अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: भारतीय मतदाता जोश में वोट देंगे या होश में?

By अभय कुमार दुबे | Published: March 6, 2019 08:46 AM2019-03-06T08:46:20+5:302019-03-06T08:47:06+5:30

कांग्रेस और भाजपा के रवैये में यही फर्क है। भाजपा ने चुनाव से पहले कुछ भी किया हो, लेकिन चुनाव के ठीक पहले वह विनम्र होकर हर किस्म के गठजोड़ के मूड में है, बावजूद इसके कि उसका पलड़ा पहले से भारी है।

Lok Sabha election 2019: voter will use voting rights properly | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: भारतीय मतदाता जोश में वोट देंगे या होश में?

प्रतीकात्मक तस्वीर

पुलवामा के राजनीतिक असर के बारे में अभी तक मोटे तौर पर तीन तरह के मत सामने आए हैं। पहला : पूरा उत्तर भारत (दक्षिण भारत में कम) इस समय जोश से भरा हुआ है कि हमारी वायु सेना ने पाकिस्तान को घुस कर मारा है इसलिए इसका पूरा श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को मिलेगा। यानी यह मुद्दा बाकी सारे मुद्दों पर हावी हो जाएगा, और मोदी के लिए चुनाव जीतना बाएं हाथ का खेल होगा। 

दूसरा : इस तरह का माहौल लगातार नहीं चलते रह सकता। दस-बारह दिन में जैसे ही माहौल ठंडा होगा, पुरानी राजनीति लौट आएगी और लोग वही सवाल पूछना शुरू कर देंगे जो वे पुलवामा से पहले पूछ रहे थे कि रोजगार कहां है, कालेधन का क्या हुआ और अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट का जिम्मेदार कौन है। यानी पुलवामा और बालाकोट की घटनाएं रहेंगी, लेकिन वोटरों के दिमाग में उन्हें इस समय मिलने वाली प्राथमिकता लंबी नहीं टिकेगी। 

तीसरा : पुलवामा के उपरांत हुए घटनाक्रम का मिला-जुला असर होगा। केवल इसके दम पर चुनाव जीतने की गारंटी नहीं की जा सकती, लेकिन वोटर इसके कारण मोदी सरकार को कुछ न कुछ शाबासी जरूर देंगे। सत्तारूढ़ दल चाहेगा कि इसी तरह का माहौल बना रहे, लेकिन उसने मामले को ज्यादा खींचा तो वोटर मान सकते हैं कि सरकार नाजायज फायदा उठाने की कोशिश कर रही है। 

अगर इन तीनों मतों का बारीक अर्थ-निरूपण किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि पुलवामा ने मोदी की चिंताओं को एक हद तक दूर जरूर किया है। लेकिन, मोदी एक चतुर नेता हैं और वे यह अवश्य समझते होंगे कि केवल राष्ट्रवादी जोश के दम पर वे चुनावी वैतरणी को पार नहीं कर सकते, क्योंकि दक्षिण भारत और उत्तर-पूर्व पर पाकिस्तान विरोधी प्रतिक्रिया का इतना अधिक असर नहीं है। दरअसल यह उत्तर, मध्य और पश्चिमी भारत की ही विशिष्ट परिघटना है। यही मोदी और भाजपा का प्रभाव-क्षेत्र है, और इसी क्षेत्र में उन्हें विपक्ष की भाजपा विरोधी मोर्चाबंदी का सामना करना पड़ रहा है। यह मान लेना कि केवल पुलवामा के दम पर वे उत्तर प्रदेश में अपने खिलाफ हुए गठजोड़ को परास्त करके 2014 वाला परिणाम निकाल लेंगे, एक खुशफहमी ही होगी। ध्यान रहे कि समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल का जनाधार बहुत दिनों से इस तरह के राजनीतिक गठजोड़ के लिए अपने राजनीतिक प्रतिनिधियों पर दबाव बना रहा था। हां, इतना कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य में एक से दो फीसदी के बीच के ‘फ्लोटिंग वोटर’ पर पुलवामा और बालाकोट का असर पड़ सकता है और वे निर्णायक रूप से मोदी के पक्ष में झुक सकते हैं। 

पुलवामा की घटना के बाद बने मोदी समर्थक माहौल ने एक काम और किया है। कुछ-कुछ ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस अपनी गठजोड़ राजनीति पर इसके प्रभाव में नए सिरे से सोचने लगी है। इससे पहले हालत यह थी कि कांग्रेस के दफ्तर में एक तरह के अति-आत्मविश्वास का माहौल बन गया था। कांग्रेसजन सोचने लगे थे कि अगला चुनाव जीतना बहुत मुश्किल नहीं है। चूंकि नई परिस्थितियों ने उनके इस यकीन को हिला दिया है इसलिए अब वे उ।प्र। और दिल्ली जैसी जगहों पर नए सिरे से गठजोड़ की संभावनाओं को टटोलने लगे हैं। पहले तो उन्होंने सौदेबाजी के दरवाजे तक बंद कर दिए थे। अब फिर से सभी चैनल खोल दिए गए हैं। 

दरअसल, कांग्रेस और भाजपा के रवैये में यही फर्क है। भाजपा ने चुनाव से पहले कुछ भी किया हो, लेकिन चुनाव के ठीक पहले वह विनम्र होकर हर किस्म के गठजोड़ के मूड में है, बावजूद इसके कि उसका पलड़ा पहले से भारी है। जिस तरह भाजपा ने बिहार में अपने खाते से लोकसभा की सीटें देकर और राज्यसभा की एक सीट देकर गठजोड़ को अंजाम दिया है, वह उसके लचीले रवैये का सबूत है। इसी तरह महाराष्ट्र में शिवसेना से लगातार गालियां खाने के बावजूद जिस तरह से भाजपा ने गठजोड़ बनाया है, उससे कांग्रेस चाहे तो सबक ले सकती है। दिल्ली में कांग्रेस का तर्क यही तो है कि आम आदमी पार्टी ने उसे बहुत गालियां दी हैं। लेकिन अगर चुनाव जीतने के लिए भाजपा शिवसेना की गालियां भूल सकती है तो कांग्रेस आम आदमी पार्टी की गालियां क्यों नहीं भूल सकती? 

इतिहास बताता है कि मुंबई पर हुए आतंकी हमले की प्रतिक्रिया में भारत की तरफ से कोई सैनिक कार्रवाई न किए जाने के बावजूद कांग्रेस ने 2009 के चुनाव में बेहतरीन जीत हासिल कर ली थी। इतिहास यह भी बताता है कि कारगिल युद्ध की सफलताओं के कारण अटल बिहारी वाजपेयी को चुनावी लाभ जरूर हुआ था लेकिन काफी कम। राजग की केवल सोलह सीटें बढ़ी थीं। लेकिन, दूसरी तरफ यह भी सच्चाई है कि उन चुनावों के समय राजनीति का इतना मीडियाकरण नहीं हुआ था, और न ही तत्कालीन भाजपा में इतनी आक्रामकता थी। आज की भाजपा मीडियाछाप देशभक्ति की मदद से इस परिस्थिति का ज्यादा लाभ उठा सकती है। क्या यह लाभ विपक्षी एकता के कारण हो सकने वाले घाटे को पूरी तरह से खत्म कर देगा? क्या सामुदायिक और जातिगत गठजोड़ पाकिस्तान विरोधी जोश के नीचे दब जाएगा? इन सवालों का उत्तर मई के महीने में हमारे मतदाता देंगे। यह उनकी परीक्षा है कि वे जोश में वोट देते हैं या होश में।

Web Title: Lok Sabha election 2019: voter will use voting rights properly