संतोष देसाई का ब्लॉग: चुनाव और मतदाताओं की दुविधा
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: April 6, 2019 10:33 AM2019-04-06T10:33:46+5:302019-04-06T10:33:46+5:30
संदेह करना हमारे लोकतंत्र की एक प्रमुख विशेषता है और मतदान में इसका हाथ होता है. प्रत्येक व्यक्ति अगर अपनी पहले से तय भूमिका के अनुसार चले तो चुनाव नतीजों की आसानी से भविष्यवाणी की जा सकती है.
आगामी लोकसभा चुनाव में किसको मत देना है, अनेक लोग यह तय कर चुके होंगे. जिन्होंने भाजपा को वोट देने का मन बनाया होगा, उनके पास इसके लिए अनेक कारण हो सकते हैं. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व पर विश्वास, हिंदुओं के एकजुट होने की जरूरत महसूस करना, यह विश्वास कि मोदी देश की अर्थव्यवस्था में आमूल परिवर्तन ला सकते हैं, पहले कार्यकाल में आशा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाने के बावजूद उपलब्ध विकल्पों में मोद ही सबसे बेहतर हैं- जैसे कारण इसके पक्ष में गिनाए जा सकते हैं.
दूसरी तरफ विरोध में मतदान करने वाले भी अपने पक्ष में अनेक कारण गिना सकते हैं, जैसे सत्तारूढ़ दल देश के मूल स्वरूप को नष्ट कर रहा है, देश की संवैधानिक संस्थाओं को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की जा रही है, चुनाव पूर्व किए गए वादे सरकार ने पूरे नहीं किए हैं, बेरोजगारी बढ़ी है, किसानों की हालत खराब हुई है, नोटबंदी और जीएसटी से लोगों को परेशानी हुई है आदि.
लेकिन इन दो पक्षों के अलावा ऐसे भी कई लोग हैं जो दुविधा की मनोस्थिति में हैं. वे वर्तमान सरकार से भी निराश हैं और उसका ठोस विकल्प भी उन्हें दिखाई नहीं दे रहा है. एक पक्ष के खिलाफ मतदान करने का अर्थ है दूसरे के पक्ष में वोट देना (अन्यथा नोटा का ही विकल्प बचता है) और यह समस्या बहुतेरे लोगों की है. उन्हें अपने सामने मजबूरी ज्यादा बुरे और कम बुरे के बीच चुनाव करने की लगती है.
संदेह करना हमारे लोकतंत्र की एक प्रमुख विशेषता है और मतदान में इसका हाथ होता है. प्रत्येक व्यक्ति अगर अपनी पहले से तय भूमिका के अनुसार चले तो चुनाव नतीजों की आसानी से भविष्यवाणी की जा सकती है. लेकिन जब इस तरह से फैसला न हो सके तो अधिक बुनियादी प्रश्नों की ओर लौटना आवश्यक हो जाता है. ऐसे में जिस नेता को हम चुनते हैं, यह ध्यान देना जरूर हो जाता है कि वह किन मूल्यों वाली पार्टी का पक्षधर है. जब संदेह हो तब किसे चुनना है, इसके बजाय शायद इस पर ध्यान देना ज्यादा जरूरी हो जाता है कि किसे बाहर रखना है!