‘स्मार्ट’ शहरों की कैसे दूर होगी बदहाली ?
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: April 4, 2025 07:21 IST2025-04-04T07:20:54+5:302025-04-04T07:21:25+5:30
लेकिन जब 31 मार्च 2025 को आधिकारिक तौर पर वह मिशन समाप्त हुआ तो कई महत्वपूर्ण सवाल अनुत्तरित ही रह गए.

‘स्मार्ट’ शहरों की कैसे दूर होगी बदहाली ?
अभिलाष खांडेकर
ग्रामीण क्षेत्रों की कीमत पर शहरी क्षेत्रों का चौतरफा विकास करना नेताओं और सरकारों का हमेशा से शौक रहा है. कोई भी पार्टी या सरकार इसका अपवाद नहीं रही है. आजादी मिलने के समय नीति निर्माताओं के दिमाग में गांवों की तुलना में शहरों का दबदबा कम था, लेकिन धीरे-धीरे शासक वर्ग के बीच शहरों के प्रति प्रेम बढ़ता गया. दशक दर दशक शहरों ने सरकारों का ध्यान और धन आकर्षित करना शुरू कर दिया.
शहरी भारत का पेट भरने वाला विशाल ग्रामीण भारत इस प्रकार हर मामले में पिछड़ा रहा. कोई भी आधिकारिक या स्वतंत्र रिपोर्ट इस तथ्य की पुष्टि कर सकती है कि शहरों का विस्तार ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में कितनी तेजी से हुआ है.
समाज में परिवर्तन, जनसांख्यिकी में लगातार स्वरूप का बदलाव, नित नई प्रौद्योगिकी का आगमन, प्राकृतिक और कृत्रिम स्थलांतरण, शहरों में उनकी वहन क्षमता की चिंता किए बिना बुनियादी ढांचे के निर्माण पर जोर आदि के परिणामस्वरूप अव्यवस्थित शहरी विकास सब जगह देखा जा सकता है.
प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद नरेंद्र मोदी ने देश भर में 100 स्मार्ट सिटी बनाने की घोषणा की. उनके इरादों पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता था. लेकिन जब 31 मार्च 2025 को आधिकारिक तौर पर वह मिशन समाप्त हुआ तो कई महत्वपूर्ण सवाल अनुत्तरित ही रह गए.
अव्वल तो क्या किसी ने स्मार्ट सिटी की कभी मांग की थी? कुछ शहरों जैसे भोपाल आदि में जनता ने स्मार्ट सिटी परियोजनाओं के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया; बैनर लगाए गए जिन पर लिखा था कि ‘हमें स्मार्ट सिटी नहीं चाहिए.’
फिर भी, स्मार्ट सिटी मिशन को भारतीयों पर थोपा गया, ठीक वैसे ही जैसे महंगी मेट्रो रेल परियोजनाओं को थोपा जा रहा है.
स्मार्ट सिटी बनाने में पुरानी बस्तियों को ध्वस्त किया गया, लोगों को उजाड़ा गया, लाखों की संख्या में हरे-भरे पेड़ों को काटा गया, बगीचों को नष्ट किया गया, अधिकारियों, सलाहकारों और इंजीनियरों के लिए स्मार्ट कार्यालय बनाए गए और चुने हुए 100 शहरों को स्मार्ट बनाने के लिए कुछ सिविल ठेकेदारों या आईटी फर्मों को वित्तीय तौर पर उपकृत किया गया.
नतीजा क्या रहा? जैसा कि संसद को बताया गया- 10 साल में सिर्फ 16 प्रतिशत काम पूरा हुआ. दूसरे शब्दों में, सिर्फ 16 शहर ही तय काम पूरा कर पाए. यानी 100 में से सिर्फ 16 भारतीय शहर एक दशक में ‘स्मार्ट’ बन पाए. मुझे गुवाहाटी से गोवा (उत्तर); अहमदाबाद से आगरा; पुणे से रायपुर; चेन्नई से कोलकाता और दिल्ली से मुंबई तक इन आसन्न ‘स्मार्ट शहरों’ में से कई का दौरा करने का अवसर मिला.
