वंशवाद के झगड़े बदल सकते हैं राजनीति?, भाई-बहन, भतीजे और बेटे की लड़ाई!

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: June 12, 2025 05:17 IST2025-06-12T05:17:45+5:302025-06-12T05:17:45+5:30

बीआरएस के तेलुगु क्षेत्र से एनसीपी के महाराष्ट्र तक, सपा के यादव वर्चस्व से राजद के ओबीसी वर्चस्व तक, बसपा के दलित सपनों से तृणमूल के बंगाली जोश तक, द्रमुक की द्रविड़ जड़ों से पीएमके की वन्नियार पहचान तक एक ही प्रवृत्ति दिखती है.

India Can dynastic feuds change politics Fights brothers sisters, nephews and sons blog Prabhu Chawla | वंशवाद के झगड़े बदल सकते हैं राजनीति?, भाई-बहन, भतीजे और बेटे की लड़ाई!

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Highlightsवंशवादी पार्टियों में यह सड़ांध दिखती है,जाति, समुदाय और क्षेत्रीय गर्व के नाम पर लड़ते रहते हैं. सामाजिक और क्षेत्रीय पहचान पर फलती-फूलती हैं,

प्रभु चावला-

भारतीय राजनीति में जहां वंशवाद का बोलबाला है, वहां ताकत ही अकेली चीज है, जिसे छीने जाने का महत्व है. तेलंगाना की भारत राष्ट्र समिति ने भाई-बहनों के बीच मारपीट की ऐसी प्रतियोगिता आयोजित की है, जिसके सामने रियलिटी शो भी शर्मिंदा हो जाए. के. चंद्रशेखर राव की बेटी के. कविता ने पिता की विरासत पर हमला बोलते हुए आरोप लगाया है कि उनके गलत सलाहकारों ने उन्हें पार्टी का भाजपा में विलय करने की सलाह दी है. जबकि उनके भाई केटी रामा राव डूबते जहाज के कैप्टन की तरह पार्टी के फैसले से बंधे हुए हैं. तमाम वंशवादी पार्टियों में यह सड़ांध दिखती है,

जहां भाई-बहन, भतीजे और बेटे जाति, समुदाय और क्षेत्रीय गर्व के नाम पर लड़ते रहते हैं. बीआरएस के तेलुगु क्षेत्र से एनसीपी के महाराष्ट्र तक, सपा के यादव वर्चस्व से राजद के ओबीसी वर्चस्व तक, बसपा के दलित सपनों से तृणमूल के बंगाली जोश तक, द्रमुक की द्रविड़ जड़ों से पीएमके की वन्नियार पहचान तक एक ही प्रवृत्ति दिखती है. ये तमाम पार्टियां सामाजिक और क्षेत्रीय पहचान पर फलती-फूलती हैं,

लेकिन इनके पारिवारिक विवाद इन सच्चाइयों की असलियत उघाड़ देते हैं. क्या ये राजनीतिक वंशज झगड़ों के बाद भी राजनीतिक अस्तित्व बनाए रख सकेंगे? क्या समृद्धि और शिक्षा इन वंशवादी पार्टियों को खत्म कर देगी? और इनके राजनीतिक भाग्य का हमारी राजनीतिक पार्टियों के भविष्य से क्या लेना-देना है?

स्वतंत्र तेलंगाना राज्य आंदोलन के दौरान जन्मी बीआरएस ने तेलुगु स्वाभिमान को अपना आधार बनाया. लेकिन कविता के विद्रोह और पार्टी पर केटीआर की मजबूत पकड़ ने बता दिया है कि पार्टी अपनी पहचान खो सकती है. केसीआर इस मुद्दे पर खामोश हैं, लेकिन उनकी संतानों का आपसी झगड़ा उन मतदाताओं को पार्टी से दूर कर सकता है, जो स्वतंत्र तेलंगाना राज्य के लिए एकजुट हुए थे.

अगर बीआरएस बिखरती है तो भाजपा और कांग्रेस इसका लाभ उठाएंगी. बिहार में राजद ओबीसी तथा मुस्लिम वोट बैंक और लालू प्रसाद की सवर्ण विरोधी विरासत पर टिका है. उनके बेटे तेजप्रताप और तेजस्वी के बीच विवाद है. तेजप्रताप के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर ‘जयचंदों’ का जिक्र है और पुराने रोमांस का भी.

इस पर तेजप्रताप की अलग हो चुकी पत्नी ऐश्वर्या की शिकायती प्रतिक्रिया मतदाताओं को पार्टी से दूर कर सकती है. अगर राजद अलग-थलग पड़ जाता है, तो राज्य के युवा फिर भाजपा या नीतीश कुमार के पाले में जा सकते हैं. लेकिन अगर तेजस्वी के दिशानिर्देश में राजद मजबूत होकर उभरता है, तो इससे भाजपा के वर्चस्व को चुनौती मिलेगी और महागठबंधन में कांग्रेस को राजद के पीछे-पीछे चलना पड़ेगा.

