनिज्म कितना अपर्याप्त है। वे तमाम स्त्रियां जो भारत के ‘मी टू कैंपेन’ में सामने आ रही हैं, सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक दबावों से इस बंदोबस्त का इस्तेमाल करने से खुद को रोकती रही हैं।
चूंकि ‘मी टू मुहिम’ का स्वरूप औचक (रैंडम) है, और इसके बाद होने वाली सामाजिक और पेशेवर लानत-मलामत का विन्यास काफी-कुछ ‘मीडिया ट्रायल’ से मिलता-जुलता है, इसलिए इस मुहिम की आलोचनाएं भी हो रही हैं। इन आलोचनाओं में आम तौर से दो आपत्तियां केंद्रीय हैं। पहली, इन औरतों ने उस समय शिकायत क्यों नहीं की, जब उनके साथ यौन-शोषण की घटना हुई थी? दूसरी, पहले तो स्त्रियां व्यावसायिक लाभ उठाने के लिए समझौते करती हैं, और फिर बाद में जब उस व्यावसायिक लाभ की उन्हें कोई जरूरत नहीं रह जाती या वह लाभ उन्हें मिलता नहीं दिखाई देता तो वे शिकायत करती हैं। जाहिर है कि ये दोनों आपत्तियां आपस में जुड़ी हुई हैं। एक दूसरे को पुष्ट करती हैं। लेकिन मेरे विचार से इनमें एक बुनियादी भ्रांति अंतर्निहित है जिसे सामने लाया जाना जरूरी है।
इस भ्रांति के केंद्र में है स्त्री का अपनी देह पर अधिकार का प्रश्न। इस सवाल पर कानूनी स्थिति और सामाजिक आग्रहों के बीच खाई है। कानून कहता है कि अगर स्त्री अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए अपनी देह का नियोजित इस्तेमाल भी करती है, तो वह कानूनन कोई अपराध नहीं करती। उसका पूरा हक अपनी देह पर है। बस, यह करते समय सार्वजनिक स्थल पर किसी भी तरह की अश्लीलता नहीं फैलनी चाहिए। इस विधिसम्मत स्थिति को समाज चरित्रहीनता की श्रेणी में डालता है, और पारंपरिक संहिताओं के अनुसार स्त्री की देह और उसके इस्तेमाल की नैतिकताओं को विनियमित करना चाहता है। समाज कानूनसम्मत तरीके से चलना चाहिए, स्त्री-देह पर सामाजिक नियंत्रण के पुराने विचारों के आधार पर नहीं।
प्रश्न यह है कि क्या ‘मी टू मुहिम’ से कार्यस्थल पर लैंगिक लोकतंत्र की स्थापना हो सकती है? इस प्रश्न का मेरा उत्तर है- नहीं। ऐसा लोकतंत्र केवल संस्थागत प्रयासों को अधिक कारगर और प्रभावी बना कर ही कायम किया जा सकता है। हां, ‘मी टू मुहिम’ ऐसा करने की जरूरत पर एक बेरहम प्रकाश जरूर डालती है। एक ऐसा प्रकाश जिससे आंखें चुराना अब इस पुरुष प्रधान समाज के लिए नामुमकिन होगा।