प्रकृति को सहेजिए वर्ना सब बर्बाद हो जाएंगे!
By विजय दर्डा | Updated: August 28, 2018 18:58 IST2018-08-28T18:57:43+5:302018-08-28T18:58:35+5:30
केरल में 37 में से 34 बांधों के गेट खोलने पड़े जो केरल में इससे पहले कभी नहीं हुआ। इसी तरह 39 में 35 रिजर्वायर्स के गेट भी खोलने पड़े जबकि इसमें कई रिजर्वायर तो कभी भर ही नहीं पाते थे। यह सभी गेट तब खोले गए जब पानी खतरे के निशान से ऊपर पहुंच गया।

प्रकृति को सहेजिए वर्ना सब बर्बाद हो जाएंगे!
केरल में बाढ़ से जो तबाही हुई है, मैं उसके कुछ वीडियो देख रहा था। पहाड़ की ऊंचाई पर खड़े किसी व्यक्ति ने यह वीडियो बनाया होगा। पूरी रफ्तार से पानी अपने साथ मलबा लिए नीचे की ओर आ रहा था। अचानक बीच की एक छोटी पहाड़ी भरभराकर धराशायी हो गई और उसका मलबा भी पानी के साथ बह निकला। मुङो विश्वास नहीं हुआ कि क्या ऐसा भी हो सकता है?
मैंने वह वीडियो बार-बार देखा और यह समझने की कोशिश करने लगा कि आखिर कोई पहाड़ कैसे धराशायी हो सकता है? मुङो लगा जैसे वह छोटी पहाड़ी भीतर से खोखली थी! निश्चित ही नीचे से उसकी खुदाई की गई होगी। खनन माफिया ने उसका मुरुम निकाल कर बाजार में बेच दिया होगा! मेरी यह आशंका खोखली नहीं है बल्कि पूरे देश में हालात ऐसे ही हैं।
पहाड़ी इलाकों में सड़क से गुजरते हुए आप यह नजारा सहज ही देख सकते हैं कि किस तरह से मुरुम की अपनी जरूरतों के लिए इनसान पहाड़ों को खोदता चला जा रहा है। यही हाल नदियों का है। सरकारी नियम कहते हैं कि नदियों की यदि बीच में खुदाई हो तो नदियों का ज्यादा नुकसान नहीं होता।
किसी भी कीमत पर नदियों के किनारे से रेत नहीं निकाली जानी चाहिए। पर्यावरण विशेषज्ञ भी यही कहते हैं लेकिन हकीकत में यह सब कहने की बातें हैं। पूरे देश में रेत माफिया इस कदर सक्रिय है कि अधिकारी उस पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं कर पाते। देश के विभिन्न हिस्सों से अधिकारियों पर रेत माफिया के हमले की खबरें आती रहती हैं।
तो ये जो दो कारण हैं, मुरुम और पत्थर के लिए पहाड़ों की खुदाई तथा रेत के लिए नदियों की खुदाई, उसने प्रकृति का सबसे ज्यादा नुकसान किया है। रेत खनन से तो नदियों के प्रवाह की धारा तक बदल जाती है और उनसे जुड़ी दूसरी अत्यंत छोटी और मौसमी नदियों का तो वजूद ही समाप्त हो जाता है।
ऐसी सैकड़ों छोटी और मौसमी नदियां अब समाप्त हो चुकी हैं। दरअसल प्रकृति की अपनी रफ्तार है, उसका अपना चक्र है। निश्चय ही पृथ्वी पर पलने वाले जीवों के लिए आपदाएं हमेशा ही आती रही हैं।
कभी भूकंप तो कभी बारिश ही बारिश! लेकिन इसी चक्र से जीवन की विविधता भी पैदा हुई है। समस्या तब ज्यादा गंभीर होनी शुरू हो गई जब मनुष्य का विकास हुआ। मनुष्य ने अपनी जरूरतों के लिए प्रकृति के साथ छेड़छाड़ शुरू कर दी।
जो जगह नदी नालों की थी, उन स्थानों पर घर बनने लगे। नदी के किनारे अतिक्रमण का शिकार हो गए। मकान बनाते वक्त इनसान ने यह ध्यान भी नहीं रखा कि क्या उसका मकान प्राकृतिक बहाव के रास्ते में है? छोटे बरसाती नाले पाट दिए गए।
