दांव पर लगी है छोटे किसानों की जमीन, अभय कुमार दुबे का ब्लॉग

By अभय कुमार दुबे | Published: December 29, 2020 12:19 PM2020-12-29T12:19:14+5:302020-12-29T12:20:33+5:30

नरेंद्र मोदी की सरकार के खिलाफ पहला किसान आंदोलन तब हुआ था जब 2014 में सत्ता में आने के फौरन बाद उन्होंने अध्यादेश लाकर कॉर्पोरेट इस्तेमाल के लिए उनकी जमीनों के अधिग्रहण की कोशिश करनी चाही थी.

Kisan Andolan farmer protest delhi chalo haryana punjab Small farmers' land is at stake Abhay Kumar Dubey's blog | दांव पर लगी है छोटे किसानों की जमीन, अभय कुमार दुबे का ब्लॉग

आंदोलन भले ही खुशहाल किसानों का हो, लेकिन दांव पर तो छोटे किसान की जमीन ही लगी है. (file photo)

Highlightsमोदी और उनकी सरकार के आलोचकों ने उस समय प्रधानमंत्री की जिद का सही आकलन नहीं किया था.छोटे और गरीब किसानों के हितों की सुरक्षा का बंदोबस्त नहीं किया गया है. ‘बाजार’ में किसान को कॉर्पोरेट पूंजी के साथ मोलभाव करना पड़ेगा.

केंद्र सरकार के रणनीतिकारों को लगता है कि दिल्ली की सीमाओं पर चल रहा किसान आंदोलन न बहुत दूर तक जाएगा, और न ही दूर तक फैलेगा.

ज्यादा से ज्यादा यह पंद्रह दिन या एक महीने और टिक सकता है. संभवत: सरकार इंतजार कर रही है कि जैसे ही थकान के कारण इस आंदोलन में हिंसा की घटनाएं होंगी, उसे किसानों को कानूनी कोने में धकेलने का मौका मिल जाएगा.

सरकार के यकीन के पीछे मुख्य कारण यह है कि आंदोलनकारी मुख्य तौर पर मंझोले और बड़े किसानों तक सीमित हैं और देश के अस्सी फीसदी से ज्यादा किसान छोटे और सीमांत श्रेणी में आते हैं. मोदी सरकार का मानना है कि इन किसानों को संतुष्ट रखने के लिए उसके पास सीधे खातों में रुपया पहुंचाने से लेकर मुफ्त अनाज बांटने जैसी युक्तियां हैं.

नरेंद्र मोदी की सरकार के खिलाफ पहला किसान आंदोलन तब हुआ था जब 2014 में सत्ता में आने के फौरन बाद उन्होंने अध्यादेश लाकर कॉर्पोरेट इस्तेमाल के लिए उनकी जमीनों के अधिग्रहण की कोशिश करनी चाही थी. इसका जबरदस्त विरोध हुआ और मोदी को एक के बाद एक तीन अध्यादेश लाने के बावजूद इस प्रयास को ठंडे बस्ते में डालना पड़ा.

उस समय ऐसा लगा था कि जैसे वे किसानों के सामने झुक गए हों. लेकिन, आज पीछे मुड़ कर देखने पर लगता है कि अगर उस समय उनके पास संसद के दोनों सदनों में अध्यादेश को कानून बनाने लायक बहुमत होता तो वे कदम वापस नहीं खींचते और भूमि अधिग्रहण अधिनियम तभी पारित हो गया होता.

इस बार चूंकि उनके पास अध्यादेश को अधिनियम में बदलने की संसदीय क्षमता थी इसलिए उन्होंने एक नहीं बल्कि तीन कानून बना डाले और किसानों द्वारा दिल्ली का घेरा डालने के बावजूद उन्हें खारिज करने के लिए किसी कीमत पर तैयार नहीं हैं. जाहिर है कि मोदी और उनकी सरकार के आलोचकों ने उस समय प्रधानमंत्री की जिद का सही आकलन नहीं किया था.

