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महाराष्ट्र विधान मंडलः सरकारी संरक्षण में रहकर सरकार को चुनौती, सदन के बाहर विरोध के सुर मुखर

By Amitabh Shrivastava | Updated: August 9, 2025 05:13 IST

Maharashtra Legislative Assembly: तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा के बाद इस तरह का कानून बनाने वाला महाराष्ट्र पांचवां राज्य है.

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ठळक मुद्देसंचालन में बाधा पहुंचने की आशंका हो, या फिर स्थापित संस्थाओं और उनके कर्मचारी को खतरा हो.कानून बन जाने के बाद इसका दुरुपयोग अपने राजनीतिक विरोधियों को दबाने के लिए किया जा सकता है. ‘मकोका’ और ‘यूएपीए’ जैसे सख्त कानून हैं तो फिर इस तरह का नया कानून बनाने की जरूरत क्यों आन पड़ी?

Maharashtra Legislative Assembly:  महाराष्ट्र विधान मंडल के दोनों सदनों में ‘महाराष्ट्र विशेष जनसुरक्षा विधेयक 2024’ बहुमत से पारित होने के बाद सदन के बाहर विरोध के सुर मुखर होने लगे हैं. नए विधेयक के तहत गैरकानूनी गतिविधि में लिप्त व्यक्ति को दो से सात साल तक की जेल का प्रावधान है. उसमें गैरकानूनी गतिविधि की परिभाषा कोई ऐसा कृत्य है, जो किसी व्यक्ति या संगठन की ओर से किया गया हो. कुछ ऐसा लिखा या बोला गया हो, जिससे शांति भंग होने और कानून व्यवस्था के सुचारु रूप से संचालन में बाधा पहुंचने की आशंका हो, या फिर स्थापित संस्थाओं और उनके कर्मचारी को खतरा हो. तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा के बाद इस तरह का कानून बनाने वाला महाराष्ट्र पांचवां राज्य है.

राज्य के विपक्ष का कहना है कि कानून बन जाने के बाद इसका दुरुपयोग अपने राजनीतिक विरोधियों को दबाने के लिए किया जा सकता है. उसके अनुसार जब पहले से ही ‘मकोका’ और ‘यूएपीए’ जैसे सख्त कानून हैं तो फिर इस तरह का नया कानून बनाने की जरूरत क्यों आन पड़ी? यहीं से चुनौतियों का दौर आरंभ हो गया है.

सरकार को राजनेताओं की ओर से धमकी दी जा रही है कि वह नए कानून के अनुसार कार्रवाई करके तो देखे. इससे स्पष्ट है कि सरकारी सुरक्षा प्राप्त व्यक्तियों को भी कानूनी दायरे में आने की आशंका डरा रही है. किंतु वे यह समझने के लिए तैयार नहीं हैं कि सरकारी संरक्षण से मिली शक्ति अस्थाई भी हो सकती है.

किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में अन्याय, असहमति और अधिकारों के लिए लड़ाई सामान्य बात मानी जाती है. अन्याय के विरुद्ध सड़क से लेकर संसद और अदालत तक का संघर्ष उचित ठहराया जाता है. किंतु इनसे परे इन दिनों आरंभ छिपकर अराजकता को प्रोत्साहन देने की नई परिपाटी प्रशासनिक व्यवस्थाओं के लिए बाधा बन रही है.

राजनीतिक आंदोलन या सरकार के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन करने के छिपे उद्देश्य सामने आने लगे हैं, जिनसे नेताओं की ईमानदारी शक के दायरे में है. अधिकार की लड़ाई के नाम पर प्रायोजित आंदोलनों के अलग-अलग रूप सामने आने लगे हैं. नक्सलवाद जंगलों में रहा, लेकिन उसके पोषक तत्व शहरी क्षेत्रों में दिखाई दिए, जिससे समस्या से निपटने का तौर-तरीका बदलना पड़ा.

किंतु इसी विस्तार ने शहरी क्षेत्र में अराजक संघर्ष को सुर दिए हैं. नियम-कायदे से हट कर समूची व्यवस्था को लेकर असंतोष और अविश्वास को मजबूत बनाने की प्रक्रिया(टूल किट) तैयार की जाने लगी है. संघर्ष की दोहरी रूपरेखा तय की जाती है, जिसमें मूल उद्देश्य गौण हो जाता है. लेकिन स्वार्थ सिद्धि के प्रयास पूरे हो जाते हैं.

