ब्लॉग: पानी बचाना है तो पारंपरिक जल-प्रणालियों को बचाएं

By पंकज चतुर्वेदी | Published: March 26, 2022 09:20 AM2022-03-26T09:20:47+5:302022-03-26T09:23:41+5:30

अनुभवों से यह तो स्पष्ट है कि भारी-भरकम बजट, राहत, नलकूप जैसे शब्द जलसंकट का निदान नहीं हैं. करोड़ों-अरबों की लागत से बने बांध सौ साल भी नहीं चलते, जबकि हमारे पारंपरिक ज्ञान से बनी जल संरचनाएं ढेर सारी उपेक्षा, लापरवाही के बावजूद आज भी पानीदार हैं.

if you want to save water then save the traditional water systems | ब्लॉग: पानी बचाना है तो पारंपरिक जल-प्रणालियों को बचाएं

ब्लॉग: पानी बचाना है तो पारंपरिक जल-प्रणालियों को बचाएं

Highlightsजलवायु परिवर्तन के खतरे के सामने आधुनिक इंजीनियरिंग बेबस है.कुंड और बावड़ियां महज जल संरक्षण के साधन नहीं बल्कि हमारी स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना रहे हैं.राजस्थान में तालाब, बावड़ियां, कुई और झालार सदियों से सूखे का सामना करते रहे.

कोई साल बारिश का रूठ जाना तो कभी ज्यादा ही बरस जाना हमारे देश की नियति है. थोड़ा ज्यादा बरसात हो जाए तो उसको समेटने के साधन नहीं बचते और कम बरस जाए तो ऐसा रिजर्व स्टॉक नहीं दिखता जिससे काम चलाया जा सके. 

अनुभवों से यह तो स्पष्ट है कि भारी-भरकम बजट, राहत, नलकूप जैसे शब्द जलसंकट का निदान नहीं हैं. करोड़ों-अरबों की लागत से बने बांध सौ साल भी नहीं चलते, जबकि हमारे पारंपरिक ज्ञान से बनी जल संरचनाएं ढेर सारी उपेक्षा, लापरवाही के बावजूद आज भी पानीदार हैं. 

जलवायु परिवर्तन के खतरे के सामने आधुनिक इंजीनियरिंग बेबस है. यदि भारत का ग्रामीण जीवन और खेती बचाना है तो बारिश की हर बूंद को सहेजने के अलावा और कोई चारा नहीं है. यही हमारे पुरखों की रीत भी थी.

बुंदेलखंड में करोड़ों के राहत पैकेज के बाद भी पानी की किल्लत के चलते निराशा, पलायन व बेबसी का आलम है. देश के बहुत बड़े हिस्से के लिए अल्प वर्षा नई बात नहीं है और न ही वहां के समाज के लिए कम पानी में गुजारा करना, लेकिन बीते पांच दशक के दौरान आधुनिकता की आंधी में दफन हो गए हजारों चंदेल-बुंदेला कालीन तालाबों और पारंपरिक जल प्रणालियों के चलते यह हालात बने.

म.प्र. के बुरहानपुर शहर की आबादी तीन लाख के आसपास है. निमाड़ का यह इलाका पानी की कमी के लिए जाना जाता है, लेकिन आज भी शहर में कोई अठारह लाख लीटर पानी प्रतिदिन एक ऐसी प्रणाली के माध्यम से वितरित होता है, जिसका निर्माण सन् 1615 में किया गया था. यह प्रणाली जल संरक्षण और वितरण की दुनिया की अजूबी मिसाल है, जिसे ‘भंडारा’ कहा जाता है. 

सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला से एक-एक बूंद जल जमा करने और उसे नहरों के माध्यम से लोगों के घरों तक पहुंचाने की यह व्यवस्था मुगल काल में फारसी जल-वैज्ञानिक तबकुतुल अर्ज ने तैयार की थी.

समय की मार के चलते दो भंडारे पूरी तरह नष्ट हो गए हैं. सनद रहे कि हमारे पूर्वजों ने देश-काल परिस्थिति के अनुसार बारिश को समेट कर रखने की कई प्रणालियां विकसित व संरक्षित की थीं, जिसमें तालाब सबसे लोकप्रिय थे. 

घरों की जरूरत यानी पेयजल व खाना बनाने के लिए मीठे पानी का साधन कुआं कभी घर-आंगन में हुआ करता था. धनवान लोग सार्वजनिक कुएं बनवाते थे. हरियाणा से मालवा तक जोहड़ या खाल जमीन की नमी बरकरार रखने की प्राकृतिक संरचना है. 

ये आमतौर पर वर्षा-जल के बहाव क्षेत्र में पानी रोकने के प्राकृतिक या कृत्रिम बांध के साथ छोटे तालाब की मानिंद होता है. तेज ढलान पर तेज गति से पानी के बह जाने वाले भूस्थल में पानी की धारा को काटकर रोकने की पद्धति पाट पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय रही है. 

एक नहर या नाली के जरिये किसी पक्के बांध तक पानी ले जाने की प्रणाली नाड़ा या बंधा अब देखने को नहीं मिल रही है. कुंड और बावड़ियां महज जल संरक्षण के साधन नहीं बल्कि हमारी स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना रहे हैं. आज जरूरत है कि ऐसी ही पारंपरिक प्रणालियों को पुनर्जीवित करने के लिए खास योजना बनाई जाए व इसकी जिम्मेदारी स्थानीय समाज की ही हो.

राजस्थान में तालाब, बावड़ियां, कुई और झालार सदियों से सूखे का सामना करते रहे. ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु में ऐरी, नगालैंड में जोबो तो लेह-लद्दाख में जिंग, महाराष्ट्र में पैट, उत्तराखंड में गुल, हिमाचल प्रदेश में कुल और जम्मू में कुहाल कुछ ऐसे पारंपरिक जल-संवर्धन के तरीके थे जो आधुनिकता की आंधी में कहीं गुम हो गए और अब आज जब पाताल का पानी निकालने व नदियों पर बांध बनाने की जुगत विफल होती दिख रही है तो फिर उनकी याद आ रही है. 

गुजरात के कच्छ के रण में पारंपरिक मालधारी लोग खारे पानी के ऊपर तैरती बारिश की बूंदों के मीठे पानी को विरदा के प्रयोग से संरक्षित करने की कला जानते थे. सनद रहे कि उस इलाके में बारिश भी बहुत कम होती है. हिम-रेगिस्तान लेह-लद्दाख में सुबह बर्फ रहती है और दिन में धूप के कारण कुछ पानी बनता है जो शाम को बहता है. वहां के लोग जानते थे कि शाम को मिल रहे पानी का सुबह कैसे इस्तेमाल किया जाए.

जल संचयन के स्थानीय व छोटे प्रयोगों से जल संरक्षण में स्थानीय लोगों की भूमिका व जागरूकता दोनों बढ़ेंगे, साथ ही इससे भूजल का रिचार्ज तो होगा ही, जो खेत व कारखानों में पानी की आपूर्ति को सुनिश्चित करेगा.

Web Title: if you want to save water then save the traditional water systems

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