वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग: एक्जिट पोल, अंदाजी घोड़े
By वेद प्रताप वैदिक | Published: May 21, 2019 07:06 AM2019-05-21T07:06:44+5:302019-05-21T07:06:44+5:30
चुनाव परिणाम के पहले दौड़ाए गए ये अंदाजी घोड़े कई बार मुंह के बल गिरे हैं. देश ने यह खेल 1971 और 1977 में भी देखा था और 2004 में अटलजी को और 2009 में मनमोहन सिंह को भी उल्टे परिणामों ने यही खेल दिखाया था.
एक्जिट पोल की खबरों ने विपक्षी दलों का दिल बैठा दिया है. एकाध को छोड़कर सभी कह रहे हैं कि दुबारा मोदी सरकार बनेगी. विपक्षी नेताओं को समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करें? लेकिन भाजपा गदगद है. यदि एक्जिट पोल की भविष्यवाणियां सत्य सिद्ध हो गईं तो भारत में एक मजबूत सरकार अगले पांच साल के लिए आएगी. लेकिन यह तो 23 मई को ही पता चलेगा.
अभी तो हमें यह भी जानना चाहिए कि ये एक्जिट पोल कितने सटीक हो सकते हैं.
चुनाव परिणाम के पहले दौड़ाए गए ये अंदाजी घोड़े कई बार मुंह के बल गिरे हैं. देश ने यह खेल 1971 और 1977 में भी देखा था और 2004 में अटलजी को और 2009 में मनमोहन सिंह को भी उल्टे परिणामों ने यही खेल दिखाया था. अपना वोट डालने के बाद जो वोटर बाहर आता है कि वह किसी अनजान आदमी को अपने गुप्त मतदान की सही जानकारी दे, यह जरूरी नहीं है.
यदि देश के 90 करोड़ मतदाताओं में से आठ-नौ लाख से बात करके अपने नतीजों का आप ढोल पीटने लगते हैं तो आपको कहां तक सही माना जा सकता है? एक प्रतिशत की राय को 100 प्रतिशत की राय कैसे मान सकते हैं? हर आदमी की अपनी पसंदगी और नापसंदगी होती है. इसके अलावा एक्जिट पोल करने वाले लोगों को आप बेहद ईमानदार और निष्पक्ष मान लें तो भी उनका अपना रुझान तो होता ही है. जब ठोस तथ्य सामने न हों और आपके अंदाजी घोड़े दौड़ने हों तो वह रुझान आपके नतीजों पर हावी हो सकता है. इसीलिए कोई जिसे 350 सीटें देता है, उसे कोई और 150 में ही निपटा देता है. ऐसी स्थिति में एक्जिट पोल के नतीजों को दिल से लगा बैठना ठीक नहीं है. बहुत सुखी और बहुत दुखी होना ठीक नहीं है.
फिर भी एक्जिट पोल और चुनाव के पहले होनेवाले सर्वेक्षणों को आप एकदम अछूत भी घोषित नहीं कर सकते हैं. यह एक अनिवार्य मानवीय कमजोरी है. मतदान के बारे में यह रहस्य हमेशा बना रहेगा, क्योंकि उसका गुप्त रहना बेहद जरूरी है. चुनाव के पहले तरह-तरह की दर्जनों भविष्यवाणियां होती हैं. कई बार तीर फिसल जाता है और तुक्का निशाने पर बैठ जाता है.