वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग: भारतीय भाषाएं सीखने से बढ़ेगी लोगों में एकात्मता की भावना
By वेद प्रताप वैदिक | Updated: September 1, 2019 07:09 IST2019-09-01T07:09:47+5:302019-09-01T07:09:47+5:30
भारत में जितनी भाषाएं बोली जाती हैं, दुनिया के किसी देश में नहीं बोली जातीं लेकिन कितना दुर्भाग्य है कि औसत पढ़ा-लिखा भारतीय अपनी मातृभाषा के बाद कोई अन्य भाषा सीखना चाहे तो वह बस अंग्रेजी सीखता है.

भारतीय भाषाएं सीखने से बढ़ेगी लोगों में एकात्मता की भावना
केरल में एक समारोह का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी ने वही बात कह दी, जो पिछले साठ साल से मैं कहता रहा हूं और करता रहा हूं. उन्होंने कहा कि हम भारतीय लोग यदि अन्य भारतीय भाषाओं का एक शब्द भी रोज सीखें तो उस भाषा के साल में 300 शब्द सीख सकते हैं. यदि भारत के लोग बहुभाषी बन जाएं तो वह भारत की एकात्मता को सुदृढ़ बना देगी.
भारत में जितनी भाषाएं बोली जाती हैं, दुनिया के किसी देश में नहीं बोली जातीं लेकिन कितना दुर्भाग्य है कि औसत पढ़ा-लिखा भारतीय अपनी मातृभाषा के बाद कोई अन्य भाषा सीखना चाहे तो वह बस अंग्रेजी सीखता है. कोई भी विदेशी भाषा सीखने में कोई बुराई नहीं है. मैंने खुद अंग्रेजी के अलावा रूसी, फारसी और जर्मन सीखी है.
अपनी चीन यात्नाओं के दौरान चीनी भाषा के इतने शब्द रट लिए हैं कि यदि दुभाषिया या सुरक्षाकर्मी साथ न हों तो भी मेरा काम चल जाता है. इंदौर में जन्मे और पढ़े होने के कारण संस्कृत, मराठी और गुजराती का ज्ञान सहज रहा और केरल के प्रोफेसरों की वजह से मलयालम से भी परिचय हो गया.
देवेगौड़ाजी को हिंदी पढ़ाने के चक्कर में कन्नड़ के बहुत से शब्द मुङो कंठस्थ हो गए. लेकिन औसत हिंदीभाषियों का हाल क्या है? हम हिंदीभाषी लोग आमतौर से कोई भी अन्य भारतीय भाषा प्रेम से नहीं सीखते, जबकि करोड़ों मलयाली, तेलुगु, तमिल, कन्नड़ और बंगाली हिंदी धाराप्रवाह बोलते हैं. मराठी और गुजरातियों की हिंदी तो कभी-कभी हमसे भी बेहतर होती है.
भारतीय भाषाओं के बीच सद्भाव पैदा करने के लिए ही मैंने ‘भारतीय भाषा सम्मेलन’ की स्थापना की है, लेकिन आप यह बात पुख्ता तौर पर समझ लीजिए कि भारतीय भाषाओं का उद्धार तब तक नहीं होगा, जब तक भारत में अंग्रेजी के नाजायज रुतबे को चुनौती नहीं दी जाएगी. यह बात महर्षि दयानंद, गांधी और लोहिया से मैंने सीखी है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक रहे कुप्प सी. सुदर्शन ने अंग्रेजी हटाओ आंदोलन में मेरे साथ काम किया और उक्त मंतव्य को वे दोहराते रहे. लेकिन क्या भारत में कभी कोई ऐसा प्रधानमंत्नी पैदा होगा, जो अंग्रेजी के वर्चस्व को चुनौती दे सकेगा? मुश्किल है. उसके लिए वह नेता महात्मा गांधी, राममनोहर लोहिया और सुभाष चंद्र बोस की तरह का होना चाहिए. कहां से लाएंगे ऐसा नेता. फिर भी संतोष की बात है कि प्रधानमंत्री मोदी ने कम से कम भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाने की बात तो कही. अब तक किसी प्रधानमंत्नी के दिमाग में यह बात आई ही नहीं. पाकिस्तान में इमरान खान चाहें तो मोदी की तरह अपने लोगों से पंजाबी, सिंधी, पश्तो, बलूच और सराइकी सीखने के लिए कह सकते हैं.