उत्तर प्रदेश में यादव और ओबीसी पहचान पर आधारित सपा अब भी 2016 के पारिवारिक विवाद से उबर नहीं पाई है. हालांकि अखिलेश अब सपा के वोट बैंक के साथ मजबूती से खड़े हैं, पर प्रदेश के शहरी युवा जातिवाद से कम प्रभावित हैं. यदि सपा और विखंडित होती है तो हिंदुत्व और विकास मॉडल के जरिये भाजपा राज्य में और मजबूत होगी तथा कांग्रेस को और भी हाशिये पर धकेल देगी.

दूसरी तरफ यादव-मुस्लिम जनाधार को मजबूती से थामते हुए सपा अगर एकजुट होती है तो भाजपा को तगड़ी चुनौती मिल सकती है. एनसीपी ने मराठा गौरव और मजबूत ग्रामीण नेटवर्क से महाराष्ट्र में अपना मजबूत जनाधार बनाया था. लेकिन 2023 में अजित पवार के भाजपा के साथ जाने के सदमे से पार्टी अब भी उबर नहीं पाई है.

अगर यथास्थिति बनी रहती है तो भाजपा और उसकी सहयोगी शिवसेना का वर्चस्व बना रहेगा, जबकि कांग्रेस को शहरी इलाकों में थोड़ा-बहुत समर्थन मिलेगा. लेकिन अगर एनसीपी एकजुट होती है, तो वह किंगमेकर बन सकती है. दलितों के सशक्तिकरण का लक्ष्य लेकर बसपा आगे बढ़ी और मायावती इसका केंद्रबिंदु बनीं.

पार्टी में अपने भाई आनंद कुमार और भतीजे आकाश आनंद को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देने का मायावती का फैसला भाई-भतीजावाद का ही अनुपम उदाहरण था. जाटव और दलित बसपा का वोट बैंक रहे हैं, पर शिक्षित दलितों के भाजपा के विकास कार्यों से आकर्षित होने के कारण बसपा का जनाधार सिकुड़ रहा है.

अगर बसपा वंशवाद के बोझ तले दब जाती है तो भाजपा इसका लाभ उठाएगी और उत्तर प्रदेश में खुद को और मजबूत करेगी, जबकि कांग्रेस को शहरी दलितों के ही कुछ वोट मिल पाएंगे. दूसरी ओर, यदि मायावती अपनी सक्रियता छोड़ती हैं और आकाश आनंद के नेतृत्व में बसपा खुद को मजबूत बना लेती है तो उत्तर प्रदेश की जाति राजनीति में बसपा राष्ट्रीय पार्टियों को चुनौती देने की स्थिति में होगी.

पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ममता बनर्जी के दिशानिर्देश पर चलती है और अभिषेक बनर्जी उनके उत्तराधिकारी हैं. सांसद और महासचिव के रूप में तृणमूल में अभिषेक के उत्थान ने पार्टी के अनेक वरिष्ठों को असहज किया है. अभी तो पार्टी में सब कुछ ठीक है लेकिन ममता के बाद पार्टी अगर टूटती है तो राज्य के मतदाता भाजपा के पाले में जा सकते हैं.

दूसरी तरफ, अभिषेक के नेतृत्व में एकजुट तृणमूल राष्ट्रीय पार्टियों को उसके साथ खड़े होने के लिए विवश कर सकती है. तमिलनाडु में करुणानिधि के पुत्र एम.के. स्टालिन उदयनिधि को अपना उत्तराधिकारी बनाने की तैयारी कर रहे हैं. द्रमुक का नेतृत्व मजबूत है, लेकिन तमिलनाडु में आईटी सेक्टर के जिन युवाओं के जरिये समृद्धि आई है, वे वंशवादी राजनीति को पसंद नहीं करते.

यदि द्रमुक अस्थिर होती है तो भाजपा को शहरी वोटरों और अन्नाद्रमुक को ग्रामीण मतदाताओं का समर्थन मिलेगा. जबकि उदयनिधि के नेतृत्व में एकजुट द्रमुक तमिलनाडु को एक क्षेत्रीय ताकत बनाए रखेगा. अगर ये वंशवादी पार्टियां बिखर जाती हैं तो भाजपा को उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में बड़ा लाभ मिलेगा.

कांग्रेस को भी अल्पसंख्यकों और शहरी वोटरों का समर्थन मिलेगा. जदयू और अन्नाद्रमुक जैसी क्षेत्रीय पार्टियों को भी लाभ मिल सकता है. हालांकि 2029 के चुनाव में तो अधिक संभावना यही है कि एकजुट बीआरएस, सपा और द्रमुक गठबंधन सहयोगियों पर दबाव बनाएंगी और भाजपा तथा कांग्रेस उसके अनुरूप चलेंगी.

पर यह सिलसिला लंबा नहीं चलने वाला. भविष्य में राष्ट्रीय पार्टियों का ही बोलबाला रहेगा, क्योंकि वंशवाद पर आधारित क्षेत्रीय पार्टियों को लोग बर्दाश्त नहीं करेंगे. पर ऐसा तभी होगा, जब राष्ट्रीय पार्टियां राजनीति को परिवार और वंशवाद से मुक्त करने की दिशा में काम करें.  

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