शरद जोशी का कॉलम: हिंदी साहित्य में नीम का स्थान

By शरद जोशी | Updated: July 28, 2019 07:49 IST2019-07-28T07:49:46+5:302019-07-28T07:49:46+5:30

नीम शुद्ध हवा देता है. उसके पत्ते झरने से जरूर दुख होगा. पहले काव्य और वैद्यक का अध्ययन साथ-साथ होता था. प्रभाव आज तक है. अब पता नहीं, सब कवि ‘नीम गुण विधान’ नामक पुस्तक का अध्ययन करते हैं या नहीं.

Importance of neem tree in Hindi literature | शरद जोशी का कॉलम: हिंदी साहित्य में नीम का स्थान

शरद जोशी का कॉलम: हिंदी साहित्य में नीम का स्थान

जेलरोड के मोड़ पर एक सबसे बड़ी खास बात है कि अपने दांत खराब कराने के लिए पान की दुकानें वहां हैं; दांत तुड़वाने और बिठवाने के लिए ऊपर एक डॉक्टर की दुकान है और दांत साफ करने के लिए दातून वहीं मिलते हैं.रोज लौटते समय नीम की दातून खरीदने की आदत पड़ गई है. कृष्ण चंदर की दातूनवाली कहानी पढ़ी थी और कुछ नीम की कड़वाहट सोचने पर यों ही मजबूर करती है. जब हम दातून करते हैं तो नीम की काड़ी एक तो गति देती है, दूसरी चीज देती है कड़वा रस और तीसरी चीज स्वस्थता. प्रगतिशील कविता में भी यही चाहिए- गति, यथार्थ की कड़वाहट और स्वस्थ परिणाम.

इसी कारण जो शाश्वत और स्वस्थ साहित्य की बात करते हैं, उन्हें नीम को अपना प्रतीक बनाना चाहिए. नए काव्य ने नीम से दातून प्रारंभ किया और पंतजी थिरकने लगे कि ‘झूम-झूम सिर नीम हिलाते सुख से विह्वल.’ पिछले काव्य ने आम का रस चूस लिया था, अब नीम की डार ही एक आसरा थी. हवा में जो सांय-सांय का स्वर माना जाता है, वह नीम के पास सुनाई दिया. झर-झर और मर्मर ध्वनि यहीं कान आई तो साहित्य ने पैर टिका दिया.

ओ बोले कि ‘झूम रही अधुदालती, गंध के डोरे डालती, झर-झर पड़े अकासनीम.’ ‘अश्क’ जी ने अपने सारे किए दातूनों का अहसान चुकाया और एक पूरा खंड काव्य ही ‘ओ नीम, ओ नीम’ पुकारते गुजार दिया. सो साहित्य में नीम की डालियां पनपीं-फूटीं. शमशेर बहादुर सिंह को नीम चांद का जोड़ा बड़ा प्यारा लगने लगा. आम की पत्ती के बजाय नीम की पत्ती के कटाव बड़े सुंदर लगते हैं. केदार इसी कारण गुनगुनाए कि ‘झरने लगे नीम के पत्ते, बढ़ने लगी उदासी मन की.’

नीम शुद्ध हवा देता है. उसके पत्ते झरने से जरूर दुख होगा. पहले काव्य और वैद्यक का अध्ययन साथ-साथ होता था. प्रभाव आज तक है. अब पता नहीं, सब कवि ‘नीम गुण विधान’ नामक पुस्तक का अध्ययन करते हैं या नहीं. देवकीनंदन जोशी की कहानी का पात्र इसी कारण जीवन की कड़वाहटों और दातून के आनंद की बात एक साथ छेड़ता है. एक तो कहानी और फिर नीम चढ़ी-दुहरा व्यंग्य. इसी कारण जब जेलरोड के मोड़ से आता हूं, नीम की दातून मुङो काव्य की छड़ी दिखती है और जब नीम का पेड़ हरा-भरा देखता हूं तो मालवी लोकगीत याद आता है, ‘लींबडा लींबोली पाकी सावण महिनो आयो जी.
(रचनाकाल - 1950 का दशक)

Web Title: Importance of neem tree in Hindi literature

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