किसानों की जिद के पीछे भी एक मजबूत दलील है. भारत सरकार के दो पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु और रघुराम राजन मानते हैं कि ये कानून ऊपर से तो दुरूस्त लगते हैं, लेकिन बारीकी से जांच करने पर साफ हो जाता है कि इनमें छोटे और गरीब किसानों के हितों की सुरक्षा का बंदोबस्त नहीं किया गया है.

आखिरकार इस ‘बाजार’ में किसान को कॉर्पोरेट पूंजी के साथ मोलभाव करना पड़ेगा. जाहिर है कि कॉर्पोरेट कंपनी किसान से सीधा संपर्क नहीं करेगी. वह आज के आढ़तियों और कुछ नवनियुक्त एजेंटों के जरिये किसान की उपज को जमा करवा कर खरीदेगी. आज जब कमीशनखोरी से रुपया कमाने वाले आढ़तिये के हाथों किसान लुट जाता है, तो इस बदली हुई सूरत में उसे लूटने से कौन रोकेगा?

डर यह है कि शुरुआती कड़वे तजुर्बो के बाद छोटे किसान अपनी जमीन बड़े किसानों को बेचने के बारे में सोचने लगेंगे. छोटी जोतें बड़ी जोतों में समाने लगेंगी. इस तरह ‘बाजार’ और ‘आजादी’ के बीच फंसा छोटा किसान अपना वजूद खोता चला जाएगा. जाहिर है कि आंदोलन भले ही खुशहाल किसानों का हो, लेकिन दांव पर तो छोटे किसान की जमीन ही लगी है.

सरकार के समर्थक बार-बार कानून की इबारत को पढ़कर बताने का आग्रह करते हैं कि इसमें से किसानों की जमीन छिन जाने का अंदेशा कैसे निकलता है? इस प्रश्न के उत्तर में मैं दोहराव का खतरा उठा कर 1998 में जारी की गई विश्व बैंक की डेवलपमेंट रपट का हवाला दूंगा. इस रपट में इस संस्था ने भारत सरकार को डांट लगाई थी कि उसे 2005 तक चालीस करोड़ ग्रामीणों को शहरों में लाने की जो जिम्मेदारी दी गई थी, उसे पूरा करने में वह बहुत देर लगा रही है.

विश्व बैंक की मान्यता स्पष्ट थी कि भारत में देहाती जमीन ‘अकुशल’ हाथों है. उसे वहां से निकाल कर शहरों में बैठे ‘कुशल’ हाथों में लाने की जरूरत है. जब ऐसा हो जाएगा तो न केवल जमीन जैसी बेशकीमती जिन्स औद्योगिक पूंजी के हत्थे चढ़ जाएगी, बल्कि उस जमीन से बंधी ग्रामीण आबादी शहरों में सस्ता श्रम मुहैया कराने के लिए आ जाएगी. सरकार ज्यादा से ज्यादा यह कर सकती है कि गांव छोड़कर मुंबई, दिल्ली, पंजाब और अन्य जगहों पर जाने वाली इस आबादी को ‘कुशल’ बनाने के लिए पॉलिटेक्निक और आईटीआई जैसी संस्थाएं खोलने की तरफ जाए.

मोदी सरकार विश्व बैंक द्वारा दिए गए इस दायित्व को अटलबिहारी वाजपेयी की भाजपा सरकार और मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार के मुकाबले अधिक उत्साह से पूरा करने में जुटी हुई है. दोनों पिछली सरकारें शायद राजनीतिक नुकसान के डर से विश्व बैंक की फटकार खाती रहीं, पर काम पूरा नहीं कर पाईं. लेकिन, नरेंद्र मोदी को राजनीतिक नुकसान का कोई खास डर नहीं है. ये कृषि कानून भारतीय समाज की संरचना को दूरगामी दृष्टि से बदलने की जिस परियोजना की तरफ इशारा कर रहे हैं, उसके फलितार्थो पर फौरी आग्रहों से हटकर काफी गंभीरता से सोचने की जरूरत है.

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