ब्लॉग: अविश्वास और आत्मविश्वास के बीच खड़े दल

By Amitabh Shrivastava | Published: March 16, 2024 07:58 AM2024-03-16T07:58:14+5:302024-03-16T07:59:54+5:30

पिछले चुनाव के हिसाब से भाजपा ने 27.8 प्रतिशत मत हासिल किए थे, जबकि शिवसेना ने 23.5 प्रतिशत वोट लिए थे. इसी प्रकार गठबंधन में कांग्रेस ने 16.4 प्रतिशत और राकांपा ने 15.6 प्रतिशत मत प्राप्त किए थे। वंचित बहुजन आघाड़ी 6.98 प्रतिशत और स्वाभिमान पक्ष 1.55 प्रतिशत मत हासिल कर सके थे।

Lok Sabha election 2024 Parties standing between distrust and confidence bjp congress ncp | ब्लॉग: अविश्वास और आत्मविश्वास के बीच खड़े दल

(प्रतीकात्मक तस्वीर)

Highlightsघोषणा के समय के नजदीक आते ही राजनीतिक दलों ने संयम तोड़ना आरंभ कर दिया हैदलों ने मंचों और बैठकों से अपने उम्मीदवार घोषित करने आरंभ कर दिए हैंयह नौबत इसलिए भी है कि हर गठबंधन टूट-फूट से बना है

लोकसभा चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के समय के नजदीक आते ही राजनीतिक दलों ने संयम तोड़ना आरंभ कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने तो सीटों के बंटवारे के पहले विधिवत अपने उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी है, जबकि शरद पवार नीत राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) हो या फिर उद्धव ठाकरे नीत शिवसेना, दोनों दलों ने मंचों और बैठकों से अपने उम्मीदवार घोषित करने आरंभ कर दिए हैं। यह सिद्ध करता है कि गठबंधन चाहे किसी भी दल के साथ हो, पहले अपनी चिंता का मंत्र सर्वोपरि है। यह नौबत इसलिए भी है कि हर गठबंधन टूट-फूट से बना है। उसमें जितनी बाहरी मजबूती है, उतना ही भीतरी खोखलापन भी है। उनमें जितना आपसी भरोसा है, उतने ही एक-दूसरे के साथ शक और सवाल भी हैं।

पिछले कुछ दिनों से शिवसेना उद्धव गुट के नेता उद्धव ठाकरे अपनी जनसभाओं और मेल-मुलाकात के बाद लोकसभा चुनाव के प्रत्याशियों की घोषणा करते जा रहे है, जिससे उनके गठबंधन के सहयोगी दलों में बेचैनी है किंतु वह बेपरवाह हैं। ठीक इसी तरह महाराष्ट्र में महाविकास आघाड़ी के दूसरे घटक राकांपा ने अपने दो उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। किंतु दोनों के तेज चलने पर गठबंधन का तीसरा घटक कांग्रेस परेशान है। हालांकि तीनों दलों के बीच अभी तक औपचारिक गठबंधन की घोषणा भी नहीं हुई है। साथ ही लंबे समय से प्रतीक्षारत वंचित बहुजन आघाड़ी को साथ लेने पर कोई ठोस निर्णय नहीं हुआ है। फिर भी छत्रपति संभाजीनगर में वंचित बहुजन आघाड़ी के नेता प्रकाश आंबेडकर औरंगाबाद लोकसभा सीट पर अपना दावा ठोंकते हैं, जबकि उनके दावे के एक दिन पहले ही शिवसेना (उद्धव ठाकरे) के संभावित उम्मीदवार पूर्व सांसद चंद्रकांत खैरे अपने चुनाव प्रचार कार्यालय का भूमिपूजन करते हैं।

