भारत डोगरा का ब्लॉग: परंपरागत जल प्रबंधन अपनाएं
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: May 27, 2019 07:16 AM2019-05-27T07:16:09+5:302019-05-27T07:16:09+5:30
औपनिवेशिक शासन के दिनों में विभिन्न कारणों से हमारी अनेक तरह की बेहतर परंपरागत व्यवस्थाओं का ढांचा चरमराने लगा. जल-प्रबंधन पर भी नए शासकों और उनकी नीतियों की मार पड़ी. किसानों और गांववासियों की आत्म निर्भरता तो अंग्रेज सरकार चाहती ही नहीं थी.
जल संरक्षण के विभिन्न उपाय हमारे देश की जरूरतों के अनुसार बहुत समय से किसी न किसी रूप में अपनाए जाते रहे हैं. चाहे राजस्थान व बुंदेलखंड के तालाब हों या बिहार की आहर-पईन व्यवस्था, नर्मदा घाटी की हवेली हो या हिमालय की गूलें, महाराष्ट्र की बंधारा विधि हो या तमिलनाडु की एरी व्यवस्था - इन सब माध्यमों से अपने-अपने क्षेत्र की विशेषताओं के अनुसार स्थानीय लोगों ने वर्षा जल के अधिकतम और बढ़िया उपयोग की तकनीकें विकसित कीं.
औपनिवेशिक शासन के दिनों में विभिन्न कारणों से हमारी अनेक तरह की बेहतर परंपरागत व्यवस्थाओं का ढांचा चरमराने लगा. जल-प्रबंधन पर भी नए शासकों और उनकी नीतियों की मार पड़ी. किसानों और गांववासियों की आत्म निर्भरता तो अंग्रेज सरकार चाहती ही नहीं थी. जब उद्देश्य ही उपेक्षित हो गया तो उपाय क्या होने थे. फिर भी तरह-तरह के शोषण का बोझ सहते हुए लोग जहां-जहां अपनी व्यवस्था को कुछ बना कर रख सकते थे, उन्होंने इसका प्रयास किया.
दुख की बात है कि स्वतंत्रता के बाद भी जल-प्रबंधन के इन आत्म-निर्भर, सस्ते और स्थानीय भौगोलिक विशेषताओं का पूरा ध्यान रखने वाले परंपरागत तौर-तरीकों पर ध्यान नहीं दिया गया. इनकी उपेक्षा जारी रही, बल्कि कुछ स्थानों पर तो और बढ़ गई. औपनिवेशिक शासकों ने जल-प्रबंधन की जो नीतियां अपनाई थीं, उसमें उनके अपने स्वार्थो के साथ-साथ यूरोप में वर्षा के लक्षणों पर आधारित सोच हावी थी. इस सोच के आधार पर स्थानीय स्तर के जल संरक्षण को अधिक महत्व नहीं दिया गया.
बाद में धीरे-धीरे इस क्षेत्र के साथ बड़ी निर्माण कंपनियों, ठेकेदारों व उनसे लाभ उठाने वाले अधिकारियों व नेताओं के स्वार्थ भी जुड़ गए. निहित स्वार्थ जब नीति पर हावी हो गए तो गांवों के सस्ते और आत्मनिर्भर तौर तरीकों की बात भला कौन सुनता?
सैकड़ों वर्षो से हमारे गांवों में छोटे स्तर की आत्मनिर्भर स्थानीय ज्ञान और स्थानीय जरूरतों के आधार पर विकसित तकनीक जनसाधारण की सेवा करती रही हैं. वे आज भी बाढ़ और सूखे का संकट हल करने में अरबों रुपयों की लागत से बनी, अति आधुनिक इंजीनियरिंग का नमूना बनी नदी-घाटी परियोजनाओं से अधिक सक्षम हैं.