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राजेश बादल का ब्लॉगः जीत कर भी नहीं जीत सकी भाजपा

By राजेश बादल | Updated: October 25, 2019 07:01 IST

महाराष्ट्र में भाजपा अपनी सहयोगी शिवसेना पर निर्भर रहेगी. बीते वर्षो में शिवसेना ने बहुत खून के घूंट पिए हैं. अब उद्धव ठाकरे के लिए भाजपा से यह कहने का अवसर है कि वे वही व्यवहार पसंद करेंगे, जो एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है.

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यह तो होना ही था. दोनों राज्यों में भाजपा के लिए लोकसभा चुनाव के बाद यह पहली बड़ी परीक्षा थी. कांग्रेस क्या हासिल करेगी, इसमें किसी की अधिक दिलचस्पी नहीं थी इसलिए परिणाम बहुत चौंकाने वाले नहीं कहे जा सकते. हरियाणा में मतदाताओं ने सत्ता की चाबी भाजपा को नहीं सौंपी है. सरकार बनाने के लिए उसे दुष्यंत चौटाला की मेहरबानी पर निर्भर रहना होगा और दुष्यंत साफ कह चुके हैं कि वे राज्य में बदलाव चाहते हैं.

इसी तरह महाराष्ट्र में भाजपा अपनी सहयोगी शिवसेना पर निर्भर रहेगी. बीते वर्षो में शिवसेना ने बहुत खून के घूंट पिए हैं. अब उद्धव ठाकरे के लिए भाजपा से यह कहने का अवसर है कि वे वही व्यवहार पसंद करेंगे, जो एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है.

असल में दोनों राज्यों में भाजपा ने अपना प्रचार अभियान एक सुविधाजनक आधार से शुरू किया था. यह आधार लोकसभा चुनाव की जीत का था. प्रादेशिक इकाइयों व क्षत्नपों की आदत अब राष्ट्रीय नेतृत्व और प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी के सहारे वैतरणी पार करने की हो गई है. काफी हद तक इसका फायदा मिला, लेकिन स्थानीय नेटवर्क और चेहरों के आभामंडल की उपेक्षा जायज नहीं है. 

इसमें संदेह नहीं कि महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस ने पांच साल तक अपनी छवि पर आंच नहीं आने दी है, मगर इस बार शिवसेना अलग अंदाज में नजर आ रही है. भाजपा के साथ रहते हुए भी वह आक्रामक तेवर अपनाएगी. परंपरा तोड़ते हुए ठाकरे परिवार अगर चुनाव मैदान में कूदा है तो इसका मतलब कोई परदे में नहीं छिपा है. जाहिर है अगले पांच बरस दोनों दलों के लिए बहुत आसान नहीं होंगे.

हरियाणा में तो स्लेट पर इबारत साफ लिखी थी. मुख्यमंत्नी मनोहरलाल खट्टर ने ख़ुद ही अपनी राह में कांटे बिछाए थे. पूरे पांच साल वे एक दंभी मुख्यमंत्नी बने रहे. दूसरी ओर कांग्रेस ने पिछले चुनाव में पटखनी खाई थी. उस पराजय के बाद पार्टी काफी समय तक सदमे से उबर नहीं सकी. इसका असर तैयारियों पर पड़ा. कामचलाऊ अध्यक्ष के तौर पर सोनिया गांधी ने कम समय में ही मुर्दा पड़ी पार्टी में जान फूंकने का काम किया है. 

दोनों प्रदेशों में कांग्रेस का प्रचार अभियान बिखरा-बिखरा और अव्यवस्थित रहा. शिखर नेता आधे-अधूरे मन से रैलियों में गए. राज्य सरकारों की विफलताओं का कोई लेखाजोखा तैयार नहीं था. लोकसभा की तरह इन चुनावों को पार्टी ने लिया होता तो शायद नतीजे कुछ और होते. यह भी पार्टी के लिए सबक है. अनमने ढंग से चुनाव लड़ने के बावजूद उनकी अंकसूची में अच्छे प्राप्तांक हैं. मगर ध्यान रखिए कि यह भाजपा की हार है. कांग्रेस की जीत नहीं.

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