किसानों की बात हो, विद्यार्थियों से जुड़े विषय हों या फिर बेरोजगारी अथवा सामाजिक-सांस्कृतिक मामले, हर स्थान पर अपने अप्रत्यक्ष लक्ष्यों को पाने की तैयारी स्पष्ट रूप से समझ में आती है. कुछ स्थानों पर इस तरह की गतिविधियों में विदेशी समर्थन और आर्थिक सहयोग के प्रमाण भी सामने आए हैं. उन पर कानूनी कार्रवाई भी हुई है. फिर भी इस स्थिति से निपटने का कोई स्थाई समाधान नहीं मिला.

कुछ वर्ष पूर्व तक गैरसरकारी संगठन, चंद बुद्धिजीवी संगठन, सामाजिक संगठन धीरे-धीरे अपने लक्ष्यों को पाने की आस में आम लोगों को बरगलाने की कोशिश करते थे. किंतु अब उनका विस्तार राजनीतिक संगठनों तक हो चला है. केवल वामपंथी ही नहीं, बल्कि दक्षिणपंथी भी अपनी विचारधारा के आधार पर एक नई कुछ हद तक कुटिल सोच को विकसित कर रहे हैं.

दोनों ही अनेक राजनीतिक दलों को नई रसद पहुंचाकर अन्याय के नाम पर अविश्वास को प्रमुखता से सामने लाकर अपनी चाल में सफल हो रहे हैं. मजेदार यह खुराक मिलने के बाद सरकारी संरक्षण में बैठे नेता हुंकार भरने लगते हैं. वे यह नहीं समझते कि उनकी प्रायोजित सोच उसी सीमा तक जीवित रह सकती है, जब तक उन्हें सुरक्षा का घेरा मिला है.

जिसे दिया भी उसी ने है, जिससे मुकाबला करने की घोषणा की जा रही है. आमना-सामना तभी सही और निर्णायक संभव है, जब दो अलग-अलग पालों के बीच खेला जाए. दुर्भाग्य से सरकार को चुनौती देने वाले यह भूल रहे हैं कि सरकार के खिलाफ बोलने की उनकी क्षमता सरकारी संरक्षण से ही विकसित हुई है. वर्ना खुलेआम चुनौती देना उनके बस में नहीं होता.

विपक्ष का कहना है कि जन सुरक्षा कानून लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए खतरा है. मगर लोकतंत्र में नक्सली गतिविधियों की भी स्वीकार्यता नहीं है. यदि वे बढ़ती हैं तो उनको नियंत्रित करना आवश्यक है. सरकार कह रही है कि नए कानून का उपयोग राजनीतिक आंदोलनकारियों या सरकार के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन करने वालों के लिए नहीं होगा.

किंतु जनतांत्रिक व्यवस्था को नुकसान नहीं पहुंचाया जाना चाहिए. वास्तविकता यही है कि उपलब्धियों के अभाव में लगातार मिलती निराशा से पैदा होने वाली कुंठा नई घातक संस्कृति को जन्म दे रही है. यह विशेष रूप से राजनीति के नेतृत्व में विकसित हो रही है. पराजय, असफलता और संगठनात्मक कमी-कमजोरी के कई कारण हो सकते हैं, जिन्हें परिश्रम और सूक्ष्म अध्ययन के आधार पर तैयार समाधानों के जरिये दूर किया जा सकता है. अराजकता से कुछ सुर्खियां और चर्चाओं से अधिक कुछ नहीं मिल सकता है.

घृणा, द्वेष और हिंसा के आधार पर लक्ष्यों को पाने के प्रयास कभी-भी परिणामों तक नहीं पहुंच सकते हैं. अतीत में ऐसे प्रयोग असफल ही हुए हैं और भविष्य में भी उनके विफल होने की संभावना है. इसलिए सरकारी आश्रय में रहकर अपनी शक्ति प्रदर्शन का दुस्साहस नहीं किया जाना चाहिए.

यदि सरकार को भी सरकारी सुरक्षा में रहने वालों से चुनौती मिलती है तो उनके बारे में पुनर्विचार करना चाहिए. इस प्रकार की स्थिति लोकतंत्र के लिए घातक तो है ही, एक बड़े समाज को भटका कर निडरता के प्रदर्शन की भी है.  

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