इनसान की भूख बढ़ती गई। प्रकृति पर उसका हमला बढ़ता गया। मिट्टी को जकड़े रहने वाले पेड़ काट दिए गए। जंगल नष्ट हो गए। पहाड़ की ढलानों पर लोगों ने घर बना लिए।
प्रकृति एक सीमा तक तो बर्दाश्त कर सकती है, उसके आगे उसके क्रोध का सामना हमें करना ही होगा। यह क्रोध हमें उत्तराखंड में भी दिखाई दिया, यही क्रोध कुछ साल पहले हमने चेन्नई में देखा और अब केरल में देख रहे हैं। चेन्नई का जो इलाका सबसे ज्यादा बाढ़ में डूबा था, वह कभी दलदल हुआ करता था लेकिन लोगों ने सारे कानून की धज्जियां उड़ाते हुए वहां कॉलोनियां खड़ी कर दी थीं।
आश्चर्य यह है कि हमारी सरकारें इस मामले की अनदेखी करती रही हैं। पर्यावरणविद् माधव गाडगिल के नेतृत्व में पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ समिति (डब्ल्यूजीईईपी) ने 2011 में जो रिपोर्ट तैयार की थी उसमें साफ कहा गया था कि केरल में पश्चिमी घाट के तहत आने वाले कई इलाकों को संवेदनशील करार दिया जाए। लेकिन, केरल सरकार ने उसका विरोध किया था।
दरअसल सरकार यह सिफारिश मान लेती तो उस पूरे इलाके में न केवल खनन रोकना पड़ता बल्कि अंधाधुंध निर्माण पर भी रोक लग जाती। केरल में बाढ़ के संदर्भ में गाडगिल ने साफ कहा है कि यह मानव निर्मित त्रसदी है और यह चेतावनी भी दी है कि कभी ऐसी ही स्थिति गोवा की भी हो सकती है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि केरल में इस बार बारिश सामान्य से करीब तीन गुना ज्यादा हुई है। इसलिए संकट तो आना ही था लेकिन यह ज्यादा जानलेवा इसलिए हो गया क्योंकि नदियों के पानी के फैलाव के रास्ते में इनसान बस गया था। कहते हैं कि सौ साल बाद ऐसी स्थिति पैदा हुई है। संकट के ज्यादा गंभीर हो जाने का एक कारण मानवीय प्रबंधन का अभाव भी है।
केरल में 37 में से 34 बांधों के गेट खोलने पड़े जो केरल में इससे पहले कभी नहीं हुआ। इसी तरह 39 में 35 रिजर्वायर्स के गेट भी खोलने पड़े जबकि इसमें कई रिजर्वायर तो कभी भर ही नहीं पाते थे। यह सभी गेट तब खोले गए जब पानी खतरे के निशान से ऊपर पहुंच गया।
जब प्रशासन को अंदाजा हो गया था कि बारिश ज्यादा हो रही है तो सभी बांधों से पहले ही थोड़ा-थोड़ा पानी छोड़ा जाता। यदि ऐसा किया जाता तो संकट इतना गहरा नहीं होता!
बहरहाल हमें यह समझने की जरूरत है कि यदि हमें अपना वजूद बचाए रखना है तो प्रकृति के साथ जीना सीखना होगा। प्रकृति को हम जितना तबाह करेंगे। प्रकृति हमें उससे कई गुना ज्यादा तबाही देगी!
और अंत में।।
केरल की इस तबाही के दौरान लोगों की जिंदगी बचाने में लगे नेशनल डिजास्टर रिस्पांस फोर्स (एनडीआरएफ) के जवानों और अधिकारियों की जितनी भी तारीफ की जाए कम है। 2006 में गठन के बाद से एनडीआरएफ लगातार मजबूत फोर्स के रूप में उभरी है।
चाहे बाढ़ हो, भूकंप हो या फिर कोई और आपदा, हर संकट के दौर में इस फोर्स ने अपनी हिम्मत, जज्बे और अपनी ताकत से हजारों लोगों की जान बचाई है। बधाई एनडीआरएफ।