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भाषा ही देश को जोड़ने का संस्कार देती है

By राजेश बादल | Updated: July 25, 2025 07:14 IST

काजी नजर-उल-इस्लाम की कविता में धूरजटी, विश्वामित्र और दुर्वासा की चर्चा बार-बार है, लेकिन उर्दू, हिंदी, पंजाबी कवि उस ओर ध्यान तक न दे सके.

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महाराष्ट्र में ठाकरे बंधुओं ने जिस भाषा विवाद को पश्चिम में भड़काया, वैसी ही शुरुआत अब उत्तर पूर्व में हो चुकी है. अंतर यह है कि ठाकरे बंधुओं ने संसार की सबसे अधिक बोली-समझी जाने वाली हिंदी के खिलाफ मोर्चा खोला था, जबकि असम तथा बंगाल ने एक-दूसरे की भाषाओं को आड़े हाथों लिया है. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने असम के मुख्यमंत्री पर आरोप लगाया है कि उनके राज्य में बंगला बोलने वालों पर जुल्म ढाए जा रहे हैं. वे कह रही हैं कि असम में भाजपा भाषा के आधार पर लोगों को बांटना चाहती है.

यह विभाजनकारी एजेंडा सारी हदें पार कर चुका है. लेकिन असम में बंगाली लोग इसका डटकर मुकाबला करेंगे. बांग्लादेश के बाद बंगला भाषा असम में बोली जाने वाली दूसरी लोकप्रिय भाषा है. उन्होंने कहा कि जो लोग सभी भाषाओं-धर्मों का सम्मान करते हुए शांतिपूर्वक भारतीय की तरह रहना चाहते हैं, वे रहेंगे. पर, मातृभाषा के लिए उत्पीड़न की धमकी भेदभावपूर्ण और असंवैधानिक है.

जाहिर है कि असम से उत्तर आना ही था. मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने ममता को करारा जवाब दिया. उन्होंने कहा कि ममता बनर्जी वोट के लिए बंगाल के अल्पसंख्यकों की चिंता कर रही हैं. उनका मकसद सिर्फ विधानसभा चुनाव में लाभ लेना है.

जिन प्रदेशों में भाषा अक्सर विवाद का विषय बनती रही है, उनमें महाराष्ट्र के अलावा बंगाल, तमिलनाडु और आंध्र प्रमुख हैं. बंगाल और असम के बीच भाषायी संघर्ष तो जानलेवा होते रहे हैं. एक समय तो ऐसा भी आया था, जब गैरअसमी लोगों को लगा कि असमी उन पर थोपी जा रही है.

इसके बाद वहां असमी के विरोध में आंदोलन भड़क उठे. वे हिंसक भी हुए. लेकिन मणिपुर और त्रिपुरा इसमें शामिल नहीं हुए. आंदोलनकारी चाहते थे कि जिनकी भाषा असमी नहीं है, उनके लिए अलग जनजातीय प्रदेश बनाया जाए. इसके लिए ऑल पार्टी हिल्स कॉन्फरेंस बनी थी. सीमा पर उठे इस आंदोलन पर हुकूमत संवेदनशील थी. आखिरकार जनजातीय प्रदेश तो नहीं बना, अलबत्ता कई छोटे राज्य अस्तित्व में आ गए.

मेघालय, मिजोरम, अरुणाचल, त्रिपुरा और मणिपुर इसी की उपज हैं. लेकिन साठ के दशक में तो भाषा विवाद इतना उग्र था कि बंगाली असम के लोगों के खून के प्यासे हो गए. प्रतिक्रियास्वरूप असम में भी बंगालियों के विरोध में आंदोलन प्रारंभ हो गया. इसकी एक बानगी पर्याप्त होगी.

उन दिनों असम के महानायक, भारतरत्न भूपेन हजारिका कोलकाता के फिल्म जगत का बड़ा लोकप्रिय नाम था. उनके नाम पर थिएटरों में भीड़ उमड़ती थी. जब वहां असम के लोगों का विरोध हुआ तो सड़कों पर हजारों पोस्टर लगाए गए. इन पर लिखा था-बंगालियों को भूपेन हजारिका का खून चाहिए. इसका गहरा असर भूपेन पर पड़ा. काम मिलना बंद हो गया. उनको कोलकाता छोड़ना पड़ा.

वैसे हिंदी तो भाषाओं की गंगा ही है. इसलिए क्षेत्रीय भाषाओं की उपगंगाओं के बीच संघर्ष की कोई ठोस वजह नहीं दिखती. चाहे वह महाराष्ट्र हो या तमिलनाडु. सिवाय इसके कि उस समय कई महत्वाकांक्षी राजनेता हिंदी विरोध में परदे के पीछे थे. आज खुलेआम विरोध करते हैं.

