ब्लॉग: चुनावी आचार संहिता सिर्फ दिखावे की चीज नहीं
By राजेश बादल | Published: October 11, 2023 11:01 AM2023-10-11T11:01:20+5:302023-10-11T11:01:54+5:30
किसी राजनीतिक दल का पंजीकरण करने के लिए धारा 29-क के तहत यह शपथ लेना जरूरी है कि वह दल धर्मनिरपेक्ष है।
चुनाव दर चुनाव प्रचार अमर्यादित और अभद्र हो रहा है। भाषा अश्लीलता की सीमा रेखा को पार कर चुकी है। वे सारे हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, जो किसी जमाने में गंदे और घिनौने माने जाते थे।
किसी एक राजनीतिक दल को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। कमोबेश सभी पार्टियां नैतिकता के सारे मापदंडों को भुला चुकी हैं। पांच प्रदेशों की विधानसभा के चुनाव चूंकि अगले साल लोकसभा निर्वाचन से ठीक पहले होने वाले चुनाव हैं, इसलिए दोनों शिखर पार्टियां तथा क्षेत्रीय दल अभी नहीं तो कभी नहीं वाले अंदाज में आमने-सामने हैं।
ऐसे में उनको नियंत्रित करने के लिए एक ही उपाय बचता है। यह उपाय आचार संहिता पर सख्ती से अमल होना है। एक जमाने में इसी आचार संहिता के सहारे मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन ने चुनाव के दरम्यान फैलने वाली सारी बीमारियों को ठीक कर दिया था। सारा देश आज तक उनको इस उपलब्धि के लिए याद करता है कि उन्होंने इस देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की परंपरा को पुनर्स्थापित किया।
तो फिर वही स्थिति लाने में बाधा कहां है? क्या हम सचमुच ईमानदारी से नहीं चाहते कि हमारे नुमाइंदे एक पारदर्शी और दोषरहित प्रणाली के जरिए चुने जाएं या फिर हमने मान लिया है कि यह राष्ट्र अब ऐसे ही चलेगा। यदि दोनों बातें भी सच हैं तो यह बहुत स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा नहीं है। हमारे संविधान को रचने वाले पूर्वज आज होते तो निश्चित रूप से पीड़ित होते।
जब हम आचार संहिता की बात करते हैं तो स्वीकार करने में हिचक नहीं है कि वर्तमान आचार संहिता का कोई वैधानिक आधार नहीं है। केरल विधानसभा के चुनाव में 1960 में सबसे पहले आचार संहिता को अमल में लाया गया। चुनाव आयोग ने 1962 के चुनाव में पहली बार लोकसभा चुनाव में इससे सभी राजनीतिक दलों को परिचित कराया। सारे दलों ने इसका पालन किया. इसके बाद सभी दलों के साथ आयोग की बैठकें हुईं।
इनमें दलों ने आचार संहिता का पालन करने का वादा किया। पांच बार इसमें आंशिक संशोधन हुए और 1991 में टी. एन. शेषन के कार्यकाल में मौजूदा आचार संहिता को मंजूर किया गया। इसमें पहली बार जाति और धर्म के आधार पर प्रचार पर पाबंदी लगाई गई थी। इसका परिणाम भी देश ने 1996 के चुनाव में देखा था।
कोई कानूनी बाध्यता नहीं होते हुए भी मुख्य चुनाव आयुक्त ने कठोरता से आचार संहिता का पालन करवाया। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मौजूदा आचार संहिता को न्यायिक मान्यता दी है लेकिन जब भी इसे वैधानिक रूप देने की बात उठी ,चुनाव आयोग ने ही इसका विरोध किया।
उसका तर्क है कि 45 दिनों में ही पूरी चुनाव प्रक्रिया संपन्न करानी होती है। अगर आचार संहिता को वैधानिक रूप दिया गया तो अदालतों में मामले लटक जाएंगे। इससे समूची निर्वाचन प्रक्रिया में बाधा पहुंचेगी।
चुनाव आयोग के इस मासूम तर्क ने मुल्क की निर्वाचन प्रणाली का बड़ा नुकसान किया है। दस साल पहले 2013 में एक समिति ने आचार संहिता को कानूनी रूप देने का सुझाव दिया था। इस संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि आचार संहिता के ज्यादातर प्रावधान कानूनों के माध्यम से लागू कर दिए जाने चाहिए।
समिति ने यह सुझाव भी दिया था कि आचार संहिता को रिप्रजेंटेशन ऑफ पीपुल एक्ट, 1951 का हिस्सा बनाया जाना चाहिए पर उन सिफारिशों को ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया गया।
आमतौर पर आचार संहिता लगने के बाद नए सरकारी कार्यक्रमों और घोषणाओं की घोषणा रोक दी जाती है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि आचार संहिता के पहले राजनेता ऐसे वादे करें जो कभी पूरे ही नहीं हो सकते हों। मसलन एक प्रदेश के मुख्यमंत्री और उनकी पार्टी तथा मंत्रियों ने बीते दो-तीन महीनों में एक लाख करोड़ रुपए से भी अधिक की योजनाएं घोषित कर डालीं। एक वरिष्ठ अधिकारी का अनुमान है कि इन घोषणाओं को पूरा करने के लिए कम से कम पच्चीस साल चाहिए।
विडंबना यह है कि इसी प्रदेश के पास अपने नियमित खर्चों के लिए पैसा नहीं है और वह दस महीने से लगभग हर महीने तीन से चार हजार करोड़ रुपए कर्ज ले रहा है. इसी राज्य के मुख्यमंत्री ने प्रदेश की करीब सवा करोड़ महिलाओं को हर महीने उनके खाते में पहले हजार रुपए और बाद में उसे बढ़ाकर 1250 रुपए बढ़ाकर डालने शुरू किए हैं। बिना श्रम के धन देने की यह प्रक्रिया क्या अनैतिक नहीं मानी जाएगी?
इसी तरह जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 के भाग 7 ‘भ्रष्ट आचरण और निर्वाचन अपराध’ की धारा 125 साफ साफ कहती है कि चुनाव के दौरान लोगों के बीच धर्म के आधार पर शत्रुता या घृणा की भावनाएं भड़काने वाले को तीन साल की कैद और जुर्माने से दंडित किया जा सकता है। विडंबना है कि यह धारा किसी राजनीतिक दल के खिलाफ चुप्पी साधे हुए है।
यानी किसी दल का कोई उम्मीदवार प्रचार के दौरान हिंदू-मुस्लिम समुदाय को आपस में भड़काने या दोनों समुदायों में शत्रुता पैदा करने वाला प्रचार करता है तो उसके विरुद्ध अपराध दर्ज हो सकता है लेकिन उस दल के खिलाफ किसी कार्रवाई का अधिकार चुनाव आयोग को नहीं है।
सन् 2014 में भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय ने आम चुनाव पर एक प्रामाणिक ग्रंथ प्रकाशित किया। इसमें जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की चुनाव से जुड़ी सारी धाराओं का उल्लेख है, लेकिन भाग 7 की धारा 125 का कहीं कोई जिक्र नहीं।
विडंबना यह है कि किसी राजनीतिक दल का पंजीकरण करने के लिए धारा 29-क के तहत यह शपथ लेना जरूरी है कि वह दल धर्मनिरपेक्ष है। अब अगर कोई दल बाद में धर्मनिरपेक्ष न भी रहे तो भी उसकी मान्यता आयोग निरस्त नहीं कर सकता क्योंकि मान्यता निरस्त करने का आधार निर्धारित मतों का प्रतिशत हासिल करना है, धर्मनिरपेक्षता की शपथ तोड़ना नहीं।