International Women's Day: 'हम परों से नहीं हौसलों से उड़ा करते हैं', भारतीय महिलाओं के संघर्ष की कहानी
By विशाला शर्मा | Updated: March 8, 2022 09:29 IST2022-03-08T09:29:01+5:302022-03-08T09:29:01+5:30
जीवन के हर क्षेत्र में महिलाओं के महत्व से अब इनकार नहीं किया जा सकता है. किंतु एक पंख से उड़ान नहीं भरी जा सकती, उसका दूसरा पंख बनकर उसमें चेतना, समानता और सम्मान का भाव जागृत करना भी जरूरी है.

International Women's Day: हम परों से नहीं हौसलों से उड़ा करते हैं
महिलाओं का सशक्तिकरण नहीं हो पाना लंबे समय से चिंता का विषय रहा है. भारत की पृष्ठभूमि पर बात करें तो भारत में नारी अधिकारों के लिए संघर्ष का आरंभ 19वीं सदी के उत्तरार्ध में पुनर्जागरणकाल से हुआ. बेहरामजी मालाबारी संघ की स्थापना ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने की जिसके द्वारा पहली बार बाल विवाह पर रोक लगाने की मांग उठाई गई.
साथ ही विधवा पुनर्विवाह की शुरुआत की गई. तत्पश्चात राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई और फिर 1926 में अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की स्थापना की गई. देशभर में कई सुधारवादी आंदोलनों का आगाज हुआ. स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद सरस्वती ने स्त्नी शिक्षा पर जोर दिया. मताधिकार का अधिकार स्त्रियों को प्राप्त होना एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसके फलस्वरूप स्त्री जाति में चैतन्य का संचार हुआ.
भारतीय समाज में पंडिता रमाबाई सरस्वती को स्त्री होने के नाते संस्कृत तथा वेद पठन के कार्य को सिखाने पर समाज में विरोध का सामना करना पड़ा और यही विरोध स्त्रियों को शिक्षित करने पर सावित्रीबाई फुले ने भी सहा. किंतु सभी विरोधों का सामना करने के पश्चात भी सावित्रीबाई ने अन्य स्त्रियों के मार्ग को प्रशस्त किया.
साहित्य में महिला सशक्तिकरण के नारे को बुलंदी पर लाने का प्रयास भक्ति काल में संत मीराबाई ने किया. 500 वर्ष पूर्व मीरा का सती न होने का निर्णय राजपूत घराने को चुनौती था जिसने महिला के कर्म क्षेत्र घर-परिवार और चारदीवारी को अस्वीकार कर घुंघरू की झंकार से कुल की मर्यादा को हिला दिया और समाज को यह बता दिया कि नारी सामाजिक बंधनों को त्याग कर स्वतंत्र भी रह सकती है.
यह सच्चाई अब समक्ष आने लगी है कि स्त्रियां संघर्ष करती हैं. हार मान कर घर नहीं बैठतीं. जीवन के हर क्षेत्र में उनकी व्यापक स्थिति से अब इनकार नहीं किया जा सकता. किंतु एक पंख से उड़ान नहीं भरी जा सकती, उसका दूसरा पंख बनकर उसमें चेतना, समानता और सम्मान का भाव जागृत करें. स्त्रियों की दुनिया को विस्तृत करने में पुरुष के योगदान की भी आवश्यकता है.
इसलिए भारतीय समाज इस सोच से उबरे कि महिला सशिक्तकरण से पुरुषों के अधिकारों का बंटवारा होगा. यह प्रश्न तो विश्व की आधी आबादी के अधिकारों का प्रश्न है. व्यवस्था का प्रश्न है.