मैंने कहीं भी शहरी स्वरूप में टिकाऊ, उपयोगी व नया बदलाव नहीं देखा. वास्तव में, कई जगहों पर जहां लोगों को बेदखल कर दिया गया था उन्हें समुचित तरीके से बसाया नहीं जा सका, सरकारों द्वारा नए घरों का वादा पूरा नहीं किया गया. बंगाल का केंद्र से झगड़ा जगजाहिर है, पर भाजपा शासित राज्य भी फिसड्डी रहे हैं. इस खराब प्रदर्शन के लिए कौन जिम्मेदार है? उन्हें करदाताओं के पैसे बर्बाद करने के लिए क्यों दंडित नहीं किया जाना चाहिए?
मोदी सरकार से पहले, कांग्रेस के नेतृत्व वाली ‘यूपीए’ ने 2005 में जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम) को बहुत धूमधाम से शुरू किया था. इसका उद्देश्य केंद्रीय वित्त पोषण के साथ सात वर्षों में शहरों में सेवाओं में सुधार करना था. लेकिन आज भी नगर निगमों का कामकाज बहुत जटिल है.
अंततः अटल (बिहारी वाजपेयी) ने नेहरू की जगह ली और भाजपा सरकार के तहत नई योजना अमृत (अटल मिशन फॉर रिजुवेनेशन एंड अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन) के रूप में काम करने लगी.
शहरों का संचालन शहर के प्रबंधकों द्वारा किया जाता है जो स्थानीय नगर निकायों के प्रमुख करते हैं. स्मार्ट सिटी मिशन के तहत आने वाले 100 शहरों में से ज्यादातर में आईएएस अधिकारियों की अगुआई में नगर निगम चलते हैं और चुने हुए मेयर शहर का प्रशासन करते हैं.
उनसे उम्मीद की जाती थी कि वे शहरों को स्मार्ट बनाएंगे और शहरी जीवन के अनुभवों को बेहतर बनाएंगे, जैसा कि जून 2015 में मोदी ने कल्पना की थी. इसे पूरा किए जाने की मूल समय- सीमा मार्च 2023 थी. तार्किक कारणों से इसे बढ़ाकर 31 मार्च 2025 कर दिया गया. फिर भी 84 शहर स्मार्ट तमगा पाने में विफल रहे. क्या उन 16 शहरों, जहां कथित तौर पर सभी परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं, पर अब आधिकारिक तौर पर ‘स्मार्ट सिटी’ का ठप्पा लगाया जा सकता है?
एक आधिकारिक बयान के अनुसार, ‘मिशन ने उल्लेखनीय प्रगति की है तथा 1,47,704 करोड़ रु. के निवेश से 8,075 परियोजनाओं में से 7,380 परियोजनाएं पूरी कर ली गई हैं’ हालांकि यदि आप तथाकथित स्मार्ट शहरों के अंतर्गत हमेशा कष्ट झेलने वाले नागरिकों से पूछें तो वे वास्तविक प्रतिक्रिया देंगे कि उनकी जीवनशैली में वाकई में कितना सुधार हुआ है, वह भी उनकी अपनी कीमत पर.
टैक्स तो जनता ही भरती है न? जब शहरी मामलों के मंत्री वेंकैया नायडू ने स्मार्ट सिटी मिशन की घोषणा की थी तो पहली सूची में केवल कुछ ही शहर शामिल थे. मैं संसद में नायडू का भाषण सुन रहा था, जिन्होंने बाद में कहा कि कई सांसद अचानक अपने निर्वाचन क्षेत्र के लिए स्मार्ट सिटी की मांग उनसे करने लगे जैसे जादू की डंडी घुमा देने से शहर चकाचक हो उठेंगे. जब फरवरी 2016 में नायडू ने इंदौर स्मार्ट सिटी का शुभारंभ किया, तो मैं एक अलग कारण से उस आधिकारिक उद्घाटन समारोह का हिस्सा था.
खैर, आज मैं यह नहीं कह सकता कि इंदौर उतना स्मार्ट है जितना कि उम्मीद थी. बेशक, यह सबसे साफ-सुथरा है. लेकिन ट्रैफिक जाम, जलभराव, अपराध, ध्वनि और वायु प्रदूषण, हरियाली और आर्द्रभूमि का खत्म होना, गायब होते बगीचे, अतिक्रमण, पार्किंग स्थलों का अभाव, पैदल चलने वालों के लिए समस्याएं पहले जैसी ही हैं - जैसे कि वे अन्य भारतीय ‘स्मार्ट शहरों’ में हैं.