दूसरी तरफ भाजपा ने अपने 20 अधिकृत उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं, लेकिन शिवसेना (शिंदे गुट) के साथ तालमेल की घोषणा नहीं हुई है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के औरंगाबाद लोकसभा सीट के रूप में एक कमल का फूल भेजने की अपील के बावजूद शिवसेना (शिंदे गुट) के नेता और छत्रपति संभाजीनगर जिले के पालक मंत्री संदीपान भुमरे पहले सीट छोड़ने की बात करते हैं और कुछ ही दिन में उनके ही एक नेता भुमरे के ही औरंगाबाद से चुनाव लड़ने की संभावना को जता देते हैं। दोनों के अलावा महागठबंधन में राकांपा के अजित पवार गुट की महत्वाकांक्षा हिलोरें ले रही है। वह समझौते की मन:स्थिति में नहीं हैं। भाजपा तीस से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने की इच्छा व्यक्त कर रही है, जबकि बीस उम्मीदवार घोषित हो चुके हैं। पिछली बार 2019 के लोकसभा चुनाव में राकांपा ने 19 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए चार सीटें जीती थीं। तब वह कांग्रेस के साथ गठबंधन में थी। इसी प्रकार शिवसेना ने भाजपा के साथ तालमेल कर 23 सीटों पर चुनाव लड़कर 18 पर विजय पाई थी। वहीं भाजपा 25 सीटों पर चुनाव लड़कर 23 सीटें जीत गई थी। इस हिसाब से भाजपा ‘स्ट्राइक रेट’ अच्छा मानकर अधिकतम सीटों पर लड़ना चाह रही है, जबकि बाकी दल जीत से ज्यादा पिछले चुनाव में लड़ी सीटों के आधार से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं हैं।

पिछले चुनाव के हिसाब से भाजपा ने 27.8 प्रतिशत मत हासिल किए थे, जबकि शिवसेना ने 23.5 प्रतिशत वोट लिए थे. इसी प्रकार गठबंधन में कांग्रेस ने 16.4 प्रतिशत और राकांपा ने 15.6 प्रतिशत मत प्राप्त किए थे। वंचित बहुजन आघाड़ी 6.98 प्रतिशत और स्वाभिमान पक्ष 1.55 प्रतिशत मत हासिल कर सके थे। यद्यपि ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने एक सीट जीती, किंतु उसे 0.72 प्रतिशत मत ही मिले थे। बहुजन समाज पार्टी (0.86 प्रतिशत) और बहुजन विकास आघाड़ी (0.91 प्रतिशत) जैसे कुछ दल सीटें नहीं जीतने के बावजूद मत पाने में सफल थे। अब भाजपा और कांग्रेस को छोड़ सभी दलों में बिखराव की स्थिति है। चुनाव के पहले मतदाताओं की प्रतिबद्धता पर भरोसा करना किसी भी दल के लिए संभव नहीं हो पा रहा है। इसी के बीच हर दल का अपना आकलन और अपनी तैयारी है। यहीं दूसरों के प्रति अविश्वास और स्वयं के प्रति आत्मविश्वास जन्म ले रहा है। खास तौर पर टूटने के बाद बिखरे दलों के बीच आत्मविश्वास दिखाना भी एक मजबूरी है, क्योंकि उसके सहारे ही मतदाता का विश्वास जीता जा सकता है। किंतु इस दिखावे में मजबूरी यह कि पिछली बार 23 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली शिवसेना और 19 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली राकांपा के पास नए गठबंधन में इस बार आधी सीटें भी लड़ने का अवसर नहीं है, जिससे उन्हें अपनी घटती राजनीतिक हैसियत का अहसास हो रहा है। यदि यह बात मतदाता के मन में घर कर गई तो यही नहीं, अगले विधानसभा चुनाव में भी मजबूरी में ही चुनाव लड़ना होगा. इसलिए जरूरी यही है कि अभी से मोल-तोल में कम या कमजोर न रहा जाए।

दरअसल चुनाव की बिसात पर आकांक्षा, महत्वाकांक्षा, विश्वास और अविश्वास से अधिक जीत के आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है। नए दौर में इसे अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए राजनीतिक दलों ने सर्वेक्षणों का भी सहारा लेना आरंभ कर दिया है। इस स्थिति में परस्पर मुकाबलों की अधिक गुंजाइश नहीं रह जाती है। वास्तविकता के धरातल पर चल कर चुनाव लड़ने का फैसला किया जा सकता है। ‘अबकी बार चार सौ पार’ का चक्कर हो या फिर दल के टूटने के बाद की असलियत साबित करने का मौका हो, मतदाता के मन में दल और उम्मीदवार के प्रति स्पष्टता होती ही है। इसके लिए सार्वजनिक प्रपंच से अधिक जरूरी चुनाव की ठोस तैयारी है, जिसे किसी पर अविश्वास और स्वयं पर आत्मविश्वास के साथ नहीं जीता जा सकता है। शायद देर-सबेर राजनीतिक दलों को यह बात समझ में आएगी। फिलहाल निष्ठा और प्रतिष्ठा के संघर्ष में इस बात पर ध्यान देने का समय शायद न मिले।

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