कर्नाटक की मराठीभाषी जनता की भावनाओं का सम्मान किया जाए
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: December 28, 2022 02:36 PM2022-12-28T14:36:28+5:302022-12-28T14:37:03+5:30
पिछले सप्ताह कर्नाटक विधानसभा में भी सर्वानुमति से प्रस्ताव पारित कर यह संकल्प दोहराया गया था कि राज्य के जिन मराठीभाषी क्षेत्रों पर महाराष्ट्र अपना दावा जता रहा है, उसकी एक इंच जमीन भी पड़ोसी राज्य को नहीं दी जाएगी। दोनों राज्यों के बीच सीमा-विवाद 65 साल से भी ज्यादा पुराना है।
महाराष्ट्र विधानमंडल के दोनों सदनों ने मंगलवार को कर्नाटक के सीमावर्ती मराठीभाषी बहुल क्षेत्रों पर दावा जताते हुए सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर दिया। पिछले सप्ताह कर्नाटक विधानसभा में भी सर्वानुमति से प्रस्ताव पारित कर यह संकल्प दोहराया गया था कि राज्य के जिन मराठीभाषी क्षेत्रों पर महाराष्ट्र अपना दावा जता रहा है, उसकी एक इंच जमीन भी पड़ोसी राज्य को नहीं दी जाएगी। दोनों राज्यों के बीच सीमा-विवाद 65 साल से भी ज्यादा पुराना है। राज्य सरकार बेलगाम (बेलगावी), कारवाड, बीदर, निपानी के अलावा कर्नाटक के 862 गांवों के महाराष्ट्र में विलय की मांग कर रही है।
सीमा विवाद को हल करने के लिए महाजन आयोग का गठन किया गया। इस आयोग ने 55 साल पहले अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी जो कर्नाटक के पक्ष में थी। महाराष्ट्र सरकार ने आयोग की रिपोर्ट को खारिज कर दिया और कर्नाटक के मराठीभाषी इलाकों पर दावा जताती रही। कर्नाटक की मराठीभाषी जनता की इच्छा महाराष्ट्र में विलय की रही। महाराष्ट्र एकीकरण समिति कर्नाटक के मराठीभाषी बहुल इलाकों में बड़ी राजनीतिक ताकत मराठी भाषी जनता के समर्थन की बदौलत ही बन सकी। हालंकि बाद में कमजोर नेतृत्व के कारण समिति का जनाधार सिकुड़ता गया लेकिन कर्नाटक की मराठीभाषी जनता की भावनाएं पहले भी महाराष्ट्र के साथ थीं और अब भी हैं।
वैसे सच पूछा जाए तो महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद को राष्ट्रीय नजरिये से हल करने के बारे में कभी सोचा ही नहीं गया। महाराष्ट्र और कर्नाटक दोनों ही राज्यों के राजनीतिक दलों के लिए सीमा-विवाद चुनावी हथियार बनता रहा। इसे महज संयोग नहीं कहा जा सकता कि कर्नाटक की बोम्मई सरकार ने चुनाव के ठीक पहले इस विवाद को तूल दिया है। महाजन आयोग की रिपोर्ट पेश होने के बाद सत्तर के दशक में सीमा-विवाद ने हिंसक रूप धारण कर लिया था। उसके बाद विवाद तो खत्म नहीं हुआ, मगर हिंसा या तनाव की स्थिति लंबे समय से नहीं रही थी मगर दो महीने से फिर तनाव देखने को मिल रहा है। हिंसा की चिंगारियां कर्नाटक की तरफ से भड़क रही हैं जबकि महाराष्ट्र की जनता ने शांति तथा संयम का परिचय दिया है। सीमा-विवाद पर राष्ट्रीय दलों का नजरिया भी राज्यों के हिसाब से बदल जाता है। भाजपा, कांग्रेस तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस की महाराष्ट्र इकाइयां कर्नाटक के मराठीभाषी क्षेत्रों का महाराष्ट्र में विलय चाहती हैं, लेकिन कर्नाटक में इन्हीं पार्टियों के सुर कर्नाटक के पक्ष में उठने लगते हैं।
कर्नाटक में कुछ माह बाद विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। 2018 के चुनाव के बाद राज्य में सरकार कांग्रेस के नेतृत्व में बनी थी लेकिन पार्टी में बगावत के कारण सत्ता भाजपा के हाथों में आ गई। भाजपा और कांग्रेस दोनों की प्रतिष्ठा आगामी विधानसभा चुनाव में दांव पर लगी है। दोनों दलों के बीच कांटे की टक्कर है और ऐसे में कर्नाटक के मराठी बहुल क्षेत्रों की सीटें सत्ता की दौड़ में निर्णायक साबित हो सकती हैं। इसीलिए कर्नाटक की बोम्मई सरकार सीमा-विवाद को अनुचित ढंग से हवा दे रही है। महाराष्ट्र सरकार जहां कानूनी ढंग से कर्नाटक के मराठी भाषी क्षेत्रों को अपने हिस्से में लेना चाहती है, वहीं कर्नाटक सरकार आग में घी डालने का काम कर रही है।
कर्नाटक के मुख्यमंत्री के ट्विटर हैंडल से अनावश्यक टिप्पणियां कथित रूप से की जा रही हैं। हालांकि बोम्मई ने इन आरोपों का पुरजोर खंडन किया है। मंगलवार को महाराष्ट्र विधानमंडल के दोनों सदनों में सीमा-विवाद को लेकर सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव कर्नाटक के मराठीभाषी क्षेत्रों की जनता की भावनाओं को अभिव्यक्त करता है। प्रस्ताव में कानूनी रास्तों के उपयोग पर ही जोर दिया गया है। विवादों का निपटारा करने के लिए देश में कानूनों की कमी नहीं है और यदि बातचीत से समाधान न निकले तो कानून का सहारा लेने में कोई हर्ज नहीं है। महाराष्ट्र सरकार के प्रस्ताव में कर्नाटक की मराठीभाषी जनता की भावनाओं के अनुरूप विवाद के समाधान पर जोर दिया गया है। जहां कर्नाटक विधानसभा में पारित प्रस्ताव की भाषा बेहद कठोर है, वहीं महाराष्ट्र विधानमंडल में पारित प्रस्ताव की भाषा सौम्य मगर राज्य के मजबूत इरादों को दर्शाने वाली है। सीमा-विवाद पर टकराव दोनों राज्यों के हित में नहीं है। इस मामले पर अदालत का फैसला आने तक संयम बरतना बेहद जरूरी है।