उस दौर के उन सियासी नेताओं को इतिहास ने कूड़ेदान में फेंक दिया. उन्हें सब भूल गए. पर, भूपेन हजारिका और गुरुदेव आज भी हमारे दिलों में बसते हैं. तो महाराष्ट्र में भी हिंदी का विरोध ऐसा ही है कि गंगा में मिलने वाली कोई उपनदी गंगा से ही बगावत कर बैठे. क्या महाराष्ट्र के लोग हिंदी के बिना रह सकते हैं? मुंबइया फिल्मों ने हिंदी फिल्मों के जरिये देश को एक सूत्र में बांधने का काम किया है. इसे कोई नकार नहीं सकता.

पाकिस्तान से आए देवानंद, पृथ्वीराज कपूर, राजकपूर, पंजाब से आए मोहम्मद रफी, दिलीप कुमार, जगजीत सिंह, राजेश खन्ना, बंगाल से आए मन्ना डे, हेमंत कुमार, सचिन देव बर्मन और गुरुदत्त, उत्तरप्रदेश से शैलेन्द्र, नौशाद, मुकेश, मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बदायुनी, कमाल अमरोही, राजस्थान के हसरत जयपुरी, दक्षिण भारत की वैजयंती माला, वहीदा रहमान, जयाप्रदा, श्रीदेवी, कमल हासन और हेमामालिनी, मध्यप्रदेश से गए अशोक कुमार, किशोर कुमार, जॉनी वाॅकर, प्रेमनाथ, म्यांमार से आई हेलन, आंध्र से महमूद और छत्तीसगढ़ के किशोर साहू ने क्या महाराष्ट्र को पहचान नहीं दी?

क्या लता मंगेशकर, आशा भोंसले और दादा साहब फाल्के जैसे अनमोल सितारों के प्रति हम श्रद्धा इसलिए रखते हैं कि वे मराठी भाषी थे? क्या टाटा समूह के संस्थापक गुजरात से मुंबई कारोबार करने गए तो उन्हें बाहरी माना जाएगा?इस तरह तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को हम भूल जाएंगे? वे अहिंदीभाषी थे लेकिन इंदौर में 90 साल पहले हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का सबसे पहला प्रस्ताव उन्होंने ही पारित किया था.

महान क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह ने तो लिखा था कि देश को सिर्फ हिंदी ही एक सूत्र में बांधकर रख सकती है. उनके राज्य पंजाब में भी भाषा विवाद ने जोर पकड़ लिया था. तब हिंदी संदेश में उन्होंने लिखा था, ‘इस समय पंजाब में उर्दू का जोर है. अदालतों की भाषा भी यही है. यह ठीक है परंतु हमारे सामने इस समय मुख्य प्रश्न भारत को एक राष्ट्र बनाना है. एक राष्ट्र के लिए एक भाषा आवश्यक है.

यह एकदम नहीं हो सकता. यदि हम अभी भारत की एक भाषा नहीं बना सकते तो कम से कम लिपि तो एक बना देना चाहिए. उर्दू लिपि सर्वांग-संपूर्ण नहीं है. फिर सबसे बड़ी बात तो यह है कि उसका आधार फारसी है. काजी नजर-उल-इस्लाम की कविता में धूरजटी, विश्वामित्र और दुर्वासा की चर्चा बार-बार है, लेकिन उर्दू, हिंदी, पंजाबी कवि उस ओर ध्यान तक न दे सके. इसका मुख्य कारण भारतीयता से उनकी अनभिज्ञता है. उनमें भारतीयता नहीं, तो उनके साहित्य से भारतीय कैसे बन सकते हैं ?

जब हमारे पास वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित सर्वांग-संपूर्ण हिंदी लिपि विद्यमान है,फिर उसे अपनाने में हिचक क्यों? हम कहेंगे कि हिंदी ही अंत में एक दिन भारत की भाषा बनेगी.’ हमारे क्रांतिकारी इसीलिए भाषा और मजहब के भेद को भूलकर कहते थे- मैं हिंदी, ठेठ हिंदी, खून हिंदी, जात हिंदी हूं/ यही मजहब, यही फरकां, यही है खानदां मेरा. क्या हमारे आज के सियासी नियंता इस पर ध्यान देंगे?

टॅग्स :हिन्दीमहाराष्ट्रउर्दू 
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