गिरीश पंकज का ब्लॉग: आदिवासियों की संस्कृति को संरक्षित करना जरूरी
By गिरीश पंकज | Published: August 9, 2023 10:39 AM2023-08-09T10:39:40+5:302023-08-09T11:03:51+5:30
आज आवश्यकता इसी बात की है कि मूल निवासियों को मूल निवासी ही रहने दिया जाए। उनकी सहमति से उनका उन्नयन हो। उन पर कोई वन कानून लादा न जाए। वे जंगलों के संरक्षक हैं। पर्यावरण के रक्षक हैं। उनको वनों का शत्रु न समझें।
संयुक्त राष्ट्र महासभा के निर्णय के अनुसार समूचे विश्व में 9 अगस्त को आदिवासी या मूल निवासी दिवस मनाया जाता है। भारत सहित पूरी दुनिया में आदिवासी निवास करते हैं। एक आंकड़े के अनुसार भारत में लगभग दस करोड़ आदिवासी हैं। आज भी इनकी एक बड़ी आबादी वनप्रांतर में निवास करती है, जहां वे अपना जीवन अपने हिसाब से जीते हैं।
कम से कम सुविधाओं में सुखमय जीवन कैसे जिया जा सकता है, यह हमारे आदिवासी बंधु हमें बखूबी बता सकते हैं। बताते ही हैं। मैंने बस्तर के अबूझमाड़ इलाके में पांच दिनों की पदयात्रा करके उनके सुंदर जीवन को बहुत निकट से देखा है। शहर के तथाकथित सभ्य लोग यह समझते हैं कि आदिवासी, वनवासी या मूल निवासी पिछड़े हुए हैं। वे पिछड़े हुए नहीं हैं।
दरअसल उन्होंने अपनी आवश्यकताओं को बेहद न्यून कर लिया है। वे थोड़े में मस्त रहते हैं। उनको विशालकाय भवन नहीं चाहिए। उनको त्वरित गति से भागने वाले वाहन नहीं चाहिए। उनको तैरने के लिए स्वीमिंग पूल नहीं चाहिए। वे जंगल की नदी या तालाब में तैर कर ही खुश हो लेते हैं। कहने का आशय यह है कि आदिवासी समाज अर्थशास्त्र पढ़े बगैर ही न्यूनतम आवश्यकता के सिद्धांत को महत्व देता रहा है।
आदिवासी अपने हिसाब से हम सबसे दूर वनों में निवास करते हैं। उनकी अपनी सुंदर दुनिया है। उनके अपने रीति-रिवाज हैं, प्रथाएं हैं उनके अपने लोकगीत हैं, संगीत है, उनके अपने सुंदर, आकर्षक वाद्ययंत्र हैं। उनके नयनाभिराम पहनावे हैं। उनका अपना खानपान है, जो हमसे भले ही काफी भिन्न हो, पर वह असंगत नहीं है। उनकी मनोवृत्ति के अनुकूल है।
यह संतोष की बात है कि अपने देश में विचाराधीन समान नागरिक संहिता में आदिवासी रीति-रिवाजों को मुक्त रखा गया है। उन्हें इस संहिता के अनुरूप जीने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा। उन पर संहिता लादना भी नहीं चाहिए। वे सब जब सदियों से अपनी एक परंपरा की जी रहे हैं, तो अचानक उनको नई धारा में बहने के लिए बाध्य करना अपराध से कम न होगा।
आज आवश्यकता इसी बात की है कि मूल निवासियों को मूल निवासी ही रहने दिया जाए। उनकी सहमति से उनका उन्नयन हो। उन पर कोई वन कानून लादा न जाए। वे जंगलों के संरक्षक हैं। पर्यावरण के रक्षक हैं। उनको वनों का शत्रु न समझें। उनकी शिक्षा-दीक्षा पर ध्यान दिया जाए।
उनको शहरों में लाकर बसाने के बजाय उनके वनों में, ग्रामों में जरूरी सुविधाएं उपलब्ध कराएं। जैसे एक पौधा बढ़ता है, उसी तरह वनवासी बंधु भी सहजता के साथ बढ़ें, मगर अपनी पहचान के साथ। उनकी पहचान खत्म करना उचित नहीं होगा। विश्व आदिवासी दिवस का उद्देश्य भी यही है।