ब्लॉग: महत्वाकांक्षा और मजबूरी के बीच मुकाबला!
By Amitabh Shrivastava | Published: March 9, 2024 09:56 AM2024-03-09T09:56:49+5:302024-03-09T09:58:15+5:30
अलग हुआ शिवसेना का शिंदे गुट चालीस से अधिक विधायकों को अपने साथ रखता है, जबकि 12 सांसद उस गुट में हैं। इसलिए यदि भाजपा 35 सीटों पर चुनाव लड़ती है तो सभी को दोबारा टिकट मिलने की संभावना बहुत कम है।
जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव का समय समीप आता जा रहा है, वैसे-वैसे भारतीय जनता पार्टी अपने ‘अबकी बार चार सौ के पार’ के सपने को साकार करने में जुटती जा रही है। इस इरादे में उसे सिर्फ जीत के समीकरण ही दिखाई दे रहे हैं और उसे पराजय का किसी भी कीमत पर खतरा मोल नहीं लेना है। वहीं दूसरी ओर महाराष्ट्र के उसके सहयोगी और अन्य दल भाजपा की आकांक्षा को लेकर कहीं न कहीं असहज महसूस करने लगे हैं। हालत यह है कि दूसरे दलों को उनकी सीमाओं का अहसास करा कर जिद छोड़ने तक बात कहने में कोई चूक नहीं रहा है।
चुनावी राजनीति पर नजर रखने वाले यह अच्छी तरह से जानते हैं कि महाराष्ट्र में भाजपा का सफर शून्य से आरंभ हुआ था। पहली बार उसने 20 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए किसी भी सीट पर विजय पाने में सफलता हासिल नहीं की थी। उसके बाद वर्ष 1989 में 33 सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद 10 सीटों पर सफलता मिली। मगर वर्ष 1991 में कांग्रेस की वापसी के समय वह 31 सीटों पर चुनाव लड़कर पांच सीटों पर सिमट गई।
वर्ष 1996 में 25 सीटों पर चुनाव लड़ने पर उसे 18 सीटें मिलीं। मगर वर्ष 1998 में 25 सीटों पर मुकाबले में उतरते हुए चार सीटों पर बात खत्म हो गई। वर्ष 1999 में 26 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए 13 स्थानों पर जीत मिली, जबकि वर्ष 2009 में 25 स्थानों पर चुनाव लड़कर नौ स्थानों पर विजय मिली। बाद में वर्ष 2014 और 2019 में क्रमश: 24 और 25 सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद जीत 23-23 सीटों पर मिली, जो पार्टी की सर्वश्रेष्ठ स्थिति थी। किंतु यह शिवसेना के साथ गठबंधन पर ही मिली विजय थी। अब 2024 में भाजपा का अपने सहयोगियों के साथ लक्ष्य 45 सीटें जीतने का है, जिसमें से वह 35 सीटें खुद लड़ने का इरादा रखती है। यह आकांक्षा देश में उसके प्रति बने सकारात्मक माहौल के कारण है, किंतु वर्तमान में वह एक नए गठबंधन में है, जिसमें उसके साथ टूटी हुई शिवसेना और राकांपा है, जिनका जन्म स्वयं को सिद्ध करने के लक्ष्य के साथ ही हुआ है। यदि 35 सीटें अपने पास रखने के बाद भाजपा 13 सीटें अपने सहयोगियों को देती है तो उनके पास कोई बड़ा आंकड़ा नहीं होगा।
