ब्लॉग: लोकतंत्र पर ही बोझ हैं निष्क्रिय रहने वाले सांसद
By राजकुमार सिंह | Published: February 19, 2024 10:11 AM2024-02-19T10:11:41+5:302024-02-19T10:13:25+5:30
पांच साल का कार्यकाल समाप्त होने पर लोकसभा और उसके माननीय सदस्यों के कामकाज की बाबत उपलब्ध आंकड़ों से यह खुलासा हुआ है कि नौ सांसदों ने सदन में मौन तोड़े बिना ही अपना कार्यकाल पूरा कर लिया।
नेता अक्सर बोलने के लिए ही जाने जाते हैं। कुछ तो बड़बोलेपन के लिए भी चर्चित रहते हैं। ऐसे में आपको यह जान कर हैरत होगी कि 17 वीं लोकसभा में नौ माननीय सांसद ऐसे रहे, जिनका मौन पांच साल के कार्यकाल में भी नहीं टूट पाया। इनमें फिल्मी परदे पर दहाड़नेवाले वे हीरो भी शामिल हैं, जिनके डायलॉग सालों बाद भी मौके-बेमौके दोहराए जाते हैं। 18वीं लोकसभा के चुनाव अप्रैल-मई में संभावित हैं, पर 17 वीं लोकसभा का अंतिम सत्र समाप्त हो चुका है। पांच साल का कार्यकाल समाप्त होने पर लोकसभा और उसके माननीय सदस्यों के कामकाज की बाबत उपलब्ध आंकड़ों से यह खुलासा हुआ है कि नौ सांसदों ने सदन में मौन तोड़े बिना ही अपना कार्यकाल पूरा कर लिया। जाहिर है, उनके इस आचरण से उन्हें संसद के लिए चुननेवाले लाखों मतदाता खुद को छला हुआ महसूस कर रहे होंगे, जिन्होंने उम्मीद की थी कि उनके सांसद न सिर्फ निर्वाचन क्षेत्र से जुड़े सवाल उठाएंगे, बल्कि देश और समाज की दृष्टि से महत्वपूर्ण संसदीय चर्चाओं में भी भाग लेंगे।
बेशक ये ‘मौनी’ सांसद किसी दल विशेष के नहीं हैं, पर यह आंकड़ा चौंकानेवाला है कि इनमें सबसे ज्यादा छह उस भाजपा के हैं, जिसके नेता भाषण कला में माहिर माने जाते हैं। दूसरे नंबर पर तेजतर्रार नेत्री एवं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस है, जिसके दो सांसदों ने अपने कार्यकाल के दौरान एक भी सवाल नहीं पूछा।
नौवें सांसद मायावती की बसपा के अतुल राय हैं, जो उत्तर प्रदेश के घोसी निर्वाचन क्षेत्र से निर्वाचित हुए, पर एक मामले में सजा काटते हुए उनका ज्यादातर समय जेल में ही गुजरा।
पांच साल के कार्यकाल में एक भी सवाल न पूछनेवाले भाजपा सांसदों में सबसे दिलचस्प मामला फिल्म अभिनेता से राजनेता बने सनी देओल का है। वह पंजाब के गुरदासपुर से सांसद हैं। वैसे यह जानना भी दिलचस्प होगा कि 17 वीं लोकसभा में भाजपा के दो सांसद भी ऐसे रहे, जो एक दिन भी सदन की कार्यवाही से अनुपस्थित नहीं रहे। ये हैं: भगीरथ चौधरी और मोहन मांडवी।
राजनीतिक दल अपने निष्ठावान नेताओं को नजरअंदाज कर ऐसे सेलिब्रिटीज को उनकी लोकप्रियता भुनाने के लिए ही टिकट देते हैं।
ये सेलिब्रिटीज भी अपनी लोकप्रियता भुना कर सत्ता गलियारों में प्रवेश को लालायित रहते हैं, पर इससे राजनीति और लोकतंत्र को क्या हासिल होता है—इस पर कम-से-कम मतदाताओं को अवश्य चिंतन-मनन करना चाहिए। संसदीय लोकतंत्र को इस तरह मखौल बनाना और बनते देखना, दोनों ही दुर्भाग्यपूर्ण हैं।