अलग हुआ शिवसेना का शिंदे गुट चालीस से अधिक विधायकों को अपने साथ रखता है, जबकि 12 सांसद उस गुट में हैं। इसलिए यदि भाजपा 35 सीटों पर चुनाव लड़ती है तो सभी को दोबारा टिकट मिलने की संभावना बहुत कम है। इसी प्रकार राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(राकांपा) के पास 41 विधायक हैं और दो सांसद है। यदि भाजपा के आंकड़े के हिसाब से उन्हें मौका मिलता है तो वह महज दिखावा होगा। बावजूद इसके कि वर्तमान लोकसभा में भाजपा के 23 सांसद हैं, उसकी दावेदारी 35 सीटों के लिए है। हालांकि इतिहास के सापेक्ष उसकी महत्वाकांक्षा व्यावहारिक नजर नहीं आती है। किंतु देश में चार सौ के पार का नारा देने के बाद बड़े राज्यों से ही अधिक सीटों की अपेक्षा की जा सकती है, जिसमें महाराष्ट्र दूसरे नंबर पर आता है।
भाजपा यदि अपनी लड़ाई 35 तक ले जाती है और उसके सहयोगियों को कम सीटें ही मिलती हैं तो भविष्य में उन्हें अपनी सीमाओं को समझना होगा और हर मोर्चे पर भाजपा को बड़े भाई की भूमिका में स्वीकार करना होगा। वर्तमान में भाजपा के सहयोग से चालीस से अधिक विधायक होने के बावजूद शिवसेना शिंदे गुट का राज्य में मुख्यमंत्री है। इसी प्रकार चालीस से ही कुछ अधिक विधायकों के साथ राकांपा अजित पवार गुट का राज्य सरकार में उपमुख्यमंत्री है। यदि दोनों गुटों की महत्वाकांक्षा को देखा जाए तो दोनों अपने नेताओं को भविष्य में मुख्यमंत्री के रूप में ही देखना चाहते हैं। यदि वर्तमान स्थिति में समझौता कर भी लिया जाता है तो भविष्य सुनहरा होगा, इस बात की भी गारंटी कहीं से मिल नहीं रही है। इसलिए समझौते के लिए कितना मोलभाव किया जाए, इसका अनुमान लगाना भी आसान नहीं है।
अब नाउम्मीद और उम्मीद के दौर में महत्वकांक्षा तथा मजबूरी के बीच संघर्ष की बिसात तैयार हो रही है। इस पर जीत-हार के मायने केवल एक चुनाव तक सीमित नहीं होंगे। इनसे महाराष्ट्र में भविष्य की राजनीति की दिशा तय होगी। राज्य में राजनीतिक दलों का इतना बड़ा बिखराव पहले कभी नहीं दिखाई दिया। यदि दल अलग-अलग हुए भी तो चुनाव तक उनमें कोई समझौता-सहमति बनी। इस बार संघर्ष आमने-सामने का है. अवसर विजय के बाद स्वयं को सिद्ध करने का है। किंतु भाजपा को छोड़ सभी दलों के पास संकट एक समान सा है। टूटे दलों के पास दोबारा नए संगठन को मजबूती से खड़ा करते हुए चुनावी मैदान को संभालने की चुनौती है तो दूसरी ओर उनके मूल संगठन में कोशिश निष्ठा के नाम पर मतदाताओं की सहानुभूति बटोरने की है। दोनों ही स्थितियों में विश्वास का संकट है। ऐन वक्त पर आवाजाही की चिंता है। नए संगठन के गठन की जमीनी मजबूरियां हैं। इस सब पर भाजपा का अपनी महत्वकांक्षा को पूरा करने के लिए हर तरह का दबाव है।
फिलहाल यह तय है कि महाराष्ट्र में पांचों दलों के सामने चिंताएं एक समान हैं। भाजपा अपना लक्ष्य पाना चाहती है तो शिवसेना के दोनों भाग अपनी प्रतिष्ठा को सिद्ध करने की तैयारी में हैं। राकांपा के दोनों घटकों के समक्ष परिवार की असली पहचान का संकट है। वे अतीत से भविष्य का सफर तय कर रहे हैं। इन पांचों के बीच अतिरिक्त कड़ी में कांग्रेस है, जिसका भविष्य अब दूसरों के हाथों में चला गया। कुल जमा लोकसभा चुनाव के मुहाने पर महाराष्ट्र में सब कुछ नया और अलग ही देखा जाएगा। दल चाहे कोई भी हो, अपनी कहानी लिखने में असहज ही